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वाजसेनीय
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[[चित्र:Goddess Sarasvati appears before Yajnavalkya.jpg|right|thumb|300px|भगवती सरस्वती याज्ञवल्क्य के सम्मुख प्रकट हुईं]]
'''याज्ञवल्क्य''' (ईसापूर्व ७वीं शताब्दी)<ref>H. C. Raychaudhuri (1972), Political History of Ancient India, Calcutta: University of Calcutta, pp.41–52</ref>, [[भारत]] के [[वैदिक सभ्यता|वैदिक काल]] के एक ऋषि तथा दार्शनिक थे। वे [[वैदिक साहित्य]] में [[शुक्ल यजुर्वेद]] की वाजसनेयीवाजसेनीय शाखा के द्रष्टा हैं। इनको अपने काल का सर्वोपरि वैदिक ज्ञाता माना जाता है।
 
याज्ञवल्क्य का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य [[शतपथ ब्राह्मण]] की रचना है - [[बृहदारण्यक उपनिषद्|बृहदारण्यक उपनिषद]] जो बहुत महत्वपूर्ण उपनिषद है, इसी का भाग है।<ref>Scharfstein (1998)</ref> इनका काल लगभग १८००-७०० ई पू के बीच माना जाता है। इन ग्रंथों में इनको [[जनक|राजा जनक]] के दरबार में हुए शास्त्रार्थ के लिए जाना जाता है। शास्त्रार्थ और दर्शन की परंपरा में भी इनसे पहले किसी ऋषि का नाम नहीं लिया जा सकता। इनको '''नेति नेति''' (यह नहीं, यह भी नहीं) के व्यवहार का प्रवर्तक भी कहा जाता है।