"ज्ञानेश्वरी": अवतरणों में अंतर

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'''ज्ञानेश्वरी''' [[महाराष्ट्र]] के संत कवि [[ज्ञानेश्वर]] द्वारा [[मराठी भाषा]] में रची गई [[श्रीमद्भगवद्गीता|श्रीमदभगवतगीता]] पर लिखी गई सर्वप्रथम भावार्थ रचना है। वस्तुत: यह काव्यमलेकनय प्रवचन है जिसे संत ज्ञानेश्वर ने अपने जेष्ठ बंधू तथा गुरू [[निवृत्तिनाथ]] के निर्देश पर किया था। इसमें गीता के मूल ७०० श्लोकों का मराठी भाषा की ९००० [[ओवी|ओवियों]] में अत्यंत [[रस (काव्य शास्त्र)|रसपूर्ण]]पूर्ण विशद विवेचन है। अंतर केवल इतना ही है कि यह [[आदि शंकराचार्य|श्री शंकराचार्य]] के समान गीता का प्रतिपद [[भाष्य]] नहीं है। यथार्थ में यह गीता की भावार्थदीपिका है।
 
== परिचय ==
यह भाष्य अथवा टीका ज्ञानेश्वर जी की स्वतंत्र बुद्धि की देन है। मूल गीता की अध्यायसंगति और श्लोकसंगति के विषय में भी कवि की स्वयंप्रज्ञा अनेक स्थलों पर प्रकट हुई है। प्रारंभिक अध्यायों की टीका संक्षिप्त है परंतु क्रमश: ज्ञानेश्वर जी की प्रतिभा प्रस्फुटित होती गई है। गुरुभक्ति, श्रोताओं की प्रार्थना, मराठी भाषा का अभिमान, गीता का स्तवन, श्रीकृष्ण और अर्जुन का अकृत्रिम स्नेह इत्यादि विषयों ने ज्ञानेश्वर को विशेष रूप से मुग्ध कर लिया है। इनका विवेचन करते समय ज्ञानेश्वर की वाणी वस्तुत: अक्षर साहित्य के अलंकारों से मंडित हो गई है। यह सत्य है कि आज तक भगवद्गीता पर साधिकार वाणी से कई काव्यग्रंथ लिखे गए। अपने कतिपय गुणों के कारण उनके निर्माता अपने-अपने स्थानों पर श्रेष्ठ ही हैं तथापित डॉo [[राo दo रानडे]] के समुचित शब्दों में यह कहना ही होगा कि विद्वत्ता, कविता और साधुता इन तीन दृष्टियों से गीता की सभी टीकाओं में 'ज्ञानेश्वरी' का स्थान सर्वश्रेष्ठ है।
 
ज्ञानेश्वर ने अपनी टीका शंकराचार्य के गीताभाष्य के आधार पर लिखी है। ज्ञानदेव के स्वयं [[नाथ सम्प्रदाय|नाथ संप्रदाय]] में दीक्षित हाने के कारण उनके इस ग्रंथ में उक्त संप्रदाय के यत्र-तत्र संकेत मिलते हैं। गीता-भाष्य में वर्णित ज्ञान एवं भक्ति के समन्वय के साथ नाथ संप्रदाय के योग, स्वानुभव इत्यादि बातों का ज्ञानदेव के विवेचन में समावेश हुआ है। इन्होंने इन मूल सिद्धांतों को भागवत संप्रदाय की सुदृढ़ पीठिका पर प्रतिष्ठित किया है। ज्ञानेश्वरी भक्ति-रस-प्रधान ग्रंथ है। ईश्वर-प्राप्ति का एकमेव साधन भक्ति ही है, यह इसका महासिद्धांत है। ज्ञानदेव की भक्ति, पूजन अर्चना, व्रत तथा नियमादि से बाह्य स्वरूप की नहीं अपितु नामस्मरणदि साधनोंवाली अंतरस्वरूप की थी। नाथपंथ का योगमार्ग जन साधारण के लिये सहज साध्य न होने के कारण ज्ञानेश्वर ने उसे भक्ति का अधिष्ठान देकर ईश्वरभक्ति रूपी नेत्रों से युक्त कर दिया।
 
भारतीय दर्शन की विचारपरंपरा से ज्ञानदेव द्वारा प्रतिपादित स्फूर्तिवाद को महत्व का स्थान देना होगा। ज्ञानेश्वरी में स्फुरणरूप से अथवा बीजरूप से व्यक्त होनेवाला स्फूर्तिवाद ज्ञानेश्वर द्वारा उनके अमृतानुभव नामक एक छोटे ग्रंथ में विशद रूप से प्रतिपादित है। इस ग्रंथ के सातवें अध्याय में ज्ञानदेव ने 'विश्व का ही नाम चिद्विलास है' यह सिद्धांत तर्क शुद्ध पद्धति से प्रतिपादित किया है।
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== अनुवाद ==
इस ग्रन्थ के कई भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। [[गीताप्रेस|गीता प्रेस]] के द्वारा इसका हिंदी भाषा में भी अनुवाद हुआ है।
 
== बाहरी कड़ियाँ ==