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सन् 1313 ई. से यूरोप में तोप के प्रयोग का पक्का प्रमाण मिलता है। [[भारत]] में [[बाबर]] ने [[पानीपत की लड़ाई]] (सन् 1526 ई.) में तोपों का पहले-पहले प्रयोग किया।
पहले तोपें [[कांसा|काँसे]] की बनती थीं और उनको ढाला जाता था। परंतु ऐसी तोपें पर्याप्त पुष्ट नहीं होती थीं। उनमें अधिक [[बारूद]] डालने से वे फट जाती थीं। इस दोष को दूर करने के लिए उनके ऊपर लोहे के छल्ले तप्त करके खूब कसकर चढ़ा दिए जाते थे। ठंढा होने पर ऐसे छल्ले सिकुड़कर बड़ी दृढ़ता से भीतरी नाल को दबाए रहते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे बैलगाड़ी के पहिए के ऊपर चढ़ी हाल पहिए को दबाए रहती है। अधिक पुष्टता के लिए छल्ले चढ़ाने के पहले नाल पर लंबाई के अनुदिश भी लोहे की छड़ें एक दूसरी से सटाकर रख दी जाती थीं। इस समय की एक प्रसिद्ध तोप मॉन्स मेग है, जो अब [[एडिनबर्ग|एडिनबरा]] के दुर्ग पर शोभा के लिए रखी है। इसके बाद लगभग 200 वर्षों तक तोप बनाने में कोई विशेष उन्नति नहीं हुई। इस युग में नालों का संछिद्र (बोर) चिकना होता था। परंतु लगभग सन् 1520 में [[जर्मनी]] के एक तोप बनानेवाले ने संछिद्र में सर्पिलाकार खाँचे बनाना आरंभ किया। इस तोप में गोलाकार गोले के बदले लंबोतर "गोले" प्रयुक्त होते थे। संछिद्र में सर्पिलाकार खाँचों के कारण प्रक्षिप्त पिंड वेग से नाचने लगता है। इस प्रकार नाचता (घूर्णन करता) पिंड [[वायु]] के प्रतिरोध से बहुत कम विचलित होता है और परिणामस्वरूप लक्ष्य पर अधिक सच्चाई से पड़ता है।
[[चित्र:Scheme of boating cannon.gif|right|thumb|300px|तोप में गोला भरने से गोला छोड़ने तक की क्रिया का एनिमेशन]]
साधारण तोपों में प्रक्षिप्त बड़े वेग से निकलता है और तोप की नाल को बहुत ऊँची दिशा में नहीं लाया जा सकता है। दूसरी ओर छोटी नाल की तोपें हल्की बनती हैं और उनसे निकले प्रक्षिप्त में बहुत वेग नहीं होता, परंतु इनमें यह गुण होता है कि प्रक्षिप्त बहुत ऊपर उठकर नीचे गिरता है और इसलिए इससे दीवार, पहाड़ी आदि के पीछे छिपे शत्रु को भी मार सकते हैं। इन्हें '''मॉर्टर''' कहते हैं। मझोली नाप की नालवाली तोप को हाउविट्ज़र कहते हैं। जैसे-जैसे तोपों के बनाने में उन्नति हुई वैसे-वैसे मॉर्टरों और हाउविट्ज़रों के बनाने में भी उन्नति हुई।
प्राय: सभी देशों में एक ही प्रकार से तोपों के निर्माण में उन्नति हुई, क्योंकि बराबर होड़ लगी रहती थी। जब कोई एक देश आधिक भारी, अधिक शक्तिशाली या अधिक फुर्ती से गोला दागनेवाली तोप बनाता तो बात बहुत दिनों तक छिपी न रहती और प्रतिद्वंद्वी देशों की चेष्टा होती कि उससे भी अच्छी तोप बनाई जाय। 1898 ई. में [[
[[पहला विश्व युद्ध|प्रथम विश्वयुद्ध]] (1914-1918) में [[जर्मनी|जर्मनों]] ने 'बिग बर्था' नामक तोप बनाई, जिससे उन्होंने [[पेरिस]] पर 75 मील की दूरी से गोले बरसाना आरंभ किया। इस तोप में कोई नया सिद्धांत नहीं था। तोप केवल पर्याप्त बड़ी और पुष्ट थी। परंतु हवाई जहाजों तथा अन्य नवीन यंत्रों के आविष्कार से ऐसी तोपें अब लुप्तप्राय हो गई हैं।
'''आरोपण''' - आरंभ में तोपें प्राय: किसी भी दृढ़ चबूतरे अथवा चौकी पर आरोपित की जाती थीं, परंतु धीरे-धीरे इसकी आवश्यकता लोग अनुभव करने लगे कि तोपों को सुदृढ़ गाड़ियों पर आरोपित करना चाहिए, जिसमें वे सुगमता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाई जा सकें और प्राय: तुरंत गोला दागने के लिए तैयार हो जाएँ। गाड़ी के पीछे भूमि पर घिसटनेवाली पूँछ के समान भाग भी रहता था, जिसमें धक्के से गाड़ी पीछे न भागे। सुगमता से खींची जा सकनेवाली तोप की गाड़ियाँ सन् 1680 से बनने लगी। सन् 1867 में डाक्टर सी.डब्ल्यू. सीमेंस ने सुझाव दिया कि धक्के को रोकने के लिए तोप के साथ ऐसी पिचकारी लगानी चाहिए कि जिसमें पानी निकलने का मुँह सूक्ष्म हो (अथवा आवश्यकतानुसार छोटा बड़ा किया जा सके)। पीछे यही काम कमानियों से लिया जाने लगा। गाड़ियाँ भी इस्पात की बनने लगीं।
== तोपों का निर्माण ==
तोपों, हाउविट्ज़रों और मॉर्टरों की [[आकल्पना]]ओं ([[
=== पश्चखंड ===
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