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'''पारसी रंगमंच''' या '''पारसी थिएटर''' लगभग १८५० के दशक से लेकर १९३० के दशक तक [[भारत]] के पश्चिमी और उत्तरी भाग में प्रचलित रंगमंच परम्परा का सामान्य नाम है। इन थिएटर कम्पनियों के रंगकर्मी अधिकांशतः [[पारसी धर्म|पारसी]] होते थे और इनका स्वामित्व भी अधिकांशतः पारसियों के हाथों में ही था। इनमें खेले जाने वाले नाटक [[गुजराती]], [[हिन्दी]] और [[उर्दू]] में होते थे। यह रंगमंच [[मुम्बई]] में आरम्भ हुआ किन्तु शीघ्र ही ऐसी कम्पनियाँ बन गयीं जो एक जगह से दूसरे जगह जा-जाकर नाटक प्रदर्शित करतीं थीं।
 
[[हिंदी रंगमंच]] के विकास में पारसी रंगमंच का ऐतिहासिक दृष्टि से महत्व है। पारसी रंगमञ्च ने उस समय समस्त भारत में नाटक के क्षेत्र को विस्तृत करने में बहुत काम किया है। पारसी रंगमंच का व्यावसायिक दृष्टि से अनेक नाट्य मण्डलियों का जन्म हआ। इनमें से बहुत सी नाटक मण्डलियाँ अपने नाटकों के प्रयोग के लिए देश के विविध प्रांतों में भ्रमण करती थीं।
 
==इतिहास==
[[भारत]] में [[नातक|नाटकों]] का प्रचलन एक लम्बे व्यवधान के बाद अंग्रेजों के भारत में पैर जमाने के बाद मुम्बई और कोलकाता जैसे नगरों से हुआ। [[अंग्रेज़|अंग्रेजों]] के शासनकाल में भारत की राजधानी जब [[कोलकाता|कलकत्ता]] (1911) थी, वहां 1854 में पहली बार [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेजी]] [[नाटक]] मंचित हुआ। इससे प्रेरित होकर नवशिक्षित भारतीयों में अपना रंगमंच बनाने की इच्छा जगी। [[मन्दिर|मंदिरों]] में होनेवाले [[नृत्य]], गीत आदि आम आदमी के [[मनोरंजन]] के साधन थे। इनके अलावा [[रामायण]] तथा [[महाभारत]] जैसी धार्मिक कृतियों, पारंपरिक लोक नाटकों, हरिकथाओं, धार्मिक गीतों, [[जात्रा|जात्राओं]] जैसे पारम्परिक मंच प्रदर्शनों से भी लोग मनोरंजन करते थे। पारसी थियेटर से लोक रंगमंच का जन्म हुआ। एक समय में सम्पन्न [[पारसी धर्म|पारसियों]] ने नाटक कंपनी खोलने की पहल की और धीरे-धीरे यह मनोरंजन का एक लोकप्रिय माध्यम बनता चला गया। इसकी जड़ें इतनी गहरी थीं कि आधुनिक सिनेमा आज भी इस प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है।