"खड़ीबोली": अवतरणों में अंतर

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खड़ी बोली वह बोली है जिसपर [[ब्रजभाषा]] या [[अवधी]] आदि की छाप न हो। ठेंठ हिंदी। आज की राष्ट्रभाषा हिंदी का पूर्व रूप। इसका इतिहास शताब्दियों से चला आ रहा है। यह परिनिष्ठित पश्चिमी हिंदी का एक रूप है।
 
== नामकरण ==
खड़ी बोली अनेक नामों से अभिहित की गई है यथा-हिंदुई, हिंदवी, दक्खिनी, दखनी या दकनी, रेखता, हिंदोस्तानी, हिंदुस्तानी आदि। डॉ॰ ग्रियर्सन ने इसे वर्नाक्युलर हिंदुस्तानी तथा डॉ॰ सुनीति कुमार चटर्जी ने इसे जनपदीय हिंदुस्तानी का नाम दिया है। डॉ॰ चटर्जी खड़ी बोली के साहित्यिक रूप को साधु हिंदी या नागरी हिंदी के नाम से अभिहित करते हैं। परंतु डॉ॰ ग्रियर्सन ने इसे हाई हिंदी का अभिधान प्रदान किया है। इसकी व्याख्या विभिन्न विद्वानों ने भिन्न भिन्न रूप से की है। इन विद्वानों के मतों की निम्नांकित श्रेणियाँ है-
 
*(1) कुछ विद्वान खड़ी बोली नाम को बज्रभाषा सापेक्ष मानते हैं और यह प्रतिपादन करते हैं कि लल्लू जी लाल (1803 ई.) के बहुत पूर्व यह नाम ब्रजभाषा की मधुरता तथा कोमलता की तुलना में उस बोली को दिया गया था जिससे कालांतर में आदर्श हिंदी तथा उर्दू का विकास हुआ। ये विद्वान खड़ी शब्द से कर्कशता, कटुता, खरापन, खड़ापन आदि ग्रहण करते हैं।
*(2) कुछ लोग इसे उर्दू सापेक्ष मानकर उसकी अपेक्षा इसे प्रकृत शुद्ध, ग्रामीण ठेठ बोली मानते हैं।
*(3) अनेक विद्वान खड़ी का अर्थ सुस्थित, प्रचलित, सुसंस्कृत, परिष्कृत या परिपक्व ग्रहण करते हैं।
*(4) अन्य विद्वान् उत्तरी भारत की ओकारांत प्रधान ब्रज आदि बोलियों को पड़ी बोली और इसके विपरीत इसे खड़ी बोली के नाम से अभिहित करते हैं, जबकि कुछ लोग रेखता शैली को पड़ी और इसे खड़ी मानते हैं। खड़ी बोली को खरी बोली भी कहा गया है। संभवत: खड़ी बोली शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग लल्लू जी लाल द्वारा प्रेमसागर में किया गया है। किंतु इस ग्रंथ के मुखपृष्ठ पर खरी शब्द ही मुद्रित है।
 
== इन्हें भी देखें ==