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'''दुर्गादास राठौड़''' (दुर्गा दास राठौड़) (13 अगस्त 1638  – 22 नवम्बर 1718) को 17वीं सदी में [[महाराजा जसवंत सिंह (मारवाड़)|जसवंत सिंह]] के निधन के पश्चात् [[मारवाड़]] में [[राठौड़|राठौड़ वंश]] को बनाये रखने का श्रेय जाता है। यह करने के लिए उन्हें [[मुग़ल साम्राज्य|मुग़ल]] शासक [[औरंगज़ेब]] को ललकारा।चुनौती दी।
 
== पूर्व जीवन ==
दुर्गादास, मारवाड़ जोधपुर के राजपूत शासक महाराजा जसवंत सिंह के मंत्री आसकरण राठौड़ के पुत्र थे।<ref name=CHIp247 /> उनकी माँ अपने पति और उनकी अन्य पत्नियों के साथ नहीं रहीं और [[जोधपुर]] से दूर रहीं। अतः दुर्गादास का पालन- पोषण लुनावासलुनावा नामक गाँव में हुआ। इनका जन्म सालवाॅ कल्ला में हुआ था।
== बचपन ==
दुर्गादास जी राठौड़ बचपन मे अपने खेत मे बैठे थे और इतने में एक राईका जाति के एक युवक ने कुछ ऊँट दुर्गादास जी के बोए खेत में छोड़ दिये इससे वीर दुर्गादास ने उस राईका से ऊंट खेत से बाहर निकालने को कहा किंतु राईका ये कहते हुए मना कर दिया कि ये ऊंट बापजी हुकुम यानि जोधपुर की शाही सेना के है जो करना है कर लो ये ऐसे ही भरे खेतों में चरेंगें ये सब देखकर छोटे से बालक दुर्गादास ने आंव देखा ना टाँव अपनी तलवार से ऊंट और उस बैठे राईका दोनो को काट दिया ये बात जब महाराजा जसवंत सिंह जी के पास पहुंची तो दुर्गादास जी को दरबार मे बुलाया गया तो मारे गए का एक साथी राईका जो ये सब देख रहा था वो भी दरबार मे उपस्थित था तो महाराज ने अकड़कर कहा की अरे तूने राईका को कैसे मारा ? तो दुर्गादास जी ने फुफकारते हुए साथी राईका के सिर को धड़ से अलग कर के कहा कि ऐसे मारा !महाराज दुर्गादास की बहादुरी से प्रभावित हुए और उन्हें माफ़ कर दिया और
इस पर महाराज ने पूछा अरे किसका लड़का हैं तू ? तो जवाब में उन्होंने आसकरण जी का नाम लिया जिस पर महाराज ने कहा कि ये बालक एक दिन डूबते मारवाड़ को जरूर बचाएगा -कुँवर मनोज सिंह
 
== अजीत सिंह को समर्थन ==
सन् १६७८ में जसवंत सिंह का अफ़्गानिस्तान में निधन हो गया और उनके निधन के समय उनका कोई उत्तराधिकारी घोषित नहीं था। औरंगजेब ने मौके का फायदा उठाते हुये मारवाड़ में अपना हस्तक्षेप जमाने का प्रयास किया। इससे हिन्दूओं नष्ट करने के लिए मुग़ल रणनीति का गठन हुआ और बहुत रक्तपात के बाद भी मुग़ल सेना सफल नहीं हो सकी।<ref name=CHIp247>{{cite book |title=The Cambridge History of India |trans-titletrans_title=भारत का कैम्ब्रिज इतिहास |page=२४७ |url=http://books.google.com/books?id=yoI8AAAAIAAJ |accessdate=६ मार्च २०१५|language=अंग्रेज़ी}}</ref>
 
जसवंत सिंह के निधन के बाद उनकी दो रानियों ने नर बच्चे को जन्म दिया। इनमें से एक का जन्म के बाद ही निधन हो गया और अन्य [[महाराजा अजीत सिंह|अजीत सिंह]] के रूप में उनका उत्तराधिकारी बना। फ़रवरी १६७९ तक यह समाचार औरंगज़ैब तक पहुँचा लेकिन उन्होंने बच्चे वैध वारिस के रूप में मानने से मना कर दिया। उन्होंने [[जज़िया]] कर भी लगा दिया।<ref name=CHIp247 />
 
==अजीत सिंह को कार्यभार सौंपा==
अब महाराज [[अजीतसिंह]] की आयु अठारह वर्ष की थी। धीरे-धीरे राज्य का काम समझ गये थे, और इस योग्य हो गये थे कि दुर्गादास की सहायता बिना ही राज्य-भार वहन कर सकें। यह देखकर वीर दुर्गादरास ने संवत् 1758 वि. में [[महाराज अजीत]] को भार सौंप दिया। जरूरत पड़ने पर अपनी सम्मति दे दिया करता था।जब 1765 वि. में [[औरंगजेब]] दक्षिण में मारा गया तो उसका ज्येष्ठ पुत्र मुअज्जम गद्दी पर बैठा और अपने पूर्वज बादशाह अकबर की भांति अपनी प्रजा का पालन करने लगा। हिन्दू-मुसलमान में किसी प्रकार का भेदभाव न रखा। यह देख दुर्गादास ने निश्चिन्त होकर पूर्ण रूप से राज्यभार अजीतसिंह को सौंप दिया, किन्तु स्वतन्त्र होकर [[अजीतसिंह]] के स्वभाव में बहुत परिवर्तन होने लगा। फूटी हुई क्यारी के जल के समान स्वच्छन्द हो गया। अपने स्वेच्छाचारी मित्रों के कहने से प्रजा को कभी-कभी न्याय विरुद्ध भारी दण्ड दे देता था।क्रमश: अपने हानि-लाभ पर विचार करने की शक्ति क्षीण होने लगी। जो जैसी सलाह देता था।, करने पर तैयार हो जाता था।स्वयं कुछ न देखता था।, कानों ही से सुनता था।जिसने पहले कान फूंके, उसी की बात सत्य समझता था।धीरे-धीरे प्रजा भी निन्दा करने लगी। दुर्गादास ने कई बार नीति-उपदेश किया, बहुत कुछ समझाया-बुझाया, परन्तु कमल के पत्तो पर जिस प्रकार जल की बूंद ठहर जाती है, और वायु के झकोरे से तुरन्त ही गिर जाती है, उसी प्रकार जो कुछ [[अजीतसिंह]] के हृदय-पटल पर उपदेश का असर हुआ, तुरन्त ही स्वार्थी मित्रों ने निकाल फेंका और यहां तक प्रयत्न किया कि दुर्गादास की ओर से महाराज का मनमालिन्य हो गया। धीरे-धीरे अन्याय बढ़ता ही गया। विवश होकर दुर्गादास ने अपने परिवार को [[उदयपुर]] भेज दिया और अकेला ही [[जोधपुर]] में रहकर अन्याय के परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा।
 
मनुष्य अपने हाथ से सींचे हुए विष-वृक्ष को भी जब सूखते नहीं देख सकता, तो यह तो वीर दुर्गादास के पूज्य स्वामी श्री [[महाराज जसवन्तसिंह]] जी का पुत्र था।, उसका नाश होते वह कब देख सकता था।परन्तु करता क्या? स्वार्थी मित्रों के आगे उसकी दाल न गलती थी, अतएव [[जोधपुर]] से बाहर ही चला जाना निश्चित किया। अवसर पाकर एक दिन महाराज से विदा लेने के लिए दरबार जा रहा था।रास्ते में एक वृद्ध मनुष्य मिला, जो दुर्गादास का शुभचिन्तक था।कहने लगा भाई दुर्गादास! अच्छा होता, यदि आप आज राज-दरबार न जाते; क्योंकि आज दरबार जाने में आपकी कुशल नहीं। मुझे जहां तक पता चला है वह यह कि महाराज ने अपने स्वार्थी मित्रों की सलाह से आपके मार डालने की गुप्त रूप से आज्ञा दी है। दुर्गादास ने कहा – ‘ भाई! अब मैं वृद्ध हुआ, मुझे मरना तो है ही फिर क्षत्रिय होकर मृत्यु से क्यों डरूं? राजपूती में कलंक लगाऊं; मौत से डरकर पीछे लौट जाऊं! इस प्रकार कहता हुआ निर्भय सिंह के समान दरबार में पहुंचा और हाथ जोड़कर महाराज से तीर्थयात्र के लिए विदा मांगी। महाराज ने ऊपरी मन से कहा – ‘ चाचाजी! आपका वियोग हमारे लिए बड़ा दुखद होगा; परन्तु अब आप वृद्ध हुए हैं, और प्रश्न तीर्थयात्र का है; इसलिए नहीं भी नहीं की जाती। अच्छा तो जाइए, परन्तु जहां तक सम्भव हो शीघ्र ही लौट आइए। दुर्गादास ने कहा – ‘ महाराज की जैसी आज्ञा और चल दिया; परन्तु द्वार तक जाकर लौटा। महाराज ने पूछा चाचा जी, क्यों? दुर्गादास ने कहा – ‘ महाराज, अब आज न जाऊंगा; मुझे अभी याद आया कि [[महाराज यशवन्तसिंह]] जी मुझे एक गुप्त कोश की चाबी दे गये थे, परन्तु अभी तक मैं न तो आपको गुप्त खजाना ही बता सका और न चाबी ही दे सका; इसलिए वह भी आपको सौंप दूं, तब जाऊं? क्योंकि अब मैं बहुत वृद्ध हो गया हूं, न-जाने कब और कहां मर जाऊं? तब तो यह असीम धान-राशि सब मिट्टी में मिल जायेगी। यह सुनकर अजीतसिंह को लोभ ने दबा लिया। संसार में ऐसा कौन है, जिसे लोभ ने न घेरा हो? किसने लोभ देवता की आज्ञा का उल्लंघन किया है? सोचने लगा; यदि मेरे आज्ञानुसार दुर्गादास कहीं मारा गया,तो यह सम्पत्ति अपने हाथ न आ सकेगी। क्या और अवसर न मिलेगा? फिर देखा जायगा। यह विचार कर अपने मित्रों को संकेत किया। इसका आशय समझ कर एक ने आगे बढ़कर नियुक्त पुरुष को वहां से हटा दिया। इस प्रकार धोखे से धान का लालच देकर चतुर दुर्गादास ने अपने प्राणों की रक्षा की। घर आया, हथियार लिये, घोड़े पर सवार हुआ और महाराज को कहला भेजा कि दुर्गादास कुत्तो की मौत मरना नहीं चाहता था।रण-क्षेत्र में जिस वीर की हिम्मत हो आये। अजीतसिंह यह सन्देश सुनकर कांप गया। बोला दुर्गादास जहां जाना चाहे, जाने दो। जो 【【औरंगजेब】】 सरीखे बादशाह से लड़कर अपना देश छीन ले, हम ऐसे वीर पुरुष का सामना नहीं करते।<ref>[http://www.hindiwritings.com/2017/10/veer-durgadas-rathore-biography-in.html वीर दुर्गादास राठौड़ की जीवनी]</ref>
 
 
==सन्दर्भ==
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