"भारतीय संसद": अवतरणों में अंतर

No edit summary
पंक्ति 61:
 
== इतिहास व व्युत्पत्ति ==
[[चित्र:A Constituent Assembly of India meeting in 1950.jpg|thumb|right|200px|संविधान सभा की बैठक १९५०]]
[[चित्र:Jawaharal Nehru and other members taking pledge.jpg|thumb|right|200px|[[जवाहरलाल नेहरू]] व अन्य सदस्य [[भारत की संविधान सभा]] की मध्य-रात्रि सत्र में शपथग्रहण करते हुए, १५ अगस्त १९४७]]
[[चित्र:Indian Prime Minister Morarji Desai listens to Jimmy Carter as he addresses the Indian Parliament House. - NARA - 177385.tif|thumb|right|200px|अमेरिकी राष्ट्रपति [[जिमि कार्टर]], संसद के केंद्रीय कक्ष में संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए]]
 
[[भारत]] की राजनीतिक व्यवस्था को, या [[सरकार]] जिस प्रकार बनती और चलती है, उसे संसदीय [[लोकतंत्र]] कहा जाता है। ग्राम-पंचायतें हमारे जन-जीवन का अभिन्न अंग रही है। पुराने समय में गाँवो की पंचायत चुनाव से गठित की जाती थी। उसे न्याय और व्यवस्था, दोनों ही क्षेत्रों में खूब अधिकार मिले हुए थे। पंचायतों के सदस्यों का राजदरबार में बड़ा आदर होता था। यही पंचायतें भूमि का बंटवारा करती थीं। कर वसूल करती थीं। गाँव की ओर से सरकार कर का हिस्सा देती थीं। कहीं कहीं कई ग्राम-पंचायतों के ऊपर एक बड़ी पंचायत भी होती थी। यह उन पर निगरानी और नियंत्रण रखती थी। कुछ पुराने शिलालेख यह भी बताते हैं कि ग्राम-पंचायतों के सदस्य किस प्रकार चुने जाते थे। सदस्य बनने के लिए जरूरी गुणों और चुनावों में महिलाओं की भागीदारी के नियम भी इस पर लिखे थे। अच्छा आचरण न करने पर अथवा राजकीय धन का ठीक ठीक हिसाब न कर पाने पर कोई भी सदस्य पद से हटाया जा सकता था। पदों पर किसी भी सदस्य का कोई निकट-संबंधी नियुक्त नहीं किया जा सकता था।
 
मध्य युग में आकर संसद सभा और समिति जैसी संस्थाएं गायब हो गईं। ऊपर के स्तर पर लोकतंत्रात्मक संस्थाओं का विकास रूक गया। सैकड़ों वर्षों तक हम आपसी लड़ाइयों में उलझे रहे। विदेशियों के आक्रमण पर आक्रमण होते रहे। सेनाएं हारती-जीतती रहीं। शासक बदलते रहे। हम विदेशी शासन की गुलामी में भी जकड़े रहे। सिंध से असम तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक, पंचायत संस्थाएं बराबर चलती रहीं। ये प्रादेशिक जनपद परिषद् नगर परिषद, पौर सभा, ग्राम सभा, ग्राम संघ जैसे अलग नामों से पुकारी जाती रहीं। सच में ये पंचायतें ही गांवों की ‘संसद’ थीं। सन 1883 के चार्टर अधिनियम में पहली बार एक विधान परिषद के बीज दिखाई पड़े। 1853 के अंतिम चार्टर अधिनियम के द्वारा विधायी पार्षद शब्दों का प्रयोग किया गया। यह नयी कौंसिल शिकायतों की जांच करने वाली और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करने वाली सभा जैसा रूप धारण करने लगी।
 
[[चित्र:A Constituent Assembly of India meeting in 1950.jpg|thumb|right|200px250px|संविधान सभा की बैठक १९५०]]
सन 1883 के चार्टर अधिनियम में पहली बार एक विधान परिषद के बीज दिखाई पड़े। 1853 के अंतिम चार्टर अधिनियम के द्वारा विधायी पार्षद शब्दों का प्रयोग किया गया। यह नयी कौंसिल शिकायतों की जांच करने वाली और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करने वाली सभा जैसा रूप धारण करने लगी।
[[चित्र:Jawaharal Nehru and other members taking pledge.jpg|thumb|right|200px250px|[[जवाहरलाल नेहरू]] व अन्य सदस्य [[भारत की संविधान सभा]] की मध्य-रात्रि सत्र में शपथग्रहण करते हुए, १५ अगस्त १९४७]]
[[चित्र:Indian Prime Minister Morarji Desai listens to Jimmy Carter as he addresses the Indian Parliament House. - NARA - 177385.tif|thumb|right|200px250px|अमेरिकी राष्ट्रपति [[जिमि कार्टर]], संसद के केंद्रीय कक्ष में संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए]]
 
1857 की आजादी के लिए पहली लड़ाई के बाद 1861 का भारतीय कौंसिल अधिनियम बना। इस अधिनियम को ‘भारतीय विधानमंडल का प्रमुख घोषणापत्र’ कहा गया। जिसके द्वारा ‘भारत में विधायी अधिकारों के अंतरण की प्रणाली’ का उदघाटन हुआ। इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय एवं प्रांतीय स्तरों पर विधान बनाने की व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। अंग्रेजी राज के भारत में जमने के बाद पहली बार विधायी निकायों में गैर-सरकारी लोगों के रखने की बात को माना गया।