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[[खुशीराम शिल्पकार बनाम उत्तराखंड अंबेदकर|कुमाऊं केसरी व उत्तराखंड अंबेदकर स्व. खुशीराम 'शिल्पकार' जी]]. खुशीराम 'शिल्पकार' (जन्म : 14 दिसम्बर 1886 - स्वर्गवास : 5 मई 1973) ब्रिटिश भारत के दौरान कुमाऊं (उत्तराखंड) क्षेत्र के एम.एल.ए. निर्वाचित थे। ये पं जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गांधी व लाला लाजपतराय जैसे तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं के अभिन्न मित्र थे। राष्ट्रीय कांग्रेस नेतृत्व ने इन्हें उत्तराखंड पहाड़वासियों को ब्रिटिश हुकूमत के विरूद्ध गोलबंद करने के लिए पहाड़ क्षेत्र में भेजा। जहां इन्होंने दलितों पिछडों में व्याप्त तमाम कुरीतियों के खिलाफ एक ऐतिहासिक मुहिम छेड़ी।
 
सामंती दुराग्रहों पर आह्लादित तत्कालीन संकीर्ण जातिवादी मानसकिता वाला सामाजिक ढर्रा खुशीराम जी की स्कूली पढ़ाई भी लील गया और अपने पिताजी के घरेलू कामों में हाथ बंटाने लगे धीरे धीरे किसी तरह वह कुछ जागरूक लोगों के संपर्क में आये और स्वतंत्रता संग्राम संघर्ष से जुडे और यहीं से उनकी कांग्रेस पार्टी से नजदीकियां बढ़ी।
 
आज से आठ - नौ दशक पहले उत्तराखंड पहाड़वासी दलितों के साथ सवर्ण व दबंग राजपूताना मानसिकता के लोगों का व्यवहार घोर अमानवीय था दलितों को शिक्षा से वंचित तो रखा ही गया था साथ ही दलितों को सवर्ण लोग पानी भी दूर से डालकर देते थे। ऐसे तमाम विपरीत परिस्थितियों में खुशीराम जी ने बहुत तिरस्कृत संघर्षों के बीच पहाड़ी दलितों को राष्ट्र की मुख्य धारा के समक्ष स्थापित किया। दलितों के लिए शिल्पकार शब्द गढ़ने का श्रेय भी इन्हीं को जाता है। इतिहास में इन्हें कुमाऊं केसरी व उत्तराखंड अंबेदकर के नाम से भी जाना जाता है। डा. नवीन जोशी (अल्मोड़ा उत्तराखंड) ने कुछ अन्य इतिहासकारों के हवाले से एक लघुशोधपरक लेख वर्ष 2016 में सोशलमीडियाई मंचों पर जारी किया और इस आधार पर बहस तेज हुई कि आखिर एक ऐतिहासिक संघर्षकारी व्यक्तित्व को हासिए पर धकेले जाने की क्या मंशा हो सकती है जबकि इस दौर में ऐसे मानवतावादी जन नेताओं के इतिहास को जानने समझने की पहली जरूरत है। सामाजिक व राजनीतिक सरोकारों पर अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए पहचाने जाने वाले प्रगतिशील विचारक ए.के. ब्राइट ने स्व. खुशीराम शिल्पकार के प्रति स्वतंत्र भारत की गंदलाई राजनीति को जिम्मेदार ठहराया और इसे घोर अवसरवादी मानसिकता करार दिया। श्री ब्राइट ने उत्तराखंड राज्य की सरकार व दलित नेताओं को आड़े हाथों लेते हुए एक अन्यत्र टिप्पणी में स्पष्ट किया कि " बहुत सारी चीजें हैं जिसमें पहला ये कि हमारे पास खुशीराम जी का तिलिस्मी वृतान्त के सिवा कुछ नहीं है, एक ऐसा वृतान्त जिसमें हम खुशीराम जी को सेंटाक्लाज की तरह की छवि में गढ़़ा पाते हैं। वो रात के सन्नाटे में दबे पांव दलितों के घरो में आते हैं पता नहीं कौन सी पुड़िया सुंघाते थे कि सब लोग अगली सुबह सारे दुखों कष्टों से निजात हासिल कर सवर्णों, ठाकुरों के लिए भी आंख तररने लग जाते थे। ऐसी कहानियां गढ़ने वाला समाज और ऐसी कहानियों को संरक्षित करने वाली पीढियां निहायत ही जाहिल और असभ्यय होती हैंं।" डा. जोशी ने दलितों के बीच इस तिलिस्मी वृतान्त के खरपतवार को उखाड़ने का काम करते हुए खुशीराम जी के कठिन जनसंघर्षों को दिखाने की कोशिश की है। जिम्मेदार नौजवान पीढ़ी के पास जिज्ञासाओं और सबूतों की कुछ रोशनी जो मिली है इससे अब खुशीराम जी के आगे के संघर्षों का पता करना है। ए.के. ब्राइट आगे कहते हैं कि 'किसी आदर्श संघर्षों वाले व्यक्ति को हम पत्र पत्रिकाओं व कागजी पुलिन्दों में बांधकर उसकी प्रासंगिकता को नहीं समझ सकते हैं जब तक कि समाज की मनःस्थिति अनुकूल न हो। हम नौजवानों और चिंतनशील मानवतावादी बुद्धिजीवियों से यह सवाल करते हैं कि एक राष्ट्रीय स्तर के आंदोलनकारी जिसने न केवल उत्तराखंड पहाड़ी दलितों को ही राष्ट्रवाद से परिचित कराया बल्कि उन्होंने पूरे पहाड़ क्षेत्र में जो आर्य समाजी सिद्धांत लागू करने पर जोर दिया उनको किस तरह संरक्षित किया जा रहा है। आजादी के जिस दौर में जहां शिक्षित नौजवान ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध आर-पार की जंग लड़ने के लिए चरम मंत्रणाओं में व्यस्त था वहीं देश के तमाम पिछड़े व अशिक्षित इलाकों की तरह उत्तराखंड में घोर अमानवीय जातीय विषवमन पोषित हो रहा था। दलित समुदाय केवल सवर्णों, द्विजों, ठाकुरों के यहां उनके गाय भैंसों की परवरिश व खेतों में हल जुताई के काम में ही जुटे थे। तब गांव में सरपंचों व पधानों ( गांव का मुखिया) का ही सामंती दबदबा था जो भी दलित, पधानों के फरमानों की अनदेखी करता था उन दलितों के साथ दासयुगीन गुलामों की तरह बरताव किया जाता था। ऐसी घोर विपरीत परिस्थितियों में स्व. खुशीराम जी ने जिस तरह सामाजिक न्याय के लिए तत्कालीन सवर्ण समाज से लोहा लिया और अपने संघर्षों को जीत दिलाई उस हिसाब से निश्चित तौर पर आप खुशीराम जी को उत्तराखंड का बिरसामुंडा या उत्तराखंड का अंबेदकर कहते हैं तो यह बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं है।'
 
अपने सामाजिक व राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उन्होंने उत्तराखंड के लगभग हर गांव क्षेत्र का भ्रमण किया तब पहाडों में यातायात के साधन कुछ भी नहीं थे सामान ढुलाई के लिए इक्के दुक्के लोग घोड़े पाले हुए थे। ऐसे विषम हालातों में खुशीराम जी ने अल्मोड़ा, सल्ट, मानीला, लोहाघाट, चम्पावत, नैनीताल, ओखलकांडा, ल्वाड़ डोबा, डांडा, अमझड़ इत्यादि क्षेत्रों सहित कुछ सुदूरवर्ती गढ़वाल क्षेत्रों का भी दौरा किया। उन्होंने पहाड़ी क्षेत्रों में तमाम आर्य समाजी सिद्धातों की स्थापना केन्द्र बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। हल्द्वानी, भवाली, नैनीताल, अल्मोड़ा, लोहाघाट क्षेत्रों में आज भी आर्य समाजी धर्मशालाओं की इमारतें देखी जा सकती हैं जो बदलते सामाजिक मूल्यों के दौर में अब लगभग खत्म होने के कगार पर खड़े हैं। इसी तरह के तमाम जन कल्याणकारी संघर्षों में चलते थकते हांफते यह महामानव 5 मई 1973 को हमेशा हमेशा के लिए इस पृथ्वी से चल बसा और पीछे कुछ था तो केवल अनगिनत संघर्षों की दास्तान और अधूरे उद्देश्यों का एक डरावना बियाबान अंधेरा। अज्ञानता, अंधविश्वास, अशिक्षा के विरूद्ध जब भी महामानवों का डटकर खड़ा होकर मुकाबला करने की बात होगी तब तब खुशीराम 'शिल्पकार' जी ऐसे महामानवों में पहली पांतों के इतिहास पुरुषों की श्रेणी में खड़े पाये जायेंगे।