"लाक्षागृह": अवतरणों में अंतर

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लाक्षागृह इलाहाबाद से पूरब गंगा तट पर है।
सन 1922 ई. तक उसकी कुछ कोठरियाँ विद्यमान थीं पर अब वे गंगा की धारा से कट कर गिर गयीं। कुछ अंश अभी भी शेष है। उसकी मिट्टी भी विचित्र तरह की लाख की-सी ही है।
 
महाभारत से
पांडवों के प्रति प्रजाजनों का पूज्य भाव देखकर दुर्योधन बहुत चिंतित हुआ। उसने जाकर धृतराष्ट्र से कहा कि वह किसी प्रकार पांडवों को हस्तिनापुर से हटाकर वारणावत भेज दें। प्रजाजनों को वह (दुर्योधन) जब अपने पक्ष में कर ले तब उन्हें फिर से बुलवा लें, अन्यथा प्रजाजन दुर्योधन को युवराज ने बनाकर युधिष्ठिर को बनाना चाहते हैं धृतराष्ट्र ने उसका सुझाव तुंरत स्वीकार कर लिया। उन लोगों ने वारणावत प्रदेश की प्राकृतिक सुषमा का बार-बार वर्णन करके पांडवों को प्रकृति-सौंदर्य देखने के लिए प्रेरित किया। दुर्योधन ने अपने मन्त्री पुरोचन की सहायता से वारणावत में पांडवों के रहने के लिए एक महल बनवाया। वह अत्यंत सुंदर था किंतु उसका निर्माण लाख आदि शीघ्र प्रज्वलित होने वाले पदार्थों से किया गया था। विदुर जी ने इस रहस्य को जाना तो तुरंत पांडवों को सावधान कर दिया। विदुर के भेजे हुए एक विश्वस्त व्यक्ति ने गुप्त रूप से लाक्षागृह में एक सुरंग खोदी। पुरोचन अत्यंत सावधान रहने पर भी इस भेद को नहीं जान पाया। पांडव दिन भर मृगया के बहाने से बाहर रहते थे और रात को घर तथा पुरोचन पर पहरा रखते। एक बार कुंती ने बहुत-से ब्राह्मणों को भोजन कराया तथा ग़रीबों को दान दिया। उस रात एक भीलनी अपने पांच बेटों के साथ उसी लाक्षागृह में सो गयी। आधी रात को पांडव तथा कुंती सुरंग के मार्ग से बाहर जंगल में भाग गये और भीमसेन ने भागने से पूर्व घर में आग लगा दी। लाक्षागृह में पुरोचन तथा अपने बेटों के साथ भीलनी जलकर मर गये। कुंती तथा पांडवों के लिए विदुर ने एक विश्वस्त आदमी को नौका सहित भेजा था। सुरंग जिस जंगल में खुलती थी, वहाँ गंगा नदी थी। विदुर की भेजी हुई नौका की सहायता से वे लोग गंगा के दूसरी पार पहुंच गये। [1]
 
==परिचय==