"महात्मा गांधी": अवतरणों में अंतर

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मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म [[पश्चिमी भारत]] में वर्तमान [[गुजरात]] के एक तटीय शहर [[पोरबंदर]] नामक स्थान पर [[२ अक्टूबर]] सन् [[१८६९]] को हुआ था। उनके पिता करमचन्द गान्धी [[सनातन धर्म]] की '''पंसारी''' जाति से सम्बन्ध रखते थे और [[ब्रिटिश राज]] के समय [[काठियावाड़]] की एक छोटी सी [[रियासत]] (पोरबंदर) के [[दीवान]] अर्थात् प्रधान मन्त्री थे। [[गुजराती भाषा]] में गान्धी का अर्थ है पंसारी<ref>आर० गाला, पापुलर कम्बाइन्ड डिक्शनरी, अंग्रेजी-अंग्रेजी-गुजराती एवं गुजराती-गुजराती-अंग्रेजी, नवनीत</ref> जबकि [[हिन्दी भाषा]] में गन्धी का अर्थ है इत्र फुलेल बेचने वाला जिसे अंग्रेजी में परफ्यूमर कहा जाता है।<ref>भार्गव की मानक व्याख्‍या वाली हिन्दी-अंग्रेजी ''डिक्शनरी</ref> उनकी माता पुतलीबाई परनामी [[वैश्य]] समुदाय की थीं। पुतलीबाई करमचन्द की चौथी पत्नी थी। उनकी पहली तीन पत्नियाँ प्रसव के समय मर गयीं थीं। भक्ति करने वाली माता की देखरेख और उस क्षेत्र की [[जैन धर्म|जैन]] परम्पराओं के कारण युवा मोहनदास पर वे प्रभाव प्रारम्भ में ही पड़ गये थे जिसने आगे चलकर महात्मा गांधी के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन प्रभावों में शामिल थे दुर्बलों में जोश की भावना, [[शाकाहार|शाकाहारी जीवन]], आत्मशुद्धि के लिये [[उपवास]] तथा विभिन्न जातियों के लोगों के बीच सहिष्णुता।
=== कम आयु में विवाह ===
[[File:GANDHI JI-KASTUR BA AT PORBANDAR,GUJARAT,INDIA.jpg|thumb|गांधीजी-कस्तूरबा ,पोरबंदर पोरबंदर,गुजरात गुजरात, भारत में ]]
[[File:Gandhi ji with children.JPG|thumb|गांधीजी बच्चों के साथ ]]
मई १८८३ में साढे १३ साल की आयु पूर्ण करते ही उनका विवाह १४ साल की [[कस्तूरबा गांधी|कस्तूर बाई मकनजी]] से कर दिया गया। पत्नी का पहला नाम छोटा करके ''कस्तूरबा'' कर दिया गया और उसे लोग प्यार से ''बा'' कहते थे। यह विवाह उनके माता पिता द्वारा तय किया गया व्यवस्थित [[बाल विवाह]] था जो उस समय उस क्षेत्र में प्रचलित था। लेकिन उस क्षेत्र में यही रीति थी कि किशोर दुल्हन को अपने माता पिता के घर और अपने पति से अलग अधिक समय तक रहना पड़ता था। १८८५ में जब गान्धी जी १५ वर्ष के थे तब इनकी पहली सन्तान ने जन्म लिया। लेकिन वह केवल कुछ दिन ही जीवित रही। और इसी साल उनके पिता करमचन्द गांधी भी चल बसे। मोहनदास और कस्तूरबा के चार सन्तान हुईं जो सभी पुत्र थे। हरीलाल गान्धी १८८८ में, मणिलाल गान्धी १८९२ में, रामदास गान्धी १८९७ में और [[देवदास गांधी]] १९०० में जन्मे। पोरबंदर से उन्होंने मिडिल और राजकोट से हाई स्कूल किया। दोनों परीक्षाओं में शैक्षणिक स्तर वह एक औसत छात्र रहे। [[मैट्रिक]] के बाद की परीक्षा उन्होंने [[भावनगर]] के शामलदास कॉलेज से कुछ परेशानी के साथ उत्तीर्ण की। जब तक वे वहाँ रहे अप्रसन्न ही रहे क्योंकि उनका परिवार उन्हें [[वकील|बैरिस्टर]] बनाना चाहता था।
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=== असहयोग आन्दोलन ===
{{main|असहयोग आन्दोलन}}
गांधी जी ने असहयोग, अहिंसा तथा शांतिपूर्ण प्रतिकार को अंग्रेजों के खिलाफ़ [[ब्रिटिश राज|शस्त्र]] के रूप में उपयोग किया। [[पंजाब]] में अंग्रेजी फोजों द्वारा भारतीयों पर [[जलियांवाला बाग नरसंहार|जलियावांला नरसंहार]] जिसे अमृतसर नरसंहार के नाम से भी जाना जाता है ने देश को भारी आघात पहुंचायापहुँचाया जिससे जनता में क्रोध और हिंसा की ज्वाला भड़क उठी। गांधीजी ने [[ब्रिटिश राज]] तथा भारतीयों द्वारा ‍प्रतिकारात्मक रवैया दोनों की की। उन्होंने ब्रिटिश नागरिकों तथा दंगों के शिकार लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त की तथा पार्टी के आरंभिकआरम्भिक विरोध के बाद दंगों की भंर्त्सना की। गांधी जी के भावनात्मक भाषण के बाद अपने सिद्धांत की वकालत की कि सभी हिंसा और बुराई को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है।<ref>आरगांधी, ''पटेल : एक जीवन'', पी.८२ .</ref> किंतु ऐसा इस नरसंहार और उसके बाद हुई हिंसा से गांधी जी ने अपना मन संपूर्ण सरकार आर भारतीय सरकार के कब्जे वाली संस्थाओं पर संपूर्ण नियंत्रण लाने पर केंद्रित था जो जल्‍दी ही ''[[स्वराज]] ''अथवा संपूर्ण व्यक्तिगत, आध्‍यात्मिक एवं राजनैतिक आजादी में बदलने वाला था।
 
[[चित्र:Gandhi home.jpg|thumb|left|[[साबरमती आश्रम]] : गुजरात में गांधी का घर]]
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दिसम्बर १९२१ में गांधी जो [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]].का कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस को ''स्वराज''.के नाम वाले एक नए उद्देश्‍य के साथ संगठित किया गया। पार्दी में सदस्यता सांकेतिक शुल्क का भुगताने पर सभी के लिए खुली थी। पार्टी को किसी एक कुलीन संगठन की न बनाकर इसे राष्ट्रीय जनता की पार्टी बनाने के लिए इसके अंदर अनुशासन में सुधार लाने के लिए एक पदसोपान समिति गठित की गई। गांधी जी ने अपने अहिंसात्मक मंच को [[स्वदेशी आन्दोलन|स्वदेशी नीति]] — में शामिल करने के लिए विस्तार किया जिसमें विदेशी वस्तुओं विशेषकर अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करना था। इससे जुड़ने वाली उनकी वकालत का कहना था कि सभी भारतीय अंग्रेजों द्वारा बनाए वस्त्रों की अपेक्षा हमारे अपने लोगों द्वारा हाथ से बनाई गई ''[[खादी]]'' पहनें। गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन<ref>आरगांधी, ''पटेल : एक जीवन'', पी.८९ .</ref> को सहयोग देने के लिएपुरूषों और महिलाओं को प्रतिदिन ''खादी ''के लिए सूत कातने में समय बिताने के लिए कहा। यह अनुशासन और समर्पण लाने की ऐसी नीति थी जिससे अनिच्छा और महत्वाकाक्षा को दूर किया जा सके और इनके स्थान पर उस समय महिलाओं को शामिल किया जाए जब ऐसे बहुत से विचार आने लगे कि इस प्रकार की गतिविधियां महिलाओं के लिए सम्मानजनक नहीं हैं। इसके अलावा गांधी जी ने ब्रिटेन की शैक्षिक संस्थाओं तथा अदालतों का बहिष्कार और सरकारी नौकरियों को छोड़ने का तथा सरकार से प्राप्त तमगों और सम्मान ([[:en:British honours system|honours]]) को वापस लौटाने का भी अनुरोध किया।
 
''असहयोग को दूर-दूर से अपील और सफलता मिली जिससे समाज के सभी वर्गों की जनता में जोश और भागीदारी बढ गई। फिर जैसे ही यह आंदोलन अपने शीर्ष पर पहुंचापहुँचा वैसे फरवरी १९२२ में इसका अंत [[चौरी-चोरा]], [[उत्तर प्रदेश|उत्तरप्रदेश]] में भयानक द्वेष के रूप में अंत हुआ। आंदोलन द्वारा हिंसा का रूख अपनाने के डर को ध्‍यान में रखते हुए और इस पर विचार करते हुए कि इससे उसके सभी कार्यों पर पानी फिर जाएगा, गांधी जी ने व्यापक असहयोग<ref>आरगांधी, ''पटेल : एक जीवन'', पी.१०५ .</ref> के इस आंदोलन को वापस ले लिया। गांधी पर गिरफ्तार किया गया [[10 मार्च|१० मार्च]], [[1922|१९२२]], को राजद्रोह के लिए गांधी जी पर मुकदमा चलाया गया जिसमें उन्हें छह साल कैद की सजा सुनाकर जैल भेद दिया गया। [[18 मार्च|१८ मार्च]], [[1922|१९२२]] से लेकर उन्होंने केवल २ साल ही जैल में बिताए थे कि उन्हें फरवरी १९२४ में [[आंत में उपांत्र शोथ-एपेंडिसाइटिस|आंतों के ऑपरेशन]] के लिए रिहा कर दिया गया।
 
गांधी जी के एकता वाले व्यक्तित्व के बिना इंडियन नेशनल कांग्रेस उसके जेल में दो साल रहने के दौरान ही दो दलों में बंटने लगी जिसके एक दल का नेतृत्व सदन में पार्टी की भागीदारी के पक्ष वाले [[चितरंजन दास|चित्त रंजन दास]] तथा [[मोतीलाल नेहरू]] ने किया तो दूसरे दल का नेतृत्व इसके विपरीत चलने वाले [[चक्रवर्ती राजगोपालाचारी|चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य]] और [[सरदार वल्लभ भाई पटेल]] ने किया। इसके अलावा, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अहिंसा आंदोलन की चरम सीमा पर पहुंचकरपहुँचकर सहयोग टूट रहा था। गांधी जी ने इस खाई को बहुत से साधनों से भरने का प्रयास किया जिसमें उन्होंने १९२४ की बसंत में सीमित सफलता दिलाने वाले तीन सप्ताह का उपवास करना भी शामिल था।<ref>आरगांधी, ''पटेल : एक जीवन'', पी.१३१ .</ref>
 
=== स्वराज और नमक सत्याग्रह (नमक मार्च) ===
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गांधी जी सक्रिय राजनीति से दूर ही रहे और १९२० की अधिकांश अवधि तक वे स्वराज पार्टी और इंडियन नेशनल कांग्रेस के बीच खाई को भरने में लगे रहे और इसके अतिरिक्त वे अस्पृश्यता, शराब, अज्ञानता और गरीबी के खिलाफ आंदोलन छेड़ते भी रहे। उन्होंने पहले १९२८ में लौटे .एक साल पहले अंग्रेजी सरकार ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक नया संवेधानिक सुधार आयोग बनाया जिसमें एक भी सदस्य भारतीय नहीं था। इसका परिणाम भारतीय राजनैतिक दलों द्वारा बहिष्कार निकला। दिसम्बर १९२८ में गांधी जी ने [[कलकत्ता]] में आयोजित कांग्रेस के एक अधिवेशन में एक प्रस्ताव रखा जिसमें भारतीय साम्राज्य को सत्ता प्रदान करने के लिए कहा गया था अथवा ऐसा न करने के बदले अपने उद्देश्य के रूप में संपूर्ण देश की आजादी के लिए असहयोग आंदोलन का सामना करने के लिए तैयार रहें। गांधी जी ने न केवल युवा वर्ग [[नेताजी सुभाषचन्द्र बोस|सुभाष चंद्र बोस]] तथा [[जवाहरलाल नेहरू]] जैसे पुरूषों द्वारा तत्काल आजादी की मांग के विचारों को फलीभूत किया बल्कि अपनी स्वयं की मांग को दो साल<ref>आरगांधी, ''पटेल : एक जीवन'', पी.१७२ .</ref> की बजाए एक साल के लिए रोक दिया। अंग्रेजों ने कोई जवाब नहीं दिया।.नहीं ३१ दिसम्बर [[1929|१९२९]], भारत का झंडा फहराया गया था लाहौर में है।[[26 जनवरी|२६ जनवरी]] [[1930|१९३०]] का दिन लाहौर में भारतीय स्वतंत्रता दिवस के रूप में इंडियन नेशनल कांग्रेस ने मनाया। यह दिन लगभग प्रत्येक भारतीय संगठनों द्वारा भी मनाया गया। इसके बाद गांधी जी ने मार्च १९३० में नमक पर कर लगाए जाने के विरोध में नया सत्याग्रह चलाया जिसे १२ [[12 मार्च|मार्च]] से [[6 अप्रैल|६ अप्रेल]] तक नमक आंदोलन के याद में ४०० किलोमीटर (२४८ मील) तक का सफर अहमदाबाद से दांडी, गुजरात तक चलाया गया ताकि स्वयं नमक उत्पन्न किया जा सके। समुद्र की ओर इस यात्रा में हजारों की संख्‍या में भारतीयों ने भाग लिया। भारत में अंग्रेजों की पकड़ को विचलित करने वाला यह एक सर्वाधिक सफल आंदोलन था जिसमें अंग्रेजों ने ८०,००० से अधिक लोगों को जेल भेजा।
 
लार्ड एडवर्ड इरविन द्वारा प्रतिनिधित्व वाली सरकार ने गांधी जी के साथ विचार विमर्श करने का निर्णय लिया। यह [[गांधी-इरविन समझौता|इरविन गांधी की संधिसन्धि]] मार्च १९३१ में हस्ताक्षर किए थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन को बंद करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने सभी राजनैतिक कैदियों को रिहा करने के लिए अपनी रजामंदीरजामन्दी दे दी। इस समझौते के परिणामस्वरूप गांधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में लंदन में आयोजित होने वाले गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रितआमन्त्रित किया गया। यह सम्मेलन गांधी जी और राष्ट्रीयवादी लोगों के लिए घोर निराशाजनक रहा, इसका कारण सत्ता का हस्तांतरण करने की बजाय भारतीय कीमतों एवं भारतीय अल्पसंख्‍यकों पर केंद्रितकेन्द्रित होना था। इसके अलावा, लार्ड इरविन के उत्तराधिकारी लार्ड विलिंगटन, ने राष्‍ट्रवादियों के आंदोलन को नियंत्रित एवं कुचलने का एक नया अभियान आरंभआरम्भ करदिया। गांधी फिर से गिरफ्तार कर लिए गए और सरकार ने उनके अनुयाईयों को उनसे पूर्णतया दूर रखते हुए गांधी जी द्वारा प्रभावित होने से रोकने की कोशिश की। लेकिन, यह युक्ति सफल नहीं थी।
 
=== दलित आंदोलन और निश्चय दिवस===
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१९३२ में, दलित नेता और प्रकांड विद्वान [[भीमराव अम्बेडकर|डॉ॰ बाबासाहेब अम्बेडकर]] के चुनाव प्रचार के माध्यम से, सरकार ने अछूतों को एक नए संविधान के अंतर्गत अलग निर्वाचन मंजूर कर दिया। इसके विरोध में दलित हतों के विरोधी गांधी जी ने सितंबर १९३२ में छ: दिन का अनशन ले लिया जिसने सरकार को सफलतापूर्वक दलित से राजनैतिक नेता बने पलवंकर बालू द्वारा की गई मध्‍यस्ता वाली एक समान व्यवस्था को अपनाने पर बल दिया। अछूतों के जीवन को सुधारने के लिए गांधी जी द्वारा चलाए गए इस अभियान की शुरूआत थी। गांधी जी ने इन अछूतों को हरिजन का नाम दिया जिन्हें वे भगवान की संतान मानते थे। [[८ मई]] [[1933|१९३३]] को गांधी जी ने हरिजन आंदोलन<ref>आरगांधी, ''पटेल : एक जीवन'', पीपी .२३० -३२ .</ref> में मदद करने के लिए आत्म शुद्धिकरण का २१ दिन तक चलने वाला उपवास किया। यह नया अभियान [[दलित|दलितों]] को पसंद नहीं आया तथापि वे एक प्रमुख नेता बने रहे। [[भीमराव अम्बेडकर|डॉ॰ अम्बेडकर]] ने गांधी जी द्वारा ''हरिजन'' शब्द का उपयोग करने की स्पष्ट निंदा की, कि दलित सामाजिक रूप से अपरिपक्व हैं और सुविधासंपन्न जाति वाले भारतीयों ने पितृसत्तात्मक भूमिका निभाई है। अम्बेडकर और उसके सहयोगी दलों को भी महसूस हुआ कि गांधी जी दलितों के राजनीतिक अधिकारों को कम आंक रहे हैं। हालांकि गांधी जी एक वैश्य जाति में पैदा हुए फिर भी उन्होनें इस बात पर जोर दिया कि वह डॉ॰ अम्बेडकर जैसे दलित मसिहा के होते हुए भी वह दलितों के लिए आवाज उठा सकता है। [[भारतीय स्वतंत्रता संग्राम]] के दिनों में हिन्दुस्तान की सामाजिक बुराइयों में में छुआछूत एक प्रमुख बुराई थी जिसके के विरूद्ध महात्मा गांधी और उनके अनुयायी संघर्षरत रहते थे। उस समय देश के प्रमुख मंदिरों में हरिजनों का प्रवेश पूर्णतः प्रतिबंधित था। केरल राज्य का जनपद त्रिशुर दक्षिण भारत की एक प्रमुख धार्मिक नगरी है। यहीं एक प्रतिष्ठित मंदिर है [[गुरुवायुर]] मंदिर, जिसमें कृष्ण भगवान के बालरूप के दर्शन कराती भगवान गुरूवायुरप्पन की मूर्ति स्थापित है। आजादी से पूर्व अन्य मंदिरों की भांति इस मंदिर में भी हरिजनों के प्रवेश पर पूर्ण प्रतिबंध था।
 
केरल के गांधी समर्थक श्री केलप्पन ने महात्मा की आज्ञा से इस प्रथा के विरूद्ध आवाज उठायी और अंततः इसके लिये सन् १९३३ ई0 में सविनय अवज्ञा प्रारंभप्रारम्भ की गयी। मंदिरमन्दिर के ट्रस्टियों को इस बात की ताकीद की गयी कि नये वर्ष का प्रथम दिवस अर्थात १ जनवरी १९३४ को अंतिम निश्चय दिवस के रूप में मनाया जायेगा और इस तिथि पर उनके स्तर से कोई निश्चय न होने की स्थिति मे महात्मा गांधी तथा श्री केलप्पन द्वारा आन्दोलनकारियों के पक्ष में आमरण अनशन किया जा सकता है। इस कारण गुरूवायूर मंदिरमन्दिर के ट्रस्टियो की ओर से बैठक बुलाकर मंदिरमन्दिर के उपासको की राय भी प्राप्त की गयी। बैठक मे ७७ प्रतिशत उपासको के द्वारा दिये गये बहुमत के आधार पर मंदिरमन्दिर में हरिजनों के प्रवेश को स्वीकृति दे दी गयी और इस प्रकार १ जनवरी १९३४ से केरल के श्री गुरूवायूर मंदिरमन्दिर में किये गये निश्चय दिवस की सफलता के रूप में हरिजनों के प्रवेश को सैद्वांतिक स्वीकृति मिल गयी। गुरूवायूर मंदिरमन्दिर जिसमें आज भी गैर हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है तथापि कई धर्मों को मानने वाले भगवान भगवान गुरूवायूरप्पन के परम भक्त हैं। महात्मा गांधी की प्रेरणा से जनवरी माह के प्रथम दिवस को निश्चय दिवस के रूप में मनाया गया और किये गये निश्चय को प्राप्त किया गया। <ref>हरिभाउ उपाध्याय ने बापू कथा के नाम से उनके अपशेष जीवन काल १९२० से १९४८ तक की घटनाओं का संकलन किया है जिसे सर्व सेवा संधसन्ध वाराणसी द्वारा गांधी संवत्सरी वर्ष १९६९ ई में प्रकाशित किया हैं।</ref>।
१९३४ की गर्मियों में, उनकी जान लेने के लिए उन पर तीन असफल प्रयास किए गए थे।
 
जब कांग्रेस पार्टी के चुनाव लड़ने के लिए चुना और संघीय योजना के अंतर्गत सत्ता स्वीकार की तब गांधी जी ने पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा देने का निर्णय ले लिया। वह पार्टी के इस कदम से असहमत नहीं थे किंतु महसूस करते थे कि यदि वे इस्तीफा देते हैं तब भारतीयों के साथ उसकी लोकप्रियता पार्टी की सदस्यता को मजबूत करने में आसानी प्रदान करेगी जो अब तक कम्यूनिसटों, समाजवादियों, व्यापार संघों, छात्रों, धार्मिक नेताओं से लेकर व्यापार संघों और विभिन्न आवाजों के बीच विद्यमान थी। इससे इन सभी को अपनी अपनी बातों के सुन जाने का अवसर प्राप्त होगा। गांधी जी राज के लिए किसी पार्टी का नेतृत्व करते हुए प्रचार द्वारा कोई ऐसा लक्ष्‍य सिद्ध नहीं करना चाहते थे जिसे राज<ref>आरगांधी, ''पटेल : एक जीवन'', पी.२४६ .</ref> के साथ अस्थायी तौर पर राजनैतिक व्यवस्‍था के रूप में स्वीकार कर लिया जाए।
 
गांधी जी नेहरू प्रेजीडेन्सी और कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के साथ ही १९३६ में भारत लौट आए। हालांकि गांधी की पूर्ण इच्छा थी कि वे आजादी प्राप्त करने पर अपना संपूर्ण ध्‍यान केंद्रितकेन्द्रित करें न कि भारत के भविष्य के बारे में अटकलों पर। उसने कांग्रेस को समाजवाद को अपने उद्देश्‍य के रूप में अपनाने से नहीं रोका। १९३८ में पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुने गए सुभाष बोस के साथ गांधी जी के मतभेद थे। बोस के साथ मतभेदों में गांधी के मुख्य बिंदु बोस की लोकतंत्र में प्रतिबद्धता की कमी तथा अहिंसा में विश्वास की कमी थी। बोस ने गांधी जी की आलोचना के बावजूद भी दूसरी बार जीत हासिल की किंतु कांग्रेस को उस समय छोड़ दिया जब सभी भारतीय नेताओं ने गांधी<ref>आरगांधी, ''पटेल : एक जीवन'', पीपी .२७७ - ८१ .</ref> जी द्वारा लागू किए गए सभी सिद्धातों का परित्याग कर दिया गया।
 
=== द्वितीय विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आन्दोलन ===
[[द्वितीय विश्वयुद्ध|द्वितीय विश्व युद्ध]] १९३९ में जब छिड़ने [[नाजी जर्मनी]] आक्रमण [[पोलैंड]].आरंभआरम्भ में गांधी जी ने अंग्रेजों के प्रयासों को अहिंसात्मक नैतिक सहयोग देने का पक्ष लिया किंतु दूसरे कांग्रेस के नेताओं ने युद्ध में जनता के प्रतिनिधियों के परामर्श लिए बिना इसमें एकतरफा शामिल किए जाने का विरोध किया। कांग्रेस के सभी चयनित सदस्यों ने सामूहिक तौर<ref>आर०गांधी, ''पटेल : एक जीवन'', पीपी२८३-८६</ref> पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया। लंबी चर्चा के बाद, गांधी ने घोषणा की कि जब स्वयं भारत को आजादी से इंकार किया गया हो तब लोकतांत्रिक आजादी के लिए बाहर से लड़ने पर भारत किसी भी युद्ध के लिए पार्टी नहीं बनेगी। जैसे जैसे युद्ध बढता गया गांधी जी ने आजादी के लिए अपनी मांग को अंग्रेजों को ''[[भारत छोड़ो आन्दोलन]]'' नामक विधेयक देकर तीव्र कर दिया। यह गांधी तथा कांग्रेस पार्टी का सर्वाधिक स्पष्ट विद्रोह था जो भारत देश<ref>आर० गांधी, ''पटेल : एक जीवन'', पी.३०९</ref> से अंग्रेजों को खदेड़ने पर लक्षित था।
 
गांधी जी के दूसरे नंबरनम्बर पर बैठे जवाहरलाल नेहरू की पार्टी के कुछ सदस्यों तथा कुछ अन्य राजनैतिक भारतीय दलों ने आलोचना की जो अंग्रेजों के पक्ष तथा विपक्ष दोनों में ही विश्‍वास रखते थे। कुछ का मानना था कि अपने जीवन काल में अथवा मौत के संघर्ष में अंग्रेजों का विरोध करना एक नश्वर कार्य है जबकि कुछ मानते थे कि गांधी जी पर्याप्त कोशिश नहीं कर रहे हैं।'' भारत छोड़ो ''इस संघर्ष का सर्वाधिक शक्तिशाली आंदोलन बन गया जिसमें व्यापक हिंसा और गिरफ्तारी हुई।<ref>आरगांधी, ''पटेल : एक जीवन'', पी.३१८ .</ref> पुलिस की गोलियों से हजारों की संख्‍या में स्वतंत्रता सेनानी या तो मारे गए या घायल हो गए और हजारों गिरफ्तार कर लिए गए। गांधी और उनके समर्थकों ने स्पष्ट कर दिया कि वह युद्ध के प्रयासों का समर्थन तब तक नहीं देंगे तब तक भारत को तत्‍काल आजादी न दे दी जाए। उन्होंने स्पष्ट किया कि इस बार भी यह आन्दोलन बन्द नहीं होगा यदि हिंसा के व्यक्तिगत कृत्यों को मूर्त रूप दिया जाता है। उन्होंने कहा कि उनके चारों ओर अराजकता का आदेश असली अराजकता से भी बुरा है। उन्होंने सभी कांग्रेसियों और भारतीयों को [[अहिंसा]] के साथ ''करो या मरो '' (अंग्रेजी में डू ऑर डाय) के द्वारा अन्तिम स्वतन्त्रता के लिए अनुशासन बनाए रखने को कहा।
 
गांधी जी और कांग्रेस कार्यकारणी समिति के सभी सदस्यों को अंग्रेजों द्वारा [[मुम्बई|मुबंई]] में [[९ अगस्त]] [[१९४२]] को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधी जी को [[पुणे]] के [[आगा खान पैलेस|आंगा खां महल]] में दो साल तक बंदी बनाकर रखा गया। यही वह समय था जब गांधी जी को उनके निजी जीवन में दो गहरे आघात लगे। उनका ५० साल पुराना सचिव [[महादेव देसाई]] ६ दिन बाद ही दिल का दौरा पड़ने से मर गए और गांधी जी के १८ महीने जेल में रहने के बाद [[22 फरवरी|२२ फरवरी]] [[1944|१९४४]] को उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी का देहांत हो गया। इसके छ: सप्ताह बाद गांधी जी को भी मलेरिया का भयंकर शिकार होना पड़ा। उनके खराब स्वास्थ्‍य और जरूरी उपचार के कारण [[६ मई]] [[१९४४]] को युद्ध की समाप्ति से पूर्व ही उन्हें रिहा कर दिया गया। राज उन्हें जेल में दम तोड़ते हुए नहीं देखना चाहते थे जिससे देश का क्रोध बढ़ जाए। हालांकि भारत छोड़ो आंदोलन को अपने उद्देश्य में आशिंक सफलता ही मिली लेकिन आंदोलन के निष्‍ठुर दमन ने १९४३ के अंत तक भारत को संगठित कर दिया। युद्ध के अंत में, ब्रिटिश ने स्पष्ट संकेत दे दिया था कि संत्ता का हस्तांतरण कर उसे भारतीयों के हाथ में सोंप दिया जाएगा। इस समय गांधी जी ने आंदोलन को बंद कर दिया जिससे कांग्रेसी नेताओं सहित लगभग १००,००० राजनैतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया।
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गांधी जी की राख को एक अस्थि-रख दिया गया और उनकी सेवाओं की याद दिलाने के लिए संपूर्ण भारत में ले जाया गया। इनमें से अधिकांश को इलाहाबाद में संगम पर [[12 फरवरी|१२ फरवरी]] [[1948|१९४८]] को जल में विसर्जित कर दिया गया किंतु कुछ को अलग<ref name="Guardian-2008-ashes">[http://www.guardian.co.uk/world/2008/jan/16/india.international "गांधी जी की राख को समुद्र में आराम करने के लिए रखा गया"] [[The Guardian]] ([[:en:The Guardian|The Guardian]]), [[16 जनवरी|१६ जनवरी]] [[२००८]]</ref> पवित्र रूप में रख दिया गया। १९९७ में, तुषार गाँधी ने बैंक में नपाए गए एक अस्थि-कलश की कुछ सामग्री को अदालत के माध्यम से, इलाहाबाद में संगम<ref name="Guardian-2008-ashes" /><ref>[http://www.highbeam.com/doc/1G1-67892813.html गांधी जी की राख को [[30 जनवरी|३० जनवरी]] [[1997|१९९७]] को ][[सिनसिनअति पोस्ट|सिनसिनाती चौकी]] पर बिखेर दिया गया था। '' कारण किसी को पता नहीँ था राख के एक भाग को [[नई दिल्ली]] के दक्षिणपूर्व में एक [[सुरक्षित जमा बॉक्स|सुरक्षित डिपाजिट बॉक्स]] में [[कटक]] के निकट समुद्र तट पर रख दिया गया था। [[तुषार गांधी|तुषार गाँधी]] ने १९५५ में अखबारों द्वारा समाचार प्रकाशित किए जाने पर कि गांधी जी की राख बैंक में रखी हुई है, को अपनी हिरासत में लेने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया।</ref> नामक स्थान पर जल में विसर्जित कर दिया। [[30 जनवरी|३० जनवरी]][[२००८]] को दुबई में रहने वाले एक व्यापारी द्वारा गांधी जी की राख वाले एक अन्य अस्थि-कलश को [[मुम्बई|मुंबई]] संग्रहालय<ref name="Guardian-2008-ashes" /> में भेजने के उपरांत उन्हें गिरगाम चौपाटी नामक स्थान पर जल में विसर्जित कर दिया गया। एक अन्य अस्थि कलश [[आगा खां|आगा खान]] जो [[पुणे]]<ref name="Guardian-2008-ashes" /> में है, (जहाँ उन्होंने १९४२ से कैद करने के लिए किया गया था १९४४) वहां समाप्त हो गया और दूसरा आत्मबोध फैलोशिप झील मंदिर में [[लॉस ऐन्जेलिस|लॉस एंजिल्स]].<ref><!--Translate this template and uncomment
{{cite news | last =Ferrell | first =David | title =A Little Serenity in a City of Madness | newspaper = Los Angeles Times | pages =B 2 | date = 2001-09-27}}
--></ref> रखा हुआ है। इस परिवार को पता है कि इस पवित्र राख का राजनीतिक उद्देश्यों के लिए दुरूपयोग किया जा सकता है लेकिन उन्हें यहां से हटाना नहीं चाहती हैं क्योंकि इससे मंदिरोंमन्दिरों .<ref name="Guardian-2008-ashes" /> को तोड़ने का खतरा पैदा हो सकता है।
 
== गांधी के सिद्धान्त ==
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== लेखन कार्य एवं प्रकाशन ==
गाँधी जी पर हवाई बहस करने एवं मनमाना निष्कर्ष निकालने की अपेक्षा यह युगीन आवश्यकता ही नहीं वरन् समझदारी का तकाजा भी है कि गाँधीजी की मान्यताओं के आधार की प्रामाणिकता को ध्यान में रखा जाए। सामान्य से विशिष्ट तक -- सभी संदर्भों में दस्तावेजी रूप प्राप्त गाँधी जी का लिखा-बोला प्रायः प्रत्येक शब्द अध्ययन के लिए उपलब्ध है। इसलिए स्वभावतः यह आवश्यक है कि इनके मद्देनजर ही किसी बात को यथोचित मुकाम की ओर ले जाया जाए। लिखने की प्रवृत्ति गाँधीजी में आरंभआरम्भ से ही थी। अपने संपूर्ण जीवन में उन्होंने वाचिक की अपेक्षा कहीं अधिक लिखा है। चाहे वह टिप्पणियों के रूप में हो या पत्रों के रूप में। कई पुस्तकें लिखने के अतिरिक्त उन्होंने कई पत्रिकाएँ भी निकालीं और उनमें प्रभूत लेखन किया। उनके महत्त्वपूर्ण लेखन कार्य को निम्न बिंदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है:
 
=== पत्रिकाएँ ===
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गाँधी जी द्वारा मौलिक रूप से लिखित पुस्तकें चार हैं-- ''हिंद स्वराज'', ''दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास'', ''सत्य के प्रयोग'' (आत्मकथा), तथा ''गीता पदार्थ कोश'' सहित संपूर्ण गीता की टीका। गाँधी जी आमतौर पर गुजराती में लिखते थे, परन्तु अपनी किताबों का हिन्दी और अंग्रेजी में भी अनुवाद करते या करवाते थे।
==== हिंद स्वराज ====
हिंद स्वराज (मूलतः हिंद स्वराज्य) नामक अल्पकाय ग्रंथरत्न गाँधीजी ने इंग्लैंड से लौटते समय किल्डोनन कैसिल नामक जहाज पर गुजराती में लिखा था और उनके दक्षिण अफ्रीका पहुँचने पर इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित हुआ था। आरंभआरम्भ के बारह अध्याय 11 दिसंबर 1909 के अंक में और शेष 18 दिसंबर 1909 के अंक में। पुस्तक रूप में इसका प्रकाशन पहली बार जनवरी 1910 में हुआ था और भारत में बम्बई सरकार द्वारा 24 मार्च 1910 को इसके प्रचार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। बम्बई सरकार की इस कार्रवाई का जवाब गाँधीजी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करके दिया।<ref>सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय , खंड 10, प्रकाशन विभाग,भारत सरकार, पुनर्मुद्रित संस्करण-1995, पृष्ठ-6.</ref> इस पुस्तक के परिशिष्ट-1 में पुस्तक में प्रतिपादित विषय के अधिक अध्ययन के लिए 20 पुस्तकों की सूची भी दी गयी है जिससे गाँधीजी के तत्कालीन अध्ययन के विस्तार की एक झलक भी मिलती है।
 
==== दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास ====
'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' मूलतः गुजराती में 'दक्षिण आफ्रिकाना सत्याग्रहनो इतिहास' नाम से 26 नवंबर 1923 को, जब वे यरवदा जेल में थे, लिखना शुरू किया। 5 फरवरी 1924 को रिहा होने के समय तक उन्होंने प्रथम 30 अध्याय लिख डाले थे। यह इतिहास लेखमाला के रूप में 13 अप्रैल 1924 से 22 नवंबर 1925 तक 'नवजीवन' में प्रकाशित हुआ। पुस्तक के रूप में इसके दो खंड क्रमशः 1924 और 1925 में छपे। वालजी देसाई द्वारा किये गये अंग्रेजी अनुवाद का प्रथम संस्करण अपेक्षित संशोधनों के साथ एस० गणेशन मद्रास ने 1928 में और द्वितीय और तृतीय संस्करण नवजीवन प्रकाशन मंदिरमन्दिर, अहमदाबाद ने 1950 और 1961 में प्रकाशित किया था।<ref>सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय , खंड-29, प्रकाशन विभाग,भारत सरकार, संस्करण-1969, पृ०-1 (विषय-सूची के बाद).</ref>
 
==== सत्य के प्रयोग (आत्मकथा) ====
आत्मकथा के मूल गुजराती अध्याय धारावाहिक रूप से 'नवजीवन' के अंकों में प्रकाशित हुए थे। 29 नवंबर 1925 के अंक में 'प्रस्तावना' के प्रकाशन से उसका आरंभआरम्भ हुआ और 3 फरवरी 1929 के अंक में 'पूर्णाहुति' शीर्षक अंतिम अध्याय से उसकी समाप्ति। गुजराती अध्यायों के प्रकाशन के साथ ही '''हिन्दी नवजीवन''' में उनका हिन्दी अनुवाद और यंग इंडिया में उनका अंग्रेजी अनुवाद भी दिया जाता रहा। तदनुसार 'प्रस्तावना' का अनुवाद 'हिन्दी नवजीवन' के 3 दिसंबर 1925 के अंक में प्रकाशित हुआ था। हिन्दी अनुवाद में आत्मकथा का पहला खंड पुस्तक के रूप में पहली बार सस्ता साहित्य मंडल, दिल्ली से सन् 1928 में प्रकाशित हुआ था। गाँधी जी की रचनाओं के स्वत्वाधिकारी नवजीवन ट्रस्ट ने अपनी ओर से उसके हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन सन् 1957 में किया था।<ref>सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खंड-39, पूर्ववत्, पुनर्मुद्रित संस्करण-1996, पृ०-1 (विषय-सूची के बाद).</ref>
 
==== गीता माता ====
श्रीमद्भगवद्गीता से गाँधी जी का हार्दिक लगाव प्रायः आजीवन रहा। गीता पर उनका चिंतन-मनन तथा लेखन भी लंबे समय तक चलते रहा। सम्पूर्ण गीता का गुजराती अनुवाद, प्रस्तावना सहित, उन्होंने जून 1929 में पूरा किया था और 12 मार्च 1930 को नवजीवन प्रकाशन मंदिरमन्दिर, अहमदाबाद से 'अनासक्ति योग' नाम से उसका पुस्तकाकार प्रकाशन हुआ था। उसका हिंदी, बांग्ला एवं मराठी में अनुवाद भी तत्काल हो गया था। अंग्रेजी अनुवाद इसके बाद जनवरी 1931 में संपन्न हुआ था तथा पहले यंग इंडिया के अंक में प्रकाशित हुआ था।<ref>सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खंड-41, पूर्ववत्, संस्करण-1971, पृष्ठ-92.</ref>
 
गीता के प्रत्येक श्लोक का अनुवाद सामान्य पाठकों के लिए सहज बोधगम्य न होने से गाँधी जी ने गीता के प्रत्येक अध्याय के भावों को सामान्य पाठकों के लिए सहज बोधगम्य रूप में लिखा। यरवदा सेंट्रल जेल में 1930 और 1932 में प्रत्येक सप्ताह पत्र के रूप में ये भाव भी नारायणदास गांधी को भेजे जाते रहे ताकि उन्हें आश्रम की प्रार्थना सभाओं में पढ़े जायें।<ref>सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खंड-49, पूर्ववत्, संस्करण-1973, पृ०-110.</ref> इन्हीं का प्रकाशन बाद में पुस्तक रूप में 'गीता-बोध' नाम से हुआ। इनके अतिरिक्त भी उन्होंने गीता पर प्रार्थना सभाओं में अनेक प्रवचन दिये थे। गीता से गाँधी जी का जुड़ाव इस कदर था कि अपने अत्यंत व्यस्त जीवन के बावजूद उन्होंने गीता के प्रत्येक पद का अक्षर क्रम से कोश तैयार किया जिसमें पद के अर्थ के साथ-साथ उनके प्रयोग-स्थल भी निर्दिष्ट थे। इन समस्त सामग्रियों का एकत्र प्रकाशन ही 'गीता माता' के नाम से हुआ है।
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==== अन्य ====
इनके अतिरिक्त गाँधी जी के समग्र साहित्य से चुनिंदा अंशों के संचयन तथा विभिन्न विषयों पर केंद्रितकेन्द्रित छोटी-छोटी पुस्तिकाओं का भी विभिन्न नामों से प्रकाशन होते रहा है। इनमें दो संचयन अति प्रसिद्ध तथा अत्युपयोगी रहे हैं और इन दोनों का प्रकाशन भी गाँधी जी के जीवन-काल में ही (अंग्रेजी में, 1945 एवं 1947 में) हो गया था:
# '''महात्मा गांधी के विचार''' - सं०- आर० के० प्रभु एवं यू० आर० राव (नेशनल बुक ट्रस्ट, नयी दिल्ली)
# '''मेरे सपनों का भारत''' - सं०- आर० के० प्रभु (नवजीवन प्रकाशन मंदिरमन्दिर, अहमदाबाद)
गाँधी जी ने [[जॉन रस्किन]] की ''[[अन्टू दिस लास्ट]] ([[:en:Unto This Last|Unto This Last]])'' की गुजराती में व्याख्या भी की है।<ref name="Unto this last"><!--Translate this template and uncomment
{{cite book |last= Gandhi |first= M. K. |authorlink= |title= Unto this Last: A paraphrase |url=http://www.forget-me.net/en/Gandhi/untothislast.pdf |year= |publisher=Navajivan Publishing House |location= Ahmedabad | language = en; trans. from Gujarati|isbn= 81-7229-076-4}}
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महत्वपूर्ण नेता और राजनीतिक गतिविधियाँ गाँधी से प्रभावित थीं। अमेरिका के [[अफ्रीकी-अमेरिकी राष्ट्रीय अधिकार आन्दोलन|नागरिक अधिकार आन्दोलन]] के नेताओं में [[मार्टिन लूथर किंग]] और [[जेम्स लाव्सन]] गाँधी के लेखन जो उन्हीं के सिद्धांत अहिंसा को विकसित करती है, से काफी आकर्षित हुए थे।<ref>{{Cite web|url=https://www.sfgate.com/opinion/openforum/article/COMMEMORATING-MARTIN-LUTHER-KING-JR-Gandhi-s-2640319.php|title=COMMEMORATING MARTIN LUTHER KING JR. / Gandhi's influence on King|first=Placido P.|last=D'Souza|date=20 जन॰ 2003|website=SFGate}}</ref> विरोधी-[[पृथग्वासन|रंगभेद]] कार्यकर्ता और [[दक्षिण अफ़्रीका|दक्षिण अफ्रीका]] के पूर्व राष्ट्रपति [[नेल्सन मंडेला]], गाँधी जी से प्रेरित थे।<ref name="Mandela-2000">[[नेल्सन मंडेला]], [http://www.time.com/time/time100/poc/magazine/the_sacred_warrior13a.html एक पवित्र योद्धा: दक्षिण अफ्रीका के मुक्तिदाता भारत के मुक्तिदाता] के मौलिक कार्यों को देखतें हैं। ''टाइम मैगजीन'', [[3 जनवरी|३ जनवरी]], [[2000|२०००]].</ref> और दुसरे लोग [[खान अब्दुल गफ्फार खान|खान अब्दुल गफ्फेर खान]],<ref>{{Cite web|url=http://findarticles.com/?noadc=1|archiveurl=http://archive.today/20120524200747/http://findarticles.com/p/articles/mi_m1295/is_2_66/ai_83246175/|deadurl=y|title=FindArticles.com &#124; CBSi|website=findarticles.com}}</ref>[[स्टीव बिको]] और [[औंग सां सू कई|औंग सू कई]] ([[:en:Aung San Suu Kyi|Aung San Suu Kyi]]) हैं।<ref>{{Cite web|url=https://www.tribuneindia.com/2004/20040222/spectrum/book1.htm|title=The Sunday Tribune - Books|website=www.tribuneindia.com}}</ref>
 
गाँधी का जीवन तथा उपदेश कई लोगों को प्रेरित करती है जो गाँधी को अपना गुरु मानते है या जो गाँधी के विचारों का प्रसार करने में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। यूरोप के, [[रोमां रोलां|रोमेन रोल्लांड]] पहला व्यक्ति था जिसने १९२४ में अपने किताब ''महात्मा गाँधी'' में गाँधी जी पर चर्चा की थी और ब्राजीलब्राज़ील की [[बागी|अराजकतावादी]] ([[:en:anarchist|anarchist]]) और [[नारीवाद|नारीवादी]] [[मारिया लासर्दा दा मौर|मारिया लासर्दा दे मौरा]] ने अपने कार्य शांतिवाद में गाँधी के बारें में लिखा.१९३१ में उल्लेखनीय भौतिक विज्ञानी [[अल्बर्ट आइनस्टाइन|अलबर्ट आइंस्टाइन]], गाँधी के साथ पत्राचार करते थे और अपने बाद के पत्रों में उन्हें "आने वाले पीढियों का आदर्श" कहा.<ref>{{Cite web|url=http://www.gandhiserve.org/streams/einstein.html|title=गाँधी पर आइन्स्टीन}}</ref>[[लांजा देल वास्तो|लांजा देल वस्तो]] ([[:en:Lanza del Vasto|Lanza del Vasto]]) महात्मा गाँधी के साथ रहने के इरादे से सन १९३६ में भारत आया; और बाद में गाँधी दर्शन को फैलाने के लिए वह यूरोप वापस आया और १९४८ में उसने [[सम्मुदाय का संदूक|कम्युनिटी ऑफ़ द आर्क]] की स्थापना की। (गाँधी के आश्रम से प्रभावित होकर)[[मदेलेइने स्लेड|मदेलिने स्लेड]] (मीराबेन) ब्रिटिश नौसेनापति की बेटी थी जिसने अपना अधिक से अधिक व्यस्क जीवन गाँधी के भक्त के रूप में भारत में बिताया था।
 
इसके अतिरिक्त, ब्रिटिश संगीतकार [[जॉन लेनन]] ने गाँधी का हवाला दिया जब वे अहिंसा पर अपने विचारों को व्यक्त कर रहे थे।<ref>[http://www.rollingstone.com/news/story/8898300/lennon_lives_forever अमर लेनन] ''rollingstone.com'' से लिया गया है [[२० मई]] ([[:en:May 20|May 20]]), [[२००७]] को पुनः प्राप्त किया गया</ref> २००७ में [[लायंस कान अंतर्राष्ट्रीय समारोह|केन्स लिओंस अन्तर राष्ट्रीय विज्ञापन महोत्सव]] ([[:en:Cannes Lions International Advertising Festival|Cannes Lions International Advertising Festival]]), अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति और पर्यावरणविद [[अल्बर्ट गोर|अल गोर]] ने उन पर गाँधी के प्रभाव को बताया। <ref>[http://www.exchange4media.com/Cannes/2007/fullstory2007.asp?section_id=13&news_id=26524&tag=21387&pict=2 गांधीगिरी और ग्रीन लिओन, अल गोरे ने केन्स का दिल जीत लिया] ''exchange4media.com'' से लिया गया है [[23 जून|२३ जून]] [[२००७]] को पुनः प्राप्त किया गया</ref>
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नियम के रूप में गाँधी [[विभाजन (राजनीति)|विभाजन]] की अवधारणा के खिलाफ थे क्योंकि यह उनके धार्मिक एकता के दृष्टिकोण के प्रतिकूल थी।<ref>''[http://www.amazon.com/gp/reader/0394714660/ The एसेंसियल गाँधी में पुनः प्रकाशित : उनके जीवन, कार्यों और विचारों का संग्रह].'' लुईस फिशर, २००२ (पुनर्मुद्रित संस्करण) पीपी.१०६-१०८</ref> ६ [[भारत का विभाजन|अक्टूबर १९४६]] में ''[[हरिजन]]'' में उन्होंने [[६ अक्टूबर|भारत]] का विभाजन [[1946|पाकिस्तान बनाने के लिए, के बारे में लिखा]]:
 
<blockquote>(पाकिस्तान की मांग) जैसा की मुस्लीम लीग द्वारा प्रस्तुत किया गया गैर-इस्लामी है और मैं इसे पापयुक्त कहने से नही हिचकूंगाइस्लाम मानव जाति के भाईचारे और एकता के लिए खड़ा है, न कि मानव परिवार के एक्य का अवरोध करने के लिए.इसलिए॰इस वजह से जो यह चाहते हैं कि भारत दो युद्ध के समूहों में बदल जाए वे भारत और इस्लाम दोनों के दुश्मन हैं। वे मुझे टुकडों में काट सकते हैं पर मुझे उस चीज़ के लिए राज़ी नहीं कर सकते जिसे मैं ग़लत समझता हूँ[...] हमें आस नही छोडनी चाहिए, इसके बावजूद कि ख्याली बाते हो रही हैं कि हमें मुसलमानों को अपने प्रेम के कैद में अबलाम्बित कर लेना चाहिए.चाहिए॰<ref>''[http://www.amazon.com/gp/reader/0394714660/ The एसेंसियल गाँधी में पुनः प्रकाशित हुवा : उनके जीवन, कार्यों और विचारों का संग्रह].''
लूईस फिशर, २००२(पुनर्मुद्रित संस्करण) पी.३०८-९</ref></blockquote>
 
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उन्होंने अपनी बहस कई लेखो में की, जो की होमर जैक्स के ''द गाँधी रीडर: एक स्रोत उनके लेखनी और जीवन का'' . १९३८ में जब पहली बार "यहूदीवाद और सेमेटीसम विरोधी" लिखी गई, गाँधी ने १९३० में हुए [[जर्मनी में यहूदियों का इतिहास#यहूदी नाजियों के अधीन|जर्मनी में यहूदियों पर हुए उत्पीडन]] ([[:en:History of the Jews in Germany#Jews under the Nazis (1930s-1940)|persecution of the Jews in Germany]]) को [[सत्याग्रह]] के अंतर्गत बताया उन्होंने जर्मनी में यहूदियों द्वारा सहे गए कठिनाइयों के लिए अहिंसा के तरीके को इस्तेमाल करने की पेशकश यह कहते हुए की
 
<blockquote>अगर मैं एक यहूदी होता और जर्मनी में जन्मा होता और अपना जीविकोपार्जन वहीं से कर रहा होता तो जर्मनी को अपना घर मानता इसके वावजूद कि कोई सभ्य जर्मन मुझे धमकाता कि वह मुझे गोली मार देगा या किसी अंधकूपकारागार में फ़ेंक देगा, मैं तडीपार और मतभेदीये आचरण के अधीन होने से इंकार कर दूँगा . और इसके लिए मैं यहूदी भाइयों का इंतज़ार नाहे करूंगा कि वे आयें और मेरे वैधानिक प्रैत्रोध में मुझसे जुडें, बल्कि मुझे आत्मविश्वास होगा कि आख़िर में सभी मेरा उदहारण मानने के लिए बाध्य हो जायेंगे. यहाँ पर जो नुस्खा दिया गया है अगर वह एक भी यहूदी या सारे यहूदी स्वीकार कर लें, तो उनकी स्थिति जो आज है उससे बदतर नही होगी. और अगर दिए गए पीडा को वे स्वेच्छापूर्वक सह लें तो वह उन्हें अंदरूनी शक्ति और आनंदआनन्द प्रदान करेगा और हिटलर की सुविचारित हिंसा भी यहूदियों की एक साधारण नर संहार के रूप में निष्कर्षित हो तथा यह उसके अत्याचारों की घोषणा के खिलाफ पहला जवाब होगी. अगर यहूदियों का दिमाग स्वेच्छयापूर्वक पीड़ा सहने के लिए तयार हो, मेरी कल्पना है कि संहार का दिन भी धन्यवाद ज्ञापन और आनंदआनन्द के दिन में बदल जाएगा जैसा कि जिहोवा ने गढा.. एक अत्याचारी के हाथ में अपनी ज़ाति को देकर किया। इश्वर का भय रखने वाले, मृत्यु के आतंक से नही डरते.<ref>जैक, होमर.'' [http://books.google.com/books?id=XpWO-GoOhVEC&pg=PR13&lpg=PR11&dq=The+Gandhi+Reader:+A+Sourcebook+of+His+Life+and+Writings&sig=mu7B1to2ve7qqIYNmXQMd5jifsY गाँधी के पाठक]'', पी पी ३१९-२०</ref></blockquote>
 
गाँधी की इन वक्तव्यों के कारण काफ़ी आलोचना हुयी जिनका जवाब उन्होंने "यहूदियों पर प्रश्न" लेख में दिया साथ में उनके मित्रों ने यहूदियों को किए गए मेरे अपील की आलोचना में समाचार पत्र कि दो कर्तने भेजीं दो आलोचनाएँ यह संकेत करती हैं कि मैंने जो यहूदियों के खिलाफ हुए अन्याय का उपाय बताया, वह बिल्कुल नया नहीं है।...मेरा केवल यह निवेदन हैं कि अगर हृदय से हिंसा को त्याग दे तो निष्कर्षतः वह अभ्यास से एक शक्ति सृजित करेगा जो कि बड़े त्याग कि वजह से है।<ref name="Homer-322">जैक होमर.'' गाँधी के पाठक'', पी ३२२</ref> उन्होंने आलोचनाओं का उत्तर "यहूदी मित्रो को जवाब"<ref name="Homer-323-324">जैक होमर .''गाँधी के पाठक'', पी पी ३२३-४</ref> और "यहूदी और फिलिस्तीन"<ref name="Homer-324-326">जैक होमर '', गाँधी के पाठक '', पी पी ३२४-६</ref> में दिया यह जाहिर करते हुए कि "मैंने हृदय से हिंसा के त्याग के लिए कहा जिससे निष्कर्षतः अभ्यास से एक शक्ति सृजित करेगा जो कि बड़े त्याग कि वजह से है।<ref name="Homer-322" />
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गाँधी के दक्षिण अफ्रीका को लेकर शुरुआती लेख काफी विवादस्पद हैं [[7 मार्च|७ मार्च]], [[1908|१९०८]] को, गाँधी ने ''[[भारतीय मत|इंडियन ओपिनियन]]'' में दक्षिण अफ्रीका में उनके कारागार जीवन के बारे में लिखा "काफिर शासन में ही असभ्य हैं - कैदी के रूप में तो और भी. वे कष्टदायक, गंदे और लगभग पशुओं की तरह रहते हैं।"<ref><!--Translate this template and uncomment
{{cite book|title=The Collected Works of Mahatma Gandhi|volume=8|pages=199}}
--></ref> १९०३ में अप्रवास के विषय को लेकर गाँधी ने टिप्पणी की कि "मैं मानता हूँ कि जितना वे अपनी जाति की शुद्धता पर विश्वास करते हैं उतना हम भी...हम मानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका में जो गोरी जाति है उसे ही श्रेष्ट जाति होनी चाहिए.चाहिए॰"<ref><!--Translate this template and uncomment
{{cite book|title=The Collected Works of Mahatma Gandhi|volume=3|pages=255}}
--></ref> दक्षिण अफ्रीका में अपने समय के दौरान गाँधी ने बार-बार भारतीयों का अश्वेतों के साथ सामाजिक वर्गीकरण को लेकर विरोध किया, जिनके बारे में वे वर्णन करते हैं कि " निसंदेह पूर्ण रूप से काफिरों से श्रेष्ठ हैं".<ref><!--Translate this template and uncomment