"द्वयाधारी संख्या पद्धति": अवतरणों में अंतर

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'''द्वयाधारी संख्या पद्धति''' (दो नम्बर का सिस्टम या binary numeral system; द्वयाधारी = द्वि + आधारी = '२' आधार वाला) केवल दो [[अंक|अंकों]] ('''०''' तथा '''१''') को काम में लेने वाली [[स्थानीयस्थानिक मान पद्धति|स्थानीय मान संख्या पद्धति]] है। इसमें संख्या का मान निकालने का आधार (रैडिक्स) '''२''' लिया जाता है। चूंकि दो स्थिति (हाई / लो) वाले [[इलेक्ट्रानिक गेट]] इन संख्याओं को बड़ी सरलता से निरूपित कर देते हैं, इस कारण [[कंप्यूटर|कम्प्यूटर]] के हार्डवेयर एवं साफ्टवेयर में इस पद्धति का बहुतायत से प्रयोग होता है।
 
द्वयाधारी संख्याओं को दशमलव नंबरों में बदलने के गणितीय तरीके होते हैं। इसके तहत कई गणितीय उपकरण हैं जिनसे द्वयाधारी सहित अन्य विधियों में जमा, घटा, गुणा, भाग व अन्य गणितीय आकलन होते हैं। द्वयाधारी नंबरों से दशमलव में अंकों को बदलना जहां जटिल है, वहीं द्वयाधारी को अन्य विधियों में अंतरण करना अपेक्षाकृत सरल होता है।
 
== इतिहास ==
सबसे पूर्व इस द्वयाधारी पद्धति का वर्णन वेदों में ही प्राप्त होता है । वहाँ भगवान गणेश का एक नाम दिया है "एकदन्त" जिसका अर्थ होता है; एक अर्थात् 1 या माया और दन्त का अर्थ है शून्य(0) या ब्रह्म (god) । एकदन्त अर्थात् शून्य और एक पर आधारित गणितीय विधि । किन्तु वेदों के प्राचीन विद्वानों ने इसे *द्वयंकपद्धति* के नाम से व्यवहार किया था । गोवर्द्धन-मठ पुरीपीठ के 143वें श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी भरती कृष्ण तीर्थ जी महाराज ने अपनी पुस्तक वैदिक गणित में द्वयंकपद्धति के नाम से इसका उल्लेख किया है ।[[भारत]] के विद्वान [[पिङ्गल|पिंगल]] (लगभग ५वीं से - २री शती ईसापूर्व) ने [[छन्दछंद|छन्दों]] के वर्णन में द्वयाधारी संख्या पद्धति का अत्यन्त बुद्धिमतापूर्वक प्रयोग किया है। इस प्रकार पिंगल द्वयाधारी संख्या पद्धति का वर्णन करने वाले प्रथम व्यक्ति हैं। वर्त्तमान समय में पुरी के 145वें जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानन्द सरस्वती जी ने भी द्वयंक पद्धति नमक एक पुस्तक लिख कर इसे और अधिक उपयोगी बना दिया है ।
 
दशमलव पद्धति मानवीय उपयोग के लिये सरल है, इसलिये आरंभिक रूप यही प्रचलित हुई और बाद में भी जब गणना के कई तरीके सामने आए तो दशमलव पद्धति को प्रमुख स्थान मिला था। हालांकि द्वयाधारी भी काफी हद तक एक प्राकृतिक पद्धति है। कई आध्यात्मिक परंपराओं में, जैसे पाइथागोरस स्कूल और प्राचीन भारतीय संत परंपरा में भी इसका प्रयोग होता था। द्वयाधारी पद्धति का आरंभ ईसा पूर्व छठी शताब्दी से माना जाता है। सन् १८५४ में गणितज्ञ जॉर्ज बूल ने द्वयाधारी पद्धति पर आधारित एक पत्र प्रकाशित किया था। इसी के साथ [[बूलीय बीजगणित (तर्कशास्त्र)|बूलियन एलजेब्रा]] (बीजगणित) की आधारशिला पड़ी थी। सन् १९३७ में क्लॉड शैनन ने [[द्वयाधारी बीजगणित]] के आधार पर थ्योरी ऑफ सर्किट की नींव रखी थी। १९४० में बाइनरी कंप्यूटिंग की शुरुआत बैल लैब्स कॉम्प्लेक्स नंबर कंप्यूटर के साथ हुई थी।
 
== अंकीय गिनती (Digital counting) ==
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:100101<sub>2</sub> (यहाँ आधार-2 को सूचित करने वाला 'सबस्क्रिप्ट' जोड़ दिया गया है।)
:%100101 (द्वयाधारी संख्या बताने वाला एक उपसर्ग (प्रीफिक्स) लगा दिया गया है।)
:0b100101 (द्वयाधारी संख्या बताने वाला एक उपसर्ग (प्रीफिक्स) लगा दिया गया है। ; [[प्रोग्रामनप्रोग्रामिंग भाषा|प्रोग्रामन भाषाओं]]ओं में प्रायः प्रयुक्त)
:6b100101 (द्वयाधारी संख्या बताने वाला एक उपसर्ग (प्रीफिक्स) लगा दिया गया है। ; [[प्रोग्रामनप्रोग्रामिंग भाषा|प्रोग्रामन भाषाओं]]ओं में प्रायः प्रयुक्त)
 
द्वयाधारी संख्याओं को जब शब्दों में उच्चारित करना पड़ता है तो उन्हें अंकशः (digit-by-digit) पढ़ते हैं जिससे दाशमिक संख्याओं से भिन्नता समझ में आ सके। उदाहरण के लिये, बाइनरी संख्या 100 का उच्चारण 'एक शून्य शून्य' (one zero zero) करेंगे न कि 'एक सौ'। इससे इस संख्या का द्विआधारी प्रकृति का पता भी चल जाता है और 'शुद्धता' भी रहती है। '100', एक सौ नहीं है, यह केवल चार है। इसलिये इसे 'एक सौ' पुकारना गलत है।