"युधिष्ठिर मीमांसक": अवतरणों में अंतर

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मीमांसा का अध्ययन करने के पश्चात् युधिष्ठिरजी अपने गुरु पं॰ ब्रह्मदत्त जिज्ञासु के साथ 1935 में [[लाहौर]] लौटे और [[रावी नदी]] के पार बारहदरी के निकट रामलाल कपूर के परिवार में आश्रम का संचालन करने लगे। भारत-विभाजन तक विरजानन्दाश्रम यहीं पर रहा। 1947 में जब लाहौर [[पाकिस्तान]] में चला गया, तो जिज्ञासुजी भारत आ गए। 1950 में उन्होंने काशी में पुनः [[पाणिनी महाविद्यालय]] की स्थापना की और रामलाल कपूर ट्रस्ट के कार्य को व्यवस्थित किया। पं॰ युधिष्ठिर भी कभी काशी, तो कभी दिल्ली अथवा अजमेर में रहते हुए ट्रस्ट के कामों मे अपना सहयोग देते रहे। उनका सारस्वत सत्र निरन्तर चलता रहा। दिल्ली तथा अजमेर में रहकर उन्होंने ‘‘भारतीय प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान’’ के माध्यम से स्व ग्रन्थों का लेखन व प्रकाशन किया। इस बीच वे 1959-1960 में [[टंकारा]] स्थित दयानन्द जन्मस्थान स्मारक ट्रस्ट के अन्तर्गत अनुसंधान विभाग के अध्यक्ष भी रहे। 1967 से आजीवन वे बहालगढ़ ([[सोनीपत]]) स्थित रामलाल कपूर ट्रस्ट के कार्यों को सम्भाल रहे हैं। भारत के राष्ट्रपति ने इन्हें 1976 में संस्कृत के उच्च विद्वान् के रूप में सम्मानित किया तथा [[सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय]] [[वाराणसी]] ने 1989 में उन्हें '''महामहोपाध्याय''' उपाधि प्रदान की। 1985 में आर्यसमाज सान्ताक्रुज बम्बई ने मीमांसकजी को 75000 रु. की राशि भेंटकर उनकी विद्वता का सम्मान किया।
 
16-17 नवम्बर 1964 स्थान अमृतसर में गोवर्धनपीठाधीश्वर श्री शंकराचार्य वा श्री स्वामी करपात्री जी के साथ पण्डित युधिष्ठिर जी मीमांसक जी का शास्त्रार्थ हुआ। यह ऐतिहासिक शास्त्रार्थ संस्कृत व हिन्दी भाषा में लगभग नौ घन्टे चली थी।
 
== कार्य ==