"देवकीनन्दन खत्री": अवतरणों में अंतर

No edit summary
टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
अंतिम ठीक अवतरण पर
पंक्ति 4:
 
== जीवनी ==
देवकीनन्दन खत्री जी का जन्म 18 जून 1861 (आषाढ़ कृष्णपक्ष सप्तमी संवत् 1918) शनिवार को [[बिहार]] के [[samstipurमुजफ्फरपुर जिला|samstipurजिलेमुजफ्फरपुर जिले]] के [[भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान,( malinagar,pusa ]]पूसा में हुआ था। उनके पिता का नाम लाला ईश्वरदास था। उनके पूर्वज [[पंजाब क्षेत्र|पंजाब]] के निवासी थे तथा मुगलों के राज्यकाल में ऊँचे पदों पर कार्य करते थे। महाराज [[महाराजा रणजीत सिंह|रणजीत सिंह]] के पुत्र शेरसिंह के शासनकाल में लाला ईश्वरदास काशी में आकर बस गये। देवकीनन्दन खत्री जी की प्रारम्भिक शिक्षा [[उर्दू भाषा|उर्दू-]][[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] में हुई थी। बाद में उन्होंने [[हिन्दी|हिंदी]], [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] एवं [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेजी]] का भी अध्ययन किया।
 
आरम्भिक शिक्षा समाप्त करने के बाद वे [[गया]] के टेकारी इस्टेट पहुंच गए और वहां के राजा के यहां नौकरी कर ली। बाद में उन्होंने [[वाराणसी]] में 'लहरी प्रेस' ना से एक प्रिंटिंस प्रेस की स्थापना की और 1900 में हिन्दी मासिक 'सुदर्शन' का प्रकाशन आरम्भ किया।
पंक्ति 10:
देवकीनन्दन खत्री जी का [[काशी का इतिहास#आधुनिक काशी राज्य|काशी नरेश]] ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह से बहुत अच्छा सम्बन्ध था। इस सम्बन्ध के आधार पर उन्होंने [[चकिया]] ([[उत्तर प्रदेश]]) और [[नौगढ़]] के जंगलों के ठेके लिये। देवकीनन्दन खत्री जी बचपन से ही सैर-सपाटे के बहुत शौकीन थे। इस ठेकेदारी के काम से उन्हे पर्याप्त आय होने के साथ ही साथ उनका सैर-सपाटे का शौक भी पूरा होता रहा। वे लगातार कई-कई दिनों तक चकिया एवं नौगढ़ के बीहड़ जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की खाक छानते रहते थे। कालान्तर में जब उनसे जंगलों के ठेके छिन गये तब इन्हीं जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की पृष्ठभूमि में अपनी [[तिलिस्म]] तथा [[ऐयारी]] के कारनामों की कल्पनाओं को मिश्रित कर उन्होंने चन्द्रकान्ता उपन्यास की रचना की।
 
बाबू देवकीनन्दन खत्री ने जब उपन्यास लिखना शुरू किया था उस जमाने में अधिकतर लोग भी उर्दू भाषा भाषी ही थे। ऐसी परिस्थिति में खत्री जी का मुख्य लक्ष्य था ऐसी रचना करना जिससे [[देवनागरी]] हिन्दी का प्रचार-प्रसार हो। यह उतना आसान कार्य नहीं था। परन्तु उन्होंने ऐसा कर दिखाया। चन्द्रकान्ता उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि जो लोग हिन्दी लिखना-पढ़ना नहीं जानते थे या उर्दूदाँ थे, उन्होंने केवल इस उपन्यास को पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी। इसी लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने इसी कथा को आगे बढ़ाते हुए दूसरा उपन्यास "[[चंद्रकांता|चन्द्रकान्ता सन्तति]]" लिखा जो "चन्द्रकान्ता" की अपेक्षा कई गुणा रोचक था। इन उपन्यासों को पढ़ते वक्त लोग खाना-पीना भी भूल जाते थे। इन उपन्यासों की भाषा इतनी सरल है कि इन्हें पाँचवीं कक्षा के छात्र भी पढ़ लेते हैं। पहले दो उपन्यासों के २००० पृष्ठ से अधिक होने पर भी एक भी क्षण ऐसा नहीं आता जहाँ पाठक ऊब जाए।($ Chandracnta santti$)malinagar ram mandir me rkha gya tha but abhi k ha hai kisi ko v nhi pta hai ..
 
== मुख्य रचनाएँ==