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[[चित्र:Methane-2D-stereo.svg|thumb|right|150px|[[मिथेन]] सबसे सरल कार्बनिक यौगिक]]
[[कार्बन]] के [[रासायनिक यौगिक|रासायनिक यौगिकों]] को '''कार्बनिक यौगिक''' कहते हैं। प्रकृति में इनकी संख्या 10 लाख से भी अधिक है। जीवन पद्धति में कार्बनिक यौगिकों की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है। इनमें [[हाइड्रोजन]] भी रहता है। ऐतिहासिक तथा परंपरा गत कारणों से कुछ कार्बन के यौगकों को कार्बनिक यौगिकों की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। इनमें [[कार्बन डाईऑक्साइड|कार्बनडाइऑक्साइड]], [[कार्बन मोनोआक्साइड|कार्बन मोनोऑक्साइड]] प्रमुख हैं। सभी [[जैवाणु|जैव अणु]] जैसे [[कार्बोहाइड्रेट]], [[अमीनो अम्ल]], [[प्रोटीन]], [[राइबोज़ न्यूक्लिक अम्ल|आरएनए]] तथा [[डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक अम्ल|डीएनए]] कार्बनिक यौगिक ही हैं।
 
== हाइड्रोकार्बन ==
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== काष्ठ का भंजक आसवन ==
लकड़ी या काष्ठ में दो पदार्थ मुख्यतया होते हैं, सेलुलोस और लिगनिन। [[सेलुलोस]] का साधारण सूत्र [(C<sub>6</sub>H<sub>10</sub>O<sub>5</sub>)<sub>n</sub>] है। (n) का मान इस सूत्र में ३,००० तक हो सकता है। इस प्रकार सेलुलोस के अणु बड़े लंबे आकार के होते हैं और सेलुलोस के धागे बन सकते हैं। लिगनिन प्लास्टिक बंधक का काम करता है। इसकी रचना अज्ञात है। इसमें बैन्ज़ीन वलय, मेथॉक्सी मूलक, (-OCH<sub>3</sub>), पार्श्व श्रृंखलाएँ हैं। लकड़ी को ३८०°C तक गरम करें तो इसमें से काफी मात्रा में एक द्रव निकलता है, जिसमें ऐसीटिक अम्ल, मेथिल ऐल्कोहॉल, ऐसीटोन आदि पदार्थ होते हैं। ये पदार्थ सेल्यूलोस और लिगनिन के विभाजन से बनते हैं (देखें, [[चारकोल|काठकोयला]])। काष्ठ के [[भंजक आसवन]] से निम्न यौगिक पृथक्‌ किए जा सकते हैं : [[फॉर्मिक अम्ल]], कई [[वसा अम्ल]], असंतृप्त अम्ल, ऐसेटैल्डिहाइड, सेलिल ऐल्कोहॉल, मेथिल एथिल कीटोन, फरफरॉल, मेथिलाल, डाइमेथिल ऐसीटॉल, बेन्ज़ीन, ज़ाइलीन, क्यूमीन, सायमीन, फिनाॅल आदि। ऐसीटिक अम्ल, मेथिल एल्कोहॉल और ऐसीटोन, ये तीन पदार्थ पाइरोलिग्निअस अम्ल से विशेष रूप से प्राप्त किए जाते हैं।
 
[[पाइरोलिग्निअस अम्ल]] से प्राप्त मेथिल ऐल्कोहॉल के आक्सीकरण से फॉर्मेल्डिहाइड बनता है, जिसका आविष्कार हॉफमन ने सन् १८६७ ई• में किया था। फार्मेल्डिहाइड व्यापारिक मात्रा में तैयार करने की विधि पर्किन ने निकाली और इस पदार्थ की उपयोगिता का महत्व उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया।
 
== ऐल्कोहलीय किण्वन ==
सुरा, आसव, मद्य, मैरेय आदि मादक पदार्थों को [[किण्वन]] विधि से तैयार करने की प्रथा बहुत पुरानी है और अच्छी सुराओं के लिए विशेष बीज-किण्व तैयार किए जाते थे, जिनकी उपस्थिति में [[जौ|यव]] (जौ), [[महुआ]], [[गुड़]], [[अंगूर]] के रस आदि से शराबें तैयार होती थीं। इन किण्वों के जो शराब बनाने वाले प्रेरकाणु होते हैं, उन्हें साधारण भाषा में [[खमीर|यीस्ट]] कहा जाता है।
 
== कोयला, अलकतरा और उससे प्राप्त पदार्थ ==
देखें [[कोयला]], [[अलकतरा]], [[बेंजीन]], [[नैफ्थलीन|नैफ्थेलीन]]।
 
== ऐरोमैटिक हाइड्रोकार्बनों के व्युत्पन्न ==
बेन्जीन के क्लोरिनेशन से क्लोरो व्युत्पंन, ब्रोमीनेशन से ब्रोमो व्युत्पंन, नाइट्रेशन से मोनोनाइट्रेट, डाइनाइट्रेट और ट्राइनाइट्रो व्युत्पन्न तथा सल्फोनीकरण से सल्फोनिक अम्ल व्युत्पंन प्राप्त होते हैं। फिर इनसे ऐनिलीन, फिनोल, ऐल्डिहाइड, कार्बोक्सिलिक अम्ल, सैलिसिलिक अम्ल, सैलोल, ऐस्पिरिन इत्यादि अनेक बड़े उपयोगी पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं।
 
एक और प्रसिद्ध यौगिक सोडियम ऐमिनोसैलिसिलेट (PAS) है, जिसका उपयोग स्ट्रेप्टोमाइसीन के साथ [[यक्ष्मा|राजयक्ष्मा]] (टीबी) के उपचार में करते हैं।
 
बेन्ज़ीन वलय में एक से अधिक हाइड्रॉक्सिमूलक भी संस्थापित किए जा सकते हैं और इस प्रकार डाइहाइड्रिक, ट्राइहाइड्रिक फीनोलें तैयार की जा सकती हैं।
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===सामान्य और स्थानिक निश्चेतक, या मूर्च्छोत्पादी===
ईथर नामक द्रव का निश्चेतक के रूप में पहली बार प्रयोग हुआ और इसने प्रसव और शल्यकर्म दोनों में बड़ी सहायता दी। ईथर का क्वथनांक कम, अर्थात्‌ ३५°सें. है। यह इसका अवगुण हैं। १९५३ ई. में ट्राइफ्लोरो एथिल विनिल ईथर, CF<sub>3</sub>. CH<sub>2</sub>. OCH=CH<sub>2</sub>, को ईथर से कहीं अधिक श्रेष्ठ पाया गया। [[क्लोरोफॉर्म|क्लोरोफ़ार्म]], (CHCl<sub>3</sub>), एथिलक्लोराइड (CH<sub>3</sub>CH<sub>2</sub>Cl) और साइक्लोप्रोपेन, [(CH<sub>2</sub>)<sub>3</sub>], तो प्रसिद्ध है ही।
 
सामानय निश्चेतना या मूर्च्छा पैदा करने की अपेक्षा स्थानिक निश्चेतना साधारण शल्यकर्म में बड़ी उपयोगी हैं। १८८४ ई. में कोलर (Koller) और फ्रॉयड (Freud) ने कोकेन का इस दृष्टि से प्रयोग किया। यह देखा गया कि पेराऐमिनो बेन्ज़ोइक अम्ल के व्युत्पन्न अच्छे स्थानिक निश्चेतक हैं। वेन्ज़ोकेन, ओकेन (नोवोकेन), एमीथोकेन आदि इसी वर्ग के यौगिक हैं।
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कुछ ओषधियाँ मलेरिया ज्वर दूर करने में बड़ी गुणकारी सिद्ध हुई हैं। सिनकोना की छाल से प्राप्त क्विनीन का नाम तो विख्यात है ही, इसका प्रचार अब भी बहुत है। १९२० ई से इस बात का प्रयत्न जर्मनी में होता रहा कि मलेरिया ज्वर को दूर करने की और भी ओषधियाँ प्राप्त की जाएँ। फलत: पेमाक्विन नामक यौगिक इस बात में सफल पाया गया (१९२४ ई.)। यह प्रथम संश्लेषित मलेरियानाशी था। १९३० ई. में एट्रीबिनश् (मेपाकिन और क्विनाक्रिन) भी अच्छे पाए गए। पेमाक्विन क्विनोलिन वर्ग का यौगिक है और मेपाक्रिन पीला एक्रिडिन रंग है।
 
[[द्वितीय विश्वयुद्ध|द्वितीय महायुद्ध]] में जिन मलेरियानाशियों पर अमरीका में विशेष अनुसंधान हुए, उनमें [[प्रिमाक्विन]] और [[क्लोरोक्विन]] विशेष महत्व के पाए गए। पैलूड्रिन (Paludrine) प्रोग्वानिल हाइड्रोक्लोराइड का व्यापारी नाम है, यह भी मलेरिया रोग में काम आता है।
 
===एंटिबायोटिक=== jai
१९२८ ई. में सर ऐलेग्जेंडर फ्लेमिंग (A.Fleming) ने देखा कि कुछ वैक्टीरिया विशेष [[फफूँदफफूंद|फफूँदियों]] की विद्यमानता में मरने लगते हैं। इसी परंपरा में [[पेनिसिलिन]] का आविष्कार हुआ। १९४६ ई. में पेनिसिलिन के बेन्ज़िल व्युत्पंन (पेनिसिलिन-g) का संश्लेषण भी कर लिया गया। इसकी रासायनिक संरचना निम्न है:
 
'''पेनिसिलिन-जी''' में, (R=C6H<sub>5</sub> CH<sub>2</sub>), बेन्जिल मूलक है। दूसरे मूलक भी प्रतिस्थापित किए जा सकते हैं। भूमि, या मिट्टी के भीतर पाए जानेवाले अनेक सूक्ष्म जीवाणुओं का परीक्षण किया गया। सबसे पहली बार १९३९ ई. में ड्यूबॉस (Dubos) को सफलता मिली और उसने वैसिलस ब्रेविस (Bacillus brevis) नामक जीवाणु में से ग्रैमिसिडिन (Gramicidin) नामक पदार्थ प्राप्त किया जो पॉलिपेप्टाइडों का मिश्रण था। १९४४ ई. में स्ट्रेप्टोमाइसीज़ ग्रिसियस (Streptomyces griseus) नाम जीवाणु का पता चला, जो राजयक्ष्मा के प्रति भी क्रियाशील था। १९४७ ई. में वेनिज़्वीला में एक जीवाणु का पता चला, जिससे क्लोरैफेनिकोल (Chloramphenicol) नाक यौगिक प्राप्त किय गया। इस प्रकार ऐसे एेंटिबायोटिक द्रव्य का पता चला जो अनेक रोगों में अकेले ही का आ सकता था। इन सब अध्ययनों के फलस्वरूप क्लोरोमाइसेटिन का संश्लेषण किया गया। प्रोफेसर डुग्गर (Duggar) ने उस जीवाणु का पता चलाया जो एक सुनहरे रंग का पदार्थ भी देता था और जिसका नाम स्ट्रेप्टोमाइसीज़ ऑरिओफेसियन्स (Streptomyces aureofaciens) था। इस जीवाणु से जो पदार्थ मिला उसे आरिओमाइसीन (Aureomycin) नाम से प्रयोग में लाया गया। १९४९ ई. में नेओमाइसीन (Neomycin) की खोज वैक्समैन और लेकेवेलियर (Waksman and Lechevalier) ने की। टेरामाइसीन (Terramycin) का आविष्कार बाद में फिजर समुदाय की प्रयोगशालाओं में हुआ। इस प्रकार पेनिसिलिन युग का आरंभ हुआ।
 
== इन्हें भी देखें ==
* [[अजैविक यौगिक|अकार्बनिक यौगिक]]
* [[कार्बनिक संश्लेषण]]
* [[औषधि]]