"त्रैलंग स्वामी": अवतरणों में अंतर

→‎जीवन: सन्दर्भ जोड़ा।
→‎जीवन: सन्दर्भ जोड़ा।
पंक्ति 17:
 
== जीवन ==
तैलंग स्वामी का जन्म [[आंध्र प्रदेश]] के विजियाना नामक जनपद के होलिया नामक एक गाँव में हुआ था।<ref name="कोश">[[हिंदी विश्वकोश]], खंड-१२, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण-१९७०, पृष्ठ-२७४.</ref> इनके पिता का नाम नृसिंह राव और माता का नाम विद्यावती था। इनका जन्म पन्द्रहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में हुआ था।<ref>''भारत के महान साधक'', प्रथम खंड, प्रमथनाथ भट्टाचार्य, नवभारत प्रकाशन, दरभंगा (बिहार), चतुर्थ संस्करण-१९८६, पृष्ठ-२.</ref> इनकी निश्चित जन्म-तिथि ज्ञात नहीं है। कहीं इन्हें १५२९ में तो कहीं १६०७ ई॰ में उत्पन्न माना जाता है। इनकी माता भगवान शिव की उपासिका थी। भगवान शिव के कृपा-स्वरूप इनका जन्म मानने के कारण उन्होंने इनका नाम शिवराम रखा था। बचपन से ही सहज वैराग्य एवं विषय-विरक्ति का इनका स्वभाव था, जिसे इनकी माता भी समझती थी। अपने इसी स्वभाव के कारण ये अविवाहित रहे। जब ये ४० वर्ष के हुए तभी इनके पिता का और जब ये लगभग ५२ वर्ष के हुए तब इनकी माता का देहांत हो गया। इसके बाद इन्होंने अपनी साधना स्थानीय श्मशान भूमि से आरंभ की और वहाँ २०वर्ष तक साधना की। फिर इन्हें संयोगवश ही पंजाब से आए स्वामी भागीरथानंद सरस्वती से भेंट हुई और उनके साथ इन्होंने सदा के लिए होलिया गाँव का परित्याग कर दिया। अनेक प्रदेशों का पर्यटन करते हुए ये दोनों प्रसिद्ध पुरुष पुष्कर तीर्थ पहुँचे। वहीं लगभग ७८ वर्ष की अवस्था में शिवराम ने भगीरथ स्वामी से संन्यास की दीक्षा ली। उनका नया नामकरण हुआ- 'गणपति सरस्वती'। दीक्षा ग्रहण करने के बाद ये गंभीर साधना में निमग्न हो गये। भगीरथ स्वामी का पुष्कर तीर्थ में ही देहांत हो गया। इस पवित्र क्षेत्र में लगभग दस वर्षों तक कठोर साधना करने के बाद ये भारत के प्रसिद्ध तीर्थों की परिक्रमा के लिए निकले। तब उनकी आयु लगभग ८८ वर्ष की थी। इस उम्र में भी उनका शरीर पूरी तरह सुगठित था और बुढ़ापा का कोई चिह्न नहीं था।<ref>''भारत के महान साधक'', प्रथम खंड, प्रमथनाथ भट्टाचार्य, नवभारत प्रकाशन, दरभंगा (बिहार), चतुर्थ संस्करण-१९८६, पृष्ठ-२-४.</ref> इसके बाद [[नेपाल]], [[तिब्बत]], [[गंगोत्री]], [[यमुनोत्री]], [[मानसरोवर]] आदि क्षेत्रों में कठोर साधना करके इन्होंने अनेक सिद्धियाँ प्राप्त कीं। फिर [[नर्मदा]]घाटी के [[मार्कण्डेय आश्रम]], [[प्रयागराज]] आदि अनेक तीर्थ स्थानों में निवास एवं साधना करते हुए अंततः ये काशी पहुँचे।<ref name="कोश" /> आंध्र प्रदेश के [[तैलंग]] [[तेलंगाना|क्षेत्र]] से आने के कारण काशी के लोग इन्हें 'तैलंग स्वामी' के नाम से पुकारने लगे और इस प्रकार इनका नाम 'तैलंग स्वामी' प्रसिद्ध हो गया।<ref name="कोश" /><ref>''भारत के महान साधक'', प्रथम खंड, प्रमथनाथ भट्टाचार्य, नवभारत प्रकाशन, दरभंगा (बिहार), चतुर्थ संस्करण-१९८६, पृष्ठ-४.</ref> वहाँ ये लगभग १५० वर्ष रहे। विक्रम संवत् १९४४ (फसली साल १२९४) में [[पौष]] माह के शुक्ल पक्ष की [[एकादशी]] तिथि (सन् [[१८८७]]) को इन्होंने नश्वर शरीर छोड़ा।<ref>[http:/ name="कोश" /www.hindupedia.com/en/Shri_Trailanga_Swami><ref>''भारत त्रैलंगस्वामी]।के हिन्दूपीडियामहान साधक'', प्रथम खंड, प्रमथनाथ भट्टाचार्य, नवभारत प्रकाशन, दरभंगा (बिहार), चतुर्थ संस्करण-१९८६, पृष्ठ-२३.</ref>
 
त्रैलंग स्वामी [[लाहिड़ी महाशय]] के परम मित्र थे। उनके सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे ३०० वर्ष से भी अधिक आयु तक जीवित रहे। उनका वजन ३०० पौंड था। दोनो योगी प्रायः एक साथ ध्यान में बैठा करते थे। त्रैलंग स्वामी के चमत्कारो के सम्बन्ध में अनेक बाते कही जाती है। अनेक बार घातक विष का पान करने के बाद भी वे जीवित रहे।<ref name="शैवाल">[http://www.shaiwal.com/html/kndewedi10.htm त्रैलंग स्वामी]। शैवाल.कॉम</ref> अनेक लोगो ने उन्हे [[गंगा]] के जल में उतरते देखा था। कई दिनो तक वे गंगा में जल के ऊपर बैठे रहते थे अथवा लम्बे समय तक जल के नीचे छिपे रहते थे। वे गर्मी के दिनो भी मध्यान्त समय [[मणिकर्णिका घाट]] के धूप से गर्म शिलाओं पर निश्चल बैठे रहते थे। इन चमत्कारो के द्वारा वे यह सिद्ध करना चाहते थे कि मनुष्य ईश्वर-चैतन्य के द्वारा ही जीवित रहता है। मृत्यु उनका स्पर्श नहीं कर सकती थी। आध्यात्मिक क्षेत्र में तो त्रैलंग स्वामी तीव्रगति वाले थे ही उनका शरीर भी बहुत विशाल था किन्तु वे भोजन यदा कदा ही करते थे। वे माया विनिमुक्ति हो चुके थे और उन्होने इस विश्व को ईश्वर के मन की एक परिकल्पना के रूप में अनुभव कर लिया था। वे यह जानते थे कि यह शरीर धनीभूत शक्ति के कार्य साधक आकार अतिरिक्त कुछ नहीं है। अत: वे जिस रूप में चाहते, शरीर का उपयोग कर लेते थे।