"समानता": अवतरणों में अंतर

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समानता किसी हद तक आधुनिक अवधारणा है। आज मानव-समाज आदमी-आदमी के बीच जिस तरह समानता की आवश्यकता महसूस करता है उस तरह उसने हमेशा महसूस नहीं किया है। पश्चिमी दुनिया में राजाओं को राजक करने का दैवी अधिकार प्राप्त माना जाता था और ऐसा ही अपने-अपने क्षेत्रों की हद तक सामंत श्रीमंतों के संबंध में भी समझा जाता था। उधर पादरी-पुरोहित यह मानते थे कि जैसे सर्वज्ञ वे हैं वैसा कोई और हो ही नहीं सकता। यूनानी काल में समानता स्थापित करने की सीमित और बहुत कमजोर कोशिश ही की गई। आखिरकार सत्रहवीं सदी में यूरोप में अधिकारों और स्वतंत्रता की माँग उठने लगी और अठारहवीं तथा उन्नीसवीं सदियों में समानता की माँग की गई। आरंभ में यह माँग व्यापारियों तथा व्यवसायियों में से नव-धनाढ्यों ने या बुर्जुआ ने की, जिनका कहना था कि जब सामंत श्रीमंतों और राजाओं के साथ-साथ उनके पास भी संपत्ति और आर्थिक रुतवा है तब उनका कानूनी दर्जा उनकी बराबरी का क्यों नहीं है। उदाहरण के लिए टाउनी के शब्दों में इंग्लैंड में वस्तु-स्थिति निम्नलिखित ढंग की थीः
 
‘चूँकि असमानताओं में सबसे खास आर्थिक नहीं बल्कि कानूनी असमानताएँ थीं इसलिए संपत्ति की असमानता नहीं बल्कि कानूनी विशेषाधिकार पर सबसे पहले प्रहार किया गया।... सुधारकों का प्राथमिक लक्ष्य कानूनी समानता प्राप्त करना था, क्योंकि ऐसा समझा गया कि उसके प्राप्त हो जाने के बाद आर्थिक समानता वांछित सीमा तक स्वतः ही स्थापित हो जाएगी।’<ref name="gender equality">[https://www.societyofindia.in/2019/10/gender-equality-in-india.html भारत में लैंगिक समानता : सिद्धांत और व्यवहार ]</ref><ref>आर.एच. टाउनी, इक्वलिटी, लंदन, 1952, पृ. 95</ref>
 
इसी प्रकार फ्रांस में मुद्दा आर्थिक समानता नहीं, बल्कि कानूनी अधिकार था और समानता के लिए किए गए संघर्ष ने ‘संपत्ति पर आधारित नए अभिजात वर्ग को भूमि पर आधारित पुराने अभिजात वर्ग की बराबरी के स्तर पर प्रतिष्ठित कर दिया।’<ref>आर.एच. टाउनी, इक्वलिटी, लंदन, 1952, पृ. 95</ref>