"पटिसंभिदामग्ग": अवतरणों में अंतर
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'''पटिसंभिदामग्ग''', [[खुद्दकनिकाय|खुद्दक निकाय]] का 12वाँ ग्रंथ है। इसमें आर्यभूमि की प्राप्ति में सहायक चार प्रकार के ज्ञान का निरूपण है। इसलिये यह ग्रंथ "पटिसंभिदाभग्ग" कहलाता है।
== परिचय ==
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'''3. चुल्लवग्ग''' : महापंञाकथा, इद्धिकथा, अभिसमयकथा, विवेककथा, चरियाकथा, पाटिहारियकथा, समसीसकथा सतिपट्ठानकथा विपस्सनाकथा और मातिकाकथा।
कथाएँ क्रमबद्ध हैं। [[अट्टकथा|अट्ठकथा]] के अनुसार 30 कथाओं में ञाणकथा को पहला स्थान इसलिये दिया गया है, क्योंकि सम्यक् दृष्टि ही बुद्धदेशित मार्ग का प्रथम अंग है। ज्ञान से मिथ्यादृष्टि दूर हो जाती है। इसलिये ञाणकथा के बाद ही विट्टिकथा दी गई है। मिथ्यादृष्टि के दूर होने से चित्त समाधिस्थ होता है। समाधिभावना में सतिपट्ठान (स्मृत्युपस्थान) का प्रमुख स्थान है। इसलिये दिट्टिकथा के बाद ही आनापानसतिकथा दी गई है। श्रद्धादि पाँच इंद्रियों के अभ्यास से आनापान स्मृति पुष्ट हो जाती है। इसलिये आनापानसतिकथा के बाद ही इंद्रियकथा दी गई है। इंद्रियों के अभ्यास से चित्त बंधनमुक्त हो जाता है। इसलिये इंद्रियकथा के बाद ही विमोक्खकथा दी गई हैं। सभी योनियों के जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। जो सुगतियों में जन्म लेते हैं, ये ही उसे प्राप्त कर सकते हैं। इसलिये विमोक्खकथा के बाद ही गतिकथा दी गई है। किसी जीव की गति उसके कर्मानुसार होती है। इसलिये गतिकथा के बाद ही कम्मकथा दी गई है। चार प्रकार के विपर्यसों (अथवा ज्ञान) के कारण जीव कर्मसंचय करते हैं। इसजिये कम्मकथा के बाद दी विपल्लास कथा और मग्ग कथाएँ दी गई हैं। इस वग्ग की अंतिम कथा मंडपेय्य कथा है। मंड का अर्थ है सार। इसका प्रोग सारभूत आर्यमार्ग के लिये हुआ है। इसी प्रकार अन्य कथाओं की भी क्रमबद्धता दिखाई गई है।
इन कथाओं में वर्णित अधिकांश विषय एक न एक सुत्त पर आश्रित हैं। वास्तव में किसी सुत्त के विवरण के रूप में ही विषय की व्याख्या की गई है। इन व्याख्याओं का बड़ा महत्व है। इसलिये बाद की अट्ठकथाओं में उन विषयों के विवरण में पटिसभिदामग्ग की व्याख्याओं का उल्लेख किया गया है। विशुद्धिमार्ग में तो इनकी बहुलता है।
पटिसंभिदामग्ग की शैली, जो विश्लेषणात्मक है, [[
अट्ठकथा में [[सारिपुत्त थेर]] को पटिसंभिदामग्ग का रचयिता बताया गया है। आधुनिक विद्वान् इसे मानने को तैयार नहीं है। लेकिन अट्ठकथा की मान्यता भी निराधार नहीं है। इस ग्रंथ की शैली सारिपुत्त थेर के सुत्तंतों की शैली के समान है। संमादिट्ठि, संपसादनिया संगीतिपरियाय, दसुत्तर और महावेदल्ल सुत्त इसके कतिपय उदाहरण हैं। हाँ भगवान और उनके कतिपय अन्य शिष्यों के सुत्तंत भी इसमें संगृहीत हैं लेकिन सारिपुत्त थेर के सुत्तंतों की ही प्रमुखता है। संभवत: इसी बात के कारण प्राचीन परंपरा सारिपुत्त थेर को पटिसंभिदामग्ग का रचयिता बताने के पक्ष में रही होगी।
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