"तिलका माँझी": अवतरणों में अंतर

पहाड़िया लड़कों
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[[चित्र:Tilka Majhi.jpg|300px|अंगूठाकार|दुमका, झारखंड मेँ तिलका मांझी की प्रतिमा]]
'''तिलका माँझीमुरमू (मांंझी) संथाल समुदाय के थे [[संताली]]:ᱵᱟᱵᱟ ᱛᱤᱞᱠᱟᱹ ᱢᱟᱡᱷᱤ) (जन्म 11 फ़रवरी 1750 13-मृत्यु जनवरी13 1785जानबारी1785) तिलका मुरमु (मांझी) भारत के आदिविद्रोही हैं। दुनिया का पहला आदिविद्रोही रोम के पुरखा आदिवासी लड़ाका स्पार्टाकस को माना जाता है। भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में जबकि पहला आदिविद्रोही होने का श्रेय संथाल [[आदिवासी]] समुदाय के लड़ाकों को माना जाता हैं जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लिया। इनमें सबसे लोकप्रिय संथाल आदिविद्रोही तिलका मांझी हैं।<ref name="Brajesh verma"> https://en.wikipedia.org/wiki/User:Brajesh_verma </ref><ref name="कालीचरण देहरी">http://www.jagran.com/bihar/bhagalpur-7672393.html</ref>'''
 
== परिचय ==
जबरा पहाड़िया (तिलका मांझीमुरमू) भारत में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वाले पहाड़िया समुदाय के वीर आदिवासी थे। सिंगारसी पहाड़, पाकुड़ के जबरा पहाड़िया<ref name="जबरा पहाड़िया"> http://www.jagran.com/jharkhand/sahibganj-8806138.html </ref> उर्फ तिलका मांझी के बारे में कहा जाता है कि उनका जन्म 11 फ़रवरी 1750 ई. में हुआ था। 1771 से 1784 तक उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी और स्थानीय महाजनों-सामंतों व अंग्रेजी शासक की नींद उड़ाए रखा। पहाड़िया लड़ाकों में सरदार रमना अहाड़ी और अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़, संताल परगना) के आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर और सिंगारसी पहाड़ निवासी जबरा पहाड़िया भारत के आदिविद्रोही हैं।<ref name="जबरा पहाड़िया">http://www.jagran.com/jharkhand/pakur-8811242.html</ref> दुनिया का पहला आदिविद्रोही रोम के पुरखा आदिवासी लड़ाका स्पार्टाकस को माना जाता है। भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में जबकि पहला आदिविद्रोही होने का श्रेय पहाड़िया आदिम आदिवासी समुदाय के लड़ाकों को जाता हैं जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रितानी हुकूमत से लोहा लिया। <ref name="पहाड़िया आदिम आदिवासी समुदाय">https://books.google.co.in/books?id=QPMSBgAAQBAJ&pg=PA27&lpg=PA27&dq=%E2%80%98%E0%A4%B9%E0%A5%82%E0%A4%B2+%E0%A4%AA%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A5%9C%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E2%80%99&source=bl&ots=H7P-TVjIjO&sig=a9HKI5VtFN2U0qkXWbsXAQBFKX8&hl=en&sa=X&ei=0kTdVO3vDYiMuATa3YCACw&ved=0CEYQ6AEwBQ#v=onepage&q=%E2%80%98%E0%A4%B9%E0%A5%82%E0%A4%B2%20%E0%A4%AA%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A5%9C%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E2%80%99&f=false</ref>इन पहाड़िया लड़ाकों में सबसे लोकप्रिय आदिविद्रोही जबरा या जौराह पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हैं। इन्होंने 1778 ई. में पहाड़िया सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेड़ कर कैंप को मुक्त कराया। 1784 में जबरा ने क्लीवलैंड को मार डाला। बाद में आयरकुट के नेतृत्व में जबरा की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ जिसमें कई लड़ाके मारे गए और जबरा को गिरफ्तार कर लिया गया। कहते हैं उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया। पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह पहाड़िया लड़ाका जीवित था। खून में डूबी उसकी देह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थी। भय से कांपते हुए अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली। हजारों की भीड़ के सामने जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। तारीख थी संभवतः 13 जनवरी 1785। बाद में आजादी के हजारों लड़ाकों ने जबरा पहाड़िया का अनुसरण किया और फांसी पर चढ़ते हुए जो गीत गाए - हांसी-हांसी चढ़बो फांसी ...! - वह आज भी हमें इस आदिविद्रोही की याद दिलाते हैं।
 
पहाड़िया समुदाय का यह गुरिल्ला लड़ाका एक ऐसी किंवदंती है जिसके बारे में ऐतिहासिक दस्तावेज सिर्फ नाम भर का उल्लेख करते हैं, पूरा विवरण नहीं देते। लेकिन पहाड़िया समुदाय के पुरखा गीतों और कहानियों में इसकी छापामार जीवनी और कहानियां सदियों बाद भी उसके आदिविद्रोही होने का अकाट्य दावा पेश करती हैं।
 
== तिलका मुरमू(माँझी) उर्फ जबरा पहाड़िया विवाद ==
तिलका (मांझी) संताल थे या पहाड़िया इसे लेकर विवाद है।<ref name="Two tribes in tiff over Tilka Manjhi's legacy"> http://timesofindia.indiatimes.com/city/ranchi/Two-tribes-in-tiff-over-Tilka-Manjhis-legacy/articleshow/30330250.cms</ref> आम तौर पर तिलका मांझी को मूर्म गोत्र का बताते हुए अनेक लेखकों ने उन्हें संताल आदिवासी बताया है। परंतु तिलका के संताल होने का कोई ऐतिहासिक दस्तावेज और लिखित प्रमाण मौजूद नहीं है। वहीं, ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार संताल आदिवासी समुदाय के लोग 1770 के अकाल के कारण 1790 के बाद संताल परगना की तरफ आए और बसे।
 
The Annals of Rural Bengal, Volume 1, 1868 By Sir William Wilson Hunter (page no 219 to 227) में साफ लिखा है कि संताल लोग बीरभूम से आज के सिंहभूम की तरफ निवास करते थे। 1790 के अकाल के समय उनका माइग्रेशन आज के संताल परगना तक हुआ। हंटर ने लिखा है, ‘1792 से संतालों नया इतिहास शुरू होता है’ (पृ. 220)। 1838 तक संताल परगना में संतालों के 40 गांवों के बसने की सूचना हंटर देते हैं जिनमें उनकी कुल आबादी 3000 थी (पृ. 223)। हंटर यह भी बताता है कि 1847 तक मि. वार्ड ने 150 गांवों में करीब एक लाख संतालों को बसाया (पृ. 224)।<ref name="William Wilson Hunter"> http://books.google.co.in/books?id=W1kOAAAAQAAJ&printsec=frontcover&source=gbs_ge_summary_r&cad=0#v=onepage&q&f=false</ref>