"कम्पनी के शासनकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था": अवतरणों में अंतर

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इस लेख में भारत के उन क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था का वर्णन है जो सन १७५७ से लेकर १८५७ के बीच [[ईस्ट इंडिया कम्पनी]] के अधिकार में आ गए थे। १७५७ में [[प्लासी का युद्ध|प्लासी के युद्ध]] में जीत के बाद से भारत के कुछ भागों पर कम्पनी का शासन शुरू हो गया। इसके बाद बंगाल प्रेसीडेन्सी बनी। १८५७ तक तो भारत के अधिकांश भाग पर कम्पनी का राज था।
 
==कम्पनी के शासन के पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था==
18वीं शताब्दी के आरंभिक दिनों में भारतीय अर्थव्यवस्था ग्राम आधारित थी, जो स्वावलंबी एवं स्वशासी होने के साथ-साथ अपनी आवश्यकतानुसार सभी वस्तुओं का उत्पादन करती थी। गाँवों का सम्बन्ध केवल राज्य को कर देने से होता था तथा ग्रामीण समाज सदैव की भाँति मंद गति से चलता रहता था, भले ही कोई शासक या वंश परिवर्तित हो गया हो। यूरोपियों ने एशियाई समाज के इस अपरिवर्तनशील रूप के बारे में कहा था कि यह ''नश्वर संसार में भी अनश्वर है''। दूसरी ओर, भारत में उत्पादित वस्तुओं की मांग पूरे विश्व में बढ़ने लगी, जैसे- आगरा, लाहौर, मुर्शिदाबाद तथा गुजरात का रेशमी कपड़ा, कश्मीर की ऊनी शॉल, ढाका, अहमदाबाद, मसुलीपट्टनम का सूती कपड़ा, सोने-चाँदी के आभूषण, धातु का सामान, हथियार आदि। इसके साथ ही नगरों में भी धीरे-धीरे हस्तशिल्प उद्योग बढ़ने लगे थे। किन्तु मुगल साम्राज्य का विघटन होने के कारण आर्थिक-व्यवस्था का भी विघटन होने लगा तथा भारतीय राजाओं के आपसी युद्धों से आर्थिक क्रियाकलापों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा। यूरोपीय व्यापारिक कम्पनियों ने इन युद्धों का लाभ उठाकर राजनीति में हस्तक्षेप किया तथा [[प्लासी का युद्ध|1757ई. की प्लासी विजय]] के पश्चात् ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी धीरे-धीरे साम्राज्य की स्वामिनी बन गई। यूरोपीय कंपनी यहीं नहीं रुकी बल्कि विजित क्षेत्रों पर अपना नियत्रंण और भी सुदृढ़ करने के लिये आर्थिक-प्रशासनिक नीतियों में समयानुसार परिवर्तन करती रही।
 
==कम्पनी शासन में अर्थव्यवस्था==
कम्पनी शासन ने भारत की राजनीतिक व्यवस्था के साथ-साथ यहाँ की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को भी गंभीर रूप से प्रभावित किया। कम्पनी शासन के साथ ही भारतीय समाज में एक नई सामाजिक व्यवस्था सामने आई जिसका आधार [[जाति]] व श्रम न होकर व्यावसायिक उपलब्धियों तथा मुक्त प्रतिस्पर्द्धा पर आधारित नई आर्थिक शक्तियाँ थीं। अंग्रेजों ने अपने राज्य विस्तार एवं प्रशासनिक तंत्र के साथ-साथ भारत के संदर्भ में सामाजिक-सांस्कृतिक नीतियों का विकास किया, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक हितों के अनुसार समय-समय पर परिवर्तित होती रहीं। ब्रिटिश शासन ने समाज के विभिन्न वर्गों, यथा-जमींदार वर्ग, देशी राजे-रजवाड़े, कृषक वर्ग, पूंजीपति वर्ग, मजदूर वर्ग, नारी वर्ग, आदिवासी वर्ग आदि को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया। साथ ही अंग्रेजों के शासन ने भारत की शिक्षा प्रणाली, प्रेस, स्थानीय स्वशासन, लोक-सेवा तथा विदेश नीति को भी गंभीर रूप से प्रभावित किया। भारत में ब्रिटिश शिक्षा नीति ब्रिटिश औपनिवेशिक हितों के अनुकूल परिचालित होती थी, क्योंकि अंग्रेजों की शिक्षा नीति का उद्देश्य एक ऐसा वर्ग तैयार करना था जो ब्रिटिश औद्योगिक बाजार का भारत में विस्तार कर सके। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान भारत में मानवजनित [[अकाल|अकालों]] की संख्या बढ़ी किन्तु अंग्रेजों द्वारा बनाई गई अकाल नीति का शोर केवल उत्पादन तथा कार्य-दिवस पर ही था, श्रमिकों की सुविधाओं पर नहीं। इस काल में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया, प्रेस, जनसंचार साधन आदि का भी संकुचित विकास हुआ। सिविल सेवाओं में तो भारतीयों को इस परीक्षा के योग्य ही नहीं समझा जाता था, किन्तु कुछ राष्ट्रवादी नेताओं के अथक प्रयत्नों से भारतीयों को भी सिविल सेवा की परीक्षा देने का मौका मिला।
 
==सन्दर्भ==