"कुमारिल भट्ट": अवतरणों में अंतर

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== परिचय ==
कुमारिल भट्ट [[असम]] निवासी भट थे और पहले [[बौद्ध धर्म|बौद्ध]] थे किंतु बाद में धर्म परिवर्तन द्वारा [[हिन्दू धर्म]] में उन्होंने प्रवेश किया। तारानाथ उन्हें दक्षिण भारत का निवासी बताते हैं। उनके काल के विषय में विद्वानों में मतभेद है। किंतु सामान्य रूप से उनका समय ईसा की सातवीं शताब्दी में रखा जा सकता है। वे [[आदि शंकराचार्य|शंकराचार्य]] से पहले हुए। वे [[वाचस्पति मिश्र]] (850 ई.) के भी पूर्ववर्ती हैं और [[मण्डन मिश्र|मंडन मिश्र]] उनके अनुयायी हैं। कुमारिल [[भवभूति]] (620 ई.-680 ई.) के गुरु थे। कुमारिल का यश [[हर्षवर्धन]] के अंतिम काल में अच्छी तरह फैल चुका था।
 
== रचनाएँ ==
कुमारिल ने [[शबर|शाबर भाष्य]] पर तीन प्रसिद्ध वृत्तिग्रंथ लिखे।
* (1) '''श्लोकवार्तिक''' - यह प्रथम अध्याय के प्रथम पाद की व्याख्या है।
* (2) '''तंत्रवार्तिक''' - इसमें पहले अध्याय के दूसरे पाद से लेकर तीसरे अध्यायों की संक्षिप्त व्याख्या की गई है।
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== कुमारिल भट्ट का दर्शन ==
कुमारिल के दर्शन का तीन मुख्य भागों में अध्ययन किया जा सकता है- ज्ञानमीमांसा, तत्वमीमांसा और आचारमीमांसा। ज्ञान के स्वरूप तथा उसके साधनों का कुमारिल ने विस्तार से विवेचन किया है (यहाँ ज्ञान का अर्थ बुद्धि-विवेक नहीं, बल्कि विदित होना है )। ज्ञान के विषय में पहला प्रश्न है कि यथार्थ ज्ञान अथवा प्रमा का स्वरूप क्या है - यानि जो दीखता, सूंघा जाता, चखा जाता वह कैसे पता चलता है मन को। मीमांसा के अनुसार, पहले से अज्ञात तथा सत्य वस्तु के ज्ञान को प्रमा कहते हैं। इस ज्ञान का किसी अन्य ज्ञान द्वारा बाध अथवा निराकरण नहीं होता और यह ज्ञान निर्दोष कारणों से उत्पन्न होता है। जिस साधन द्वारा प्रमा अथवा यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती है उसे [[प्रमाण]] कहते हैं। कुमारिल के मत से प्रमाण छह प्रकार के हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि। [[अद्वैत वेदान्त|अद्वैत वेदांत]] भी उपयुक्त छह प्रमाणों को स्वीकार करता है। मीमांसा ज्ञान को स्वत:प्रामाण्य मानती है। कुमारिल के अनुसार ज्ञान की प्रामाणिकता अथवा सत्यता की प्रतीति उसके उत्पन्न होने के साथ होती है। जिस समय किसी वस्तु का ज्ञान होता है उसी समय उसकी सत्यता का भी ज्ञान हो जाता है। उसकी सत्यता सिद्ध करने के लिए किसी अन्य प्रमाणों की आवश्यकता नहीं होती। किंतु ज्ञान की असत्यता अथवा अप्रमाणिकता का बोध तब होता है जब उसका बाद में वस्तु के वास्तविक स्वरूप से विरोध दिखाई पड़ता है या उसको उत्पन्न करनेवाले कारणों के दोषों का ज्ञान हो जाता है। अत: मीमांसा ज्ञान के विषय में स्वत:प्रामाण्यवाद को मानती है। मीमांसा के अनुसार ज्ञान का प्रामाण्य स्वत: और अप्रमाण्य परत: होता है। कुमारिल और प्रभाकर दोनों ही इस मत का प्रतिपादन करते हैं।
 
=== पदार्थ - द्रव्य, गुण, उनमें समानता और उनका दूसरों से विशेष ===