"भक्ति": अवतरणों में अंतर
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'''भक्ति''' शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' [[धातु (संस्कृत के क्रिया शब्द)|धातु]] से हुई है, जिसका अर्थ 'सेवा करना' या 'भजना' है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्ट देवता के प्रति आसक्ति। <ref>Flood, Gavin D. (2003). [https://books.google.com/?id=qSfneQ0YYY8C&pg=PA185 The Blackwell Companion to Hinduism.] Wiley-Blackwell. p. 185. ISBN 978-0-631-21535-6.</ref><ref>Cutler, Norman (1987). [https://books.google.com/?id=veSItWingx8C&pg=PA1 Songs of Experience]. Indiana University Press. p. 1. ISBN 978-0-253-35334-4.</ref>
नारदभक्तिसूत्र में भक्ति को परम प्रेमरूप और अमृतस्वरूप कहा गया है। इसको प्राप्त कर मनुष्य कृतकृत्य, संतृप्त और अमर हो जाता है। व्यास ने पूजा में अनुराग को भक्ति कहा है। [[गर्ग]] के अनुसार कथा श्रवण में अनुरक्ति ही भक्ति है। भारतीय धार्मिक साहित्य में भक्ति का उदय वैदिक काल से ही दिखाई पड़ता है।
अर्थात् भक्ति, भजन है। किसका भजन? [[ब्रह्म]] का, महान् का। महान् वह है जो चेतना के स्तरों में मूर्धन्य है, यज्ञियों में यज्ञिय है, पूजनीयों में पूजनीय है, सात्वतों, सत्वसंपन्नों में शिरोमणि है और एक होता हुआ भी अनेक का शासक, कर्मफलप्रदाता तथा भक्तों की आवश्यकताओं को पूर्ण करनेवाला है।
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मानव चिरकाल से इस एक अनादि सत्ता (ब्रह्म) में विश्वास करता आया है। भक्ति साधन तथा साध्य द्विविध है। साधक, साधन में ही जब रस लेने लगता है, उसके फलों की ओर से उदासीन हो जाता है। यही साधन का साध्य बन जाता है। पर प्रत्येक साधन का अपना पृथक् फल भी है। भक्ति भी साधक को पूर्ण स्वाधीनता, पवित्रता, एकत्वभावना तथा प्रभुप्राप्ति जैसे मधुर फल देती है। प्रभुप्राप्ति का अर्थ जीव की समाप्ति नहीं है, सयुजा और सखाभाव से प्रभु में अवस्थित होकर आनन्द का उपभोग करना है।
[[रामानुजाचार्य|आचार्यं रामानुज]], [[मध्वाचार्य|मध्व]], [[निम्बार्काचार्य|निम्बार्क]] आदि का मत यही है। [[दयानन्द सरस्वती|महर्षि दयानन्द]] लिखते हैं : ''जिस प्रकार अग्नि के पास जाकर शीत की निवृत्ति तथा उष्णता का अनुभव होता है, उसी प्रकार प्रभु के पास पहुँचकर
[[ईसाई धर्म|ईसाई]] प्रभु में पितृभावना रखते हैं क्योंकि पाश्चात्य विचारकों के अनुसार जीव को सर्वप्रथम प्रभु के नियामक, शासक एवं
वात्सल्यभाव का क्षेत्र व्यापक है। यह मानवक्षेत्र का अतिक्रांत करके पशु एवं पक्षियों के क्षेत्र में भी व्याप्त है। पितृभावना से भी बढ़कर मातृभावना है। पुत्र पिता की ओर आकर्षित होता है, पर साथ ही डरता भी है। मातृभावना में वह डर दूर हो जाता है। माता प्रेम की मूर्ति है, ममत्व की प्रतिमा है। पुत्र उसके समीप निःशंक भाव से चला जाता है। यह भावना वात्सल्यभाव को जन्म देती है। रामानुजीय वैष्णव सम्प्रदाय में केवल वात्सल्य और कर्ममिश्रित वात्सल्य को लेकर, जो मार्जारकिशोर तथा कपिकिशोर न्याय द्वारा समझाए जाते हैं, दो दल हो गए थे (टैकले और बडकालै)- एक केवल प्रपत्ति को ही सब कुछ समझते थे, दूसरे प्रपत्ति के साथ कर्म को भी आवश्यक मानते थे।
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भक्ति क्षेत्र की चरम साधना सख्यभाव में समवसित होती है। जीव ईश्वर का शाश्वत सखा है। प्रकृति रूपी वृक्ष पर दोनों बैठे हैं। जीव इस वृक्ष के फल चखने लगता है और परिणामत: ईश्वर के सखाभाव से पृथक् हो जाता है। जब साधना, करता हुआ भक्ति के द्वारा वह प्रभु की ओर उन्मुख होता है तो दास्य, वात्सल्य, दाम्पत्य आदि सीढ़ियों को पार करके पुनः सखाभाव को प्राप्त कर लेता है।<ref>Allport, Gordon W.; Swami Akhilananda (1999). "Its meaning for the West". Hindu Psychology. Routledge. p. 180.</ref> इस भाव में न दास का दूरत्व है, न पुत्र का संकोच है और न पत्नी का अधीन भाव है। ईश्वर का सखा जीव स्वाधीन है, मर्यादाओं से ऊपर है और उसका वरेण्य बंधु है। आचार्य वल्लभ ने प्रवाह, मर्यादा, शुद्ध अथवा पुष्ट नाम के जो चार भेद पुष्टिमार्गीय भक्तों के किए हैं, उनमें पुष्टि का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं : कृष्णधीनातु मर्यादा स्वाधीन पुष्टिरुच्यते। सख्य भाव की यह स्वाधीनता उसे भक्ति क्षेत्र में ऊर्ध्व स्थान पर स्थित कर देती है।
[[चित्र:Meerabai (crop).jpg|right|thumb|300px|[[मीराबाई]] (1498-1546) वैष्णव-भक्ति-आन्दोलन की महानतम कवयित्री हैं।]]
भक्ति का तात्विक विवेचन वैष्णव आचार्यो द्वारा विशेष रूप से हुआ है। [[वैष्णव]] संप्रदाय भक्तिप्रधान संप्रदाय रहा है। [[श्रीमद्भागवत]] और [[श्रीमद्भगवद्गीता]] के अतिरिक्त वैष्णव भक्ति पर अनेक श्लोकबद्ध संहिताओं की रचना हुई। सूत्र शैली में उसपर [[नारद भक्तिसूत्र]] तथा [[शांडिल्य भक्तिसूत्र]] जैसे अनुपम ग्रंथ लिखे गए। <ref>Georg Feuerstein; Ken Wilber (2002). [https://books.google.com/?id=Yy5s2EHXFwAC&pg=PA55 The Yoga Tradition]. Motilal Banarsidass. p. 55. ISBN 978-81-208-1923-8.</ref>पराधीनता के समय में भी महात्मा [[रूप गोस्वामी]] ने भक्तिरसायन जैसे अमूल्य ग्रंथों का प्रणयन किया। भक्ति-तत्व-तंत्र को हृदयंगम करने के लिए इन ग्रंथों का अध्ययन अनिवार्यत: अपेक्षित है। [[बल्लभाचार्य|आचार्य वल्लभ]] की [[भागवत]] पर [[सुबोधिनी टीका]] तथा [[नारायण भट्ट]] की भक्ति की परिभाषा इस प्रकार दी गई है :
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: ''अहैतुक्य प्रतिहता ययात्मा संप्रसीदति ॥ ११.२.६
भगवान् में हेतुरहित, निष्काम एक निष्ठायुक्त, अनवरत प्रेम का नाम ही भक्ति है। यही पुरुषों का परम धर्म है। इसी से आत्मा प्रसन्न होती है। '
श्रीमद्भागवत् में '''नवधा भक्ति''' का वर्णन है :
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