"राजा मान सिंह": अवतरणों में अंतर

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मानसिंह'''राजा मान सिंह''' [[आमेर]] (आम्बेर) के कच्छवाहा [[राजपूत]] राजा थे। उन्हें 'मान सिंह प्रथम' के नाम से भी जाना जाता है। राजा भगवन्त दास इनके पिता थे।
 
वह [[अकबर]] की सेना के प्रधान [[सेनापति]] थे। उन्होने [[आमेर दुर्ग|आमेर के मुख्य महल]] के निर्माण कराया।
राजा मानसिंह भारतवर्ष के अघोषित राजा थे, जो राजनीतिक विवशता के कारण अकबर के राजनीतिक मित्र भी थे ।
 
महान इतिहासकार कर्नल [[जेम्स टॉड]] ने लिखा है- " [[भगवान दास]] के उत्तराधिकारी मानसिंह को अकबर के दरबार में श्रेष्ठ स्थान मिला था।..मानसिंह ने उडीसा और आसाम को जीत कर उनको बादशाह अकबर के अधीन बना दिया. राजा मानसिंह से भयभीत हो कर काबुल को भी अकबर की अधीनता स्वीकार करनी पडी थी। अपने इन कार्यों के फलस्वरूप मानसिंह बंगाल, बिहार, दक्षिण और काबुल का शासक नियुक्त हुआ था।"<ref>[http://persian.packhum.org/persian/main?url=pf%3Ffile%3D00702051%26ct%3D237%26rqs%3D302%26rqs%3D309%26rqs%3D310 30. Ra´jah Ma´n Singh, son of Bhagwán Dás - Biography] [[Ain-i-Akbari]], Vol. I.</ref><ref>[http://www.mapsofindia.com/who-is-who/history/raja-man-singh.html Raja Man Singh Biography] India's who's who, www.mapsofindia.com.</ref><ref>1.राजस्थान का इतिहास : कर्नल जेम्स टॉड, साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर</ref>
मानसिंह जी का कद अपने समकालीन राजाओ में सबसे बड़ा था । मानसिंह ने अकबर की रक्षा बहुत बार की, जिस कारण अकबर राजपाठ से निश्चिन्त हो गया ।। उस समय पठान भी भारत पर अधिकार चाहते थे, दोनो पक्षो से मानसिंह जी एक साथ लड़ना नही चाहते थे , अतः उन्होंने विदेशी शक्तियों का दो फाड़ करते हुए, मुगलो का साथ लिया, ओर मुगल सेना की मदद से पठानों को कुचल डाला । गौरी से लेकर गजनवी ओर इब्राहिम लोदी तक के अत्याचारों का सारा बदला मानसिंहजी ने ले लिया ।
 
मानसिंह जी के कारण ही आज जगन्नाथ पुरी का मंदिर मस्जिद नही बना । उड़ीसा के पठान सुल्तान ने जगन्नाथ पुरी के मंदिर को ध्वस्त करके मस्जिद बनाने का प्रयास किया था, जब इसकी सूचना राजा मानसिंहजी को मिली, तब उन्होंने अपने स्पेशल कमांडो उड़ीसा भेजे, लेकिन विशाल सेना के कारण सभी वीरगति को प्राप्त हुए । उसके बाद राजा मानसिंह खुद उड़ीसा गए, ओर पठानों ओर उनके सहयोगी हिन्दू राजाओ को कुचलकर रख दिया ।। उसके बाद पठान वर्तमान बंगाल की ओर भाग गए । जगन्नाथ मंदिर की रक्षा हिन्दू इतिहास का सबसे स्वर्णिम इतिहास है । यह हिंदुओ के सबसे प्रमुख मंदिरों में से एक है ।। राजा मानसिंह जी महान कृष्ण भक्त थे, उन्होंने वृंदावन में सात मंजिला कृष्णजी ( गोविन्ददेव जी ) का मंदिर बनाया ।। बनारस के घाट, पटना के घाट, ओर हरिद्वार के घाटों का निर्माण आमेर नरेश मानसिंहजी ने ही करवाया था । जितने मंदिर मध्यकाल से पूर्व धर्मान्ध मुसलमानो ने तोड़े थे, वह सारे मंदिर मानसिंहजी ने बना दिये थे, लेकिन औरंगजेब के समय मुगलो का अत्याचार बढ़ गया था , ओर हिन्दू मंदिरों का भारी नुकसान हो गया ।{{citation needed|name=राजा मानसिंह की महान विजये}}
 
 
 
'''माई एडो पूत जण, जेडो मान मर्द'''
 
'''समंदर खांडो पखारियो, काबुल पाड़ी हद ।।'''
 
अर्थात :- कच्छवाहो ने समंदर पहली बार देखा था, ओर वहीं अपनी रक्त से भीगी तलवारे धोयीं । माता आपको धन्य है, जिन्होंने मानसिंहजी जैसा पुत्र पैदा किया ।। राजा मानसिंहजी की माता का नाम रानी भगवती बाई थी, ओर पिता का नाम श्रीभगवानदास जी था ।।
 
अफगानिस्तान के बच्चे मानसिंहजी के नाम से डर के सो जाते है, ओर हमारे यहां कवियों ने दोहे बना दिये :-
 
'''मात सुलावे बालकां , ख़ौफ़नाक रणगाथ'''
 
'''काबुल भूली नह अजे, यो खांडो ये हाथ'''
 
 
राजा मानसिंहजी केवल महान योद्धा ही नही थे, वरन् वह एक महान कवि भी थे।
 
 
'''दानवीर मानसिंह---'''
 
'''आपने नरसी मेहता''' की एक कथा सुनी होगी, वह महान कृष्ण भक्त थे, उनके पास जब भी धार्मिक कार्य के लिए धन की कमी होती, वह भगवान श्रीकृष्ण को याद करते, ओर श्रीकृष्ण को भी उनकी मदद करने आना ही पड़ता था --
 
खैर यह तो भगवान ओर भक्त के बीच की बात थी , लेकिन भारत के इतिहास में मानसिंह जैसे वीर योद्धा भी हुए है, जो स्वयं भी महान कृष्ण भक्त थे -- उन्होंने एक कवि का सम्मान किस तरह किया
 
जयपुर आमेर का घराना, महान कृष्ण भक्त है । वृंदावन से लेकर जयपुर तक उन्होंने अद्वितीय कृष्णमंदिरो का निर्माण करवाया है ---
 
सिद्धि श्री मानसिंहजी की कीर्ति विरुद्ध
 
मई तो लो लाज रहो जो लो भूमि चिर बेनी है ।।
 
राबरी कुशल हम सिसुन है, समेत चाहे धरी धरी
 
पलपल युहाउ सुचेनि है,
 
हुंडी एक तुमपे कही है, हजार को सो कविन
 
को राखो मानसिंहः जोग देनी है ।
 
पोहिए प्रमाण मानवंश में सपूत मान
 
रोक दीनी देन जसा लेते लिख लेनी है --
 
दानवीर आश्रयदाता श्रीमानसिंह जी , आपने संसार की सारी ख्याति प्राप्त की है, संसार मे ऐसा कोई नही, जो आपको ना जानता हो,  संसार के अंत तक आपकी ख्याति बनी रहेगी ।।  मैं आपके हर कार्य  के साथ-साथ आपके ओर आपके पुत्रो के भी कल्याण की कामना करता हूं।  यहाँ भी सब कुछ कुशल मंगल है ।   मैं आपको 1000 रुपये की हुंडी लिख रहा हूँ   कृपया कवि की गरिमा को बनाए रखें, जो आपके महान  राजवंश के योग्य है।
 
May the shreeman sinh , who the endowed with the fame and celebrity endure till the end of the world . I wish your well being as well as the well being your children every movement . Here too there is well being all the time . I send the cheque of rupee's one thousand into you . Do please preserve the dignity of the poet , which action is worthy scion of your dynasty . One need only write to you ,you bestow, countless fortunes of people peremptorily and earn great celebrity there by .
 
इसपर मानसिंहजी ने कवि बनकर  जवाब दिया --
 
'''इतमे हम महाराज है, उत्ते आप कविराज'''
 
'''हुंडी लिखत हजार की, लिखत ना आई लाज ?'''?
 
की जैसे हम महाराज है, हमारे आप कवियों के राजा है । हम दोनों ही अपने अपने राजा है, फिर एक राजा दूसरे राजा से मात्र 1000 रुपये मांगता है , इतनी छोटी राशि मांगते हुए कविराज को लज्जा नही आई ?
 
इतना कहकर मानसिंहजी ने एक करोड़ रुपया कवियों को दिया ।। तब कविओ के झुंड ने मानसिंहजी के लिए कहा -
 
रक्त की नदियां बहाने वाला, जो हमेशा युद्धरत रहता है, वह इतना दानी भी है , संसार मे आपका इतिहास स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा महाराज । आप स्वयं साधारण मनुष्य नही, गौरी की गोद मे बैठे, साक्षात गणेश ही है ।।
 
'''<small>मानसिंह एक प्रतापी राजा ही नही, महान दानी राजा थे, जैसे कोई चतुर्भुज अवतार हो, दो हाथों से युद्ध करना, ओर शेष दो हाथों से दान करना, यह कला जयपुर नरेश मानसिंहजी कच्छवाहा में थी । महाराज मानसिंहः जी आमेर महाधर्नुधर दिग्विजयी राजा थे । उनके स्मृतिचिन्ह इस संसार मे चिरकाल तक बने रहेंगे । दान, दासा, नरु, किशना, हरपाल, ईश्वरदास जैसे कवियों को उन्होंने एक एक करोड़ रुपया उस समय दान दिया था ।। उनके काल मे छापा चारण जैसे उनके दास 100-100 हाथियों के स्वामी हो गए थे । मान के गौदान की सम्पूर्ण संख्या 1 लाख थी ।।</small>'''
 
'''<big>।।आमेर रियासत ओर अकबर के बीच संधि के कारण।।</big>'''
 
कच्छवाहो की राजनीति भारत की सभी रियासतों से हटकर राजनीति थी, जहां से ओर अन्य रियासतों के लिए मुगल परेशानी का सबब बने हुए थे, तो वहीं दूसरी ओर कच्छवाह पठानों को हिन्दुत्व के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते थे, ओर यह कहीं ना कहीं सही भी था । कासिम के बाद जितने आक्रमण हुए, चाहे वह मूहम्मद गजनवी का करोड़ो हिंदुओ की हत्या कर 17 बार सोमनाथ समेत भारत को लूटना हो, या गजनवी के पिता सुबुक्तगीन द्वारा राजा जयपाल से अफगानिस्तान हड़पना हो । इन्ही पठानों के कारण भाटी जैसे वीर राजपूतो को अफगानिस्तान छोड़कर जैसलमेर आना पड़ा था । उसके बाद चाहे सालार मसूद गजनी हो, जिसके बारे में कहा जाता है की वह जहां से गुजरता था, हवाएं भी इस्लाम कबूल कर लेती थी, इसका अर्थ उसकी क्रुरता से लगाना उचित होगा, क्यो की वह जहां से भी गुजरता था, अपने क्रूरतम तरीके से वहां की पूरी आबादी को तलवार की नोक पर इस्लाम की दीक्षा देता हुआ चलता था। इसी सालार गजनी का वध बहराइच के राजा सुहेलदेव बैंस जी ने किया था । उसके बाद हम नजर डालें तो मूहम्मद गौरी भी एक पठान ही था , जिसके बाद गुलामवंश चला, कुतबुद्दीन ऐबक से लेकर नालंदा को जलाने वाला बख्तियार खिलजी पठान ही था, राणा रत्नंसिंह के समय चितोड़ का विध्वंस करने वाला अलाउद्दीन खिलजी भी पठान ही था, इस नरपिशाच के काल मे महारानी पद्मावती समेत 20,000 राजपूत स्त्रियो का जौहर हुआ था। मुगलो के आने से पहले पठानों ने भारत को पूरी तरह जकड़ लिया था । बिहार के सुल्तान, मालवा के सुल्तान , नागौर के सुल्तान यहां तक कि चित्तौड़ तक एक समय पठानों का कब्जा हो चुका था । यह पठान केवल हिंदुओ के शत्रु नही थे, दिल्ली की तख्त पर बैठा गैरपठान राजा भी इनका उतना ही बड़ा शत्रु था, आप इतिहास में देख सकते है, मुगल हिमायूँ से लड़ने वाला शेरशाह सूरी पठान ही था, ओर उसने अफगानिस्तान के पठानों से मदद लेने के लिए ही पेशावर से लकेर बिहार तक कि सड़क के मरम्मत का कार्य करवाया था । बाबर मुगल ने जिस मुस्लिम बादशाह का सिर धड़ से अलग कर भारत मे प्रवेश किया था, वह इब्राहिम लोदी भी पठान था। अतः इतिहास के पाठकों को यह समझना चाहिए की केवल हिंदुओ ओर मुसलमानो का नही, मुसलमानो का भी भारत की सत्ता के लिए आपसी अंतरयुद्ध चला है , मुगलो ओर पठानों का आपसी बैर इसका उदाहरण है ।। '''यह बात 1543 ईस्वी की है, जब शेरशाह सूरी मारवाड़ के राजा मालदेव को परास्त करने पूरी शक्ति से मारवाड़ की ओर''' बढ़ रहा था। मालदेव को बुरी तरह रौंदने शेरशाह सूरी विशाल टिड्डी दल के साथ मारवाड़ की ओर बढ़ रहा था। आमेर के सामने एक चिंता और भी थी, की अगर कहीं शेरशाह की सेना बीकानेर की तरफ बढ़ गयी, तो उस पूरे क्षेत्र का इस्लामीकरण होने से फिर कोई नही रोक सकता, क्यो की बीकानेर उस समय इतनी आबादी वाला क्षेत्र नही था, ओर युद्ध के पूरे संसाधन भी वहां नही थे, वहां नजर आजादी के समय बाद महाराजा गंगासिंहः जी अब लेकर आए है, वहां पानी की कितनी बड़ी समश्या उस समय थी । आमेर के गोपाल जी शेरशाह सूरी को रोकने के लिए चाटसू की ओर आगे बढ़े, आमेर के कच्छवाह योद्धाओं की संख्या शेरशाह के सैनिकों की तुलना में काफी ज्यादा कम थी, लेकिन कच्छवाहो ने शेरशाह की सेना का चारो तरफ से घेरकर उसका बड़ी बुरी तरह संघार किया । कच्छवाहो ने बिहारी मुसलमानो से सुसज्जित 4 -4 फुट के मुसलमानो की सेना को गाजर मूली की तरह इस तरह बधारा की शेरशाह मैदान छोड़कर भाग गया । आमेर के ऊपर से संकट टला सो टला, शेरशाह के इस नुकसान के बाद मालदेव ओर हिमायूँ भी बच गए। लगभग इसी चाटसु के युद्ध के बाद तय हो चुका था, की अगर मुसलमानो के आतंक से भारत को बचाना है, तो किसी ऐसे मुसलमान को भारत की सत्ता सौंपनी होगी, जो गैर पठान हो। इसके लिए हिमायूँ से बेहतर विकल्प ओर क्या हो सकता था ? हिमायूँ एक थर्ड क्लास आदमी, ओर एक नम्बर का बेवड़ा था । इसके अलावा वह व्यभिचारी भी था, ओर बड़ी बात यह थी, की वह समलैंगिक भी था । ऐसे चरित्रहीन ओर विलासी राजा के सत्ता के केंद्र में रहने से कच्छवाहो का काम इतना आसान हो जाता कि वह पर्दे के पीछे खुद शासन कर सकते थे । गोपाल जी के समय हिमायूँ और कच्छवाहो के बीच मित्रता की चर्चा शुरू हुई थी, कच्छवाहो के पास अपना अभिमान यह था कि उसने हिमायु के सबसे बड़े शत्रु शेरशाह को परास्त किया था, तो यहां पर बराबरी वाली मित्रता की बात थी, ना कि एक दूसरे की कोई अधीनता थी। आमेर नरेश पूरनमल जी के समय ही मुगल ओर आमेर रियासत के बीच मैत्री संधि हो गयी थी।
 
 
'''आमेर ओर मुगलो के बीच संधि अकबर से भी पूर्व अकबर के पिता हिमायु के समय ही हो चुकी थी, जिसकी शुरुआत गोपाल जी के समय मे हुई, ओर पूरणमल जी कच्छवाह के समय दोनो पक्षो की ओर से आधिकारिक संधि की घोषणा भी हो गयी ।'''
 
<br />
 
== मेवाड़ पर विजय==
जब अकबर के सेनापति मानसिंह [[सोलापुर जिला|शोलापुर]] [[महाराष्ट्र]] विजय करके लौट रहे थे, तो मानसिंह ने प्रताप से मिलने का विचार किया। प्रताप उस वक़्त कुम्भलगढ़ में थे। अपनी राज्यसीमा मेवाड़ के भीतर से गुजरने पर (किंचित अनिच्छापूर्वक) [[महाराणा प्रताप]] को उनके स्वागत का प्रबंध [[उदयपुर]] के उदयसागर की पाल पर करना पड़ा. स्वागत-सत्कार एवं परस्पर बातचीत के बाद भोजन का समय भी आया। महाराजा मानसिंह भोजन के लिए आये किन्तु महाराणा को न देख कर आश्चर्य में पड़ गये। उन्होंने महाराणा के पुत्र [[अमरसिंह]] से इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि 'महाराणा साहब के सिर में दर्द है, अतः वे भोजन पर आपका साथ देने में में असमर्थ हैं।'
मानसिंहजी को भारत की व्यापार क्षमता बढ़ाने के लिए गुजरात जाने के लिए मेवाड़ से मार्ग चाहिए था । लेकिन महाराणा प्रताप ने उन्हें रास्ता नही दिया, क्यो की मानसिंहजी अकबर के मित्र थे। अगर गुजरात जाने का मार्ग बंद रहता, तो भारत की आर्थिक उन्नति पर भी प्रभाव पड़ता, ओर गुजरात मे पठान लगातार प्रबल होते जाते । पठानों को दबाए रखने के लिए, ओर भारत के व्यापार को बढ़ाने के लिए, भारत की आर्थिक उन्नति के लिए मानसिंहजी को मेवाड़ से मार्ग चाहिए था । लेकिन जब बात नही बनी, तो हल्दीघाटी का युद्ध हुआ।  जिसमे मानसिंहजी की विजय हुई ।
 
== मानसिंह और रक्तरंजित हल्दीघाटी ==
21 जून 1576 के बीच हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया । इससे पहले चित्तौड़ ओर अकबर के बीच युद्ध 1567 ईस्वी में लड़ा गया । जिसमें अकबर ने बड़ा भारी विध्वंस चित्तौड़ में मचाया था । इस युद्ध के नुकसान को लेकर तमाम इतिहासकारो में तरह तरह की बातें है । इस युद्ध मे मेवाड़ के कम से कम 2 लाख मारे गए थे, 2 सेर जनेऊ अकबर ने वहां तोल दी थी, इससे कोई भी अनुमान लगा सकता है, की 1567 का युद्ध चित्तौड़ के लिए कितना विध्वंसकारी युद्ध था ।  1567ईस्वी के युद्ध मे 27 वर्षीय महाराणा प्रताप अपने 9 साल के पुत्र अमरसिंह के साथ अपने पिता के आदेशानुसार सुरक्षित स्थान पर चले गए ।।
 
चित्तौड़ के किले की जिम्मेदारी जयमल मेड़तिया ओर उनके 49,000 सैनिकों को सौंप दी गयी । उन सैनिकों में मात्र 1000 सैनिक ही जीवित बचे ।। प्रजा का भी भारी विध्वंस हुआ ।। हजारो स्त्रियो को जौहर हुए, हजारो की संख्या में स्त्रियो का अपहरण हुआ ।।
 
इसी कारण मानसिंहजी को महाराणा प्रताप के पास आना पड़ा, जिस समय हल्दीघाटी का युद्ध हुआ, उस समय मेवाड़ की गद्दी पर महाराणा प्रताप ही थे । मानसिंह दुबारा 1567 जैसा विनाश मेवाड़ में नही चाहते थे, क्यो की इससे हिन्दू सत्ता और नागरिकों को भारी हानि पहुंचती ।
 
मानसिंहजी ने महाराणा प्रताप को समझाया की " युद्ध केवल तलवारों से नही होता, बहुत बार श्रीकृष्ण की तरह रणछोड़ भी बनना पड़ता है । आपके आगे मुगल है, ओर पीछे पठान । ऐसी स्थिति में हम शत्रुओ को एक साथ नही निपट सकते । आपको मुगलो से संधि कर अपने नागरिकों ओर सेनिको की रक्षा करनी चाहिए । क्यो की अकबर के पास विशाल सेना है, अतः उससे लड़ना आपकी एक राजनीतिक ओर कूटनीतिक भूल ही होगी । क्यो की इससे 9 वर्ष पूर्व जब आप वर्तमान समय से ज़्यादा शक्तिशाली थे, तभी चित्तौड़ को नही बचा पाए थे, तो इस समय अकबर के सामने विजय की कोई संभावना नही है । आप प्रजा के भले के लिए संधि करें, ओर  उचित समय की प्रतीक्षा करें।। इससे पहले भी अति स्वाभिमान ओर वीरता के कारण राजपूत बहुत नुकसान उठा चुके है, यह समय युद्ध का नही, कूटनीति का है ।
 
लेकिन महाराणा प्रताप के मंत्रियों को लगा की मानसिंहजी अपना स्वार्थ साध रहे है। मंत्रियों से परामर्श के बाद महाराणा प्रताप ने संधि प्रस्ताव को ठुकरा दिया, ओर मानसिंहजी को सम्मानजनक तरीके से विदा किया ।। हालांकि कर्नल टॉड जैसे इतिहासकार लिखते है की राणा प्रताप ने मानसिंहजी का अपमान किया, लेकिन इन बातों में कोई सत्यता नही है , क्यो की कर्नल टॉड ने क्या वह युद्ध देखा था ? बिना किसी आधार के कर्नल टॉड ने यह बात लिख दी ।। कर्नल टॉड से पूर्व के किसी समकालीन इतिहासकार चाहे वह फारसी हो, या अरबी या अकबरनामा, या मुहणोत नेन्सी किसी मे महाराणा प्रताप द्वारा मानसिंहजी के अपमान की घटना का जिक्र नही है ।।
 
मानसिंहजी महाराणा प्रताप के यहां से चले गए, लेकिन उनके मन मे मेवाड़ के नागरिकों की चिंता ही थी । वह नही चाहते थे कि इन राजनीतिक युद्धो में जनता पिसी जाएं।  मानसिंहजी को दूसरी चिंता यह थी, की कहीं कोई मुगल सेनापति के नेतृत्व में हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया, तो मेवाड़ का पूर्ण विनाश निश्चित होगा । नागरिकों की हत्या होगी ।
 
अतः मानसिंहजी अपने छोटे भाई माधोसिंहजी के साथ स्वयं युद्ध के मैदान में उतरे ।
 
इस युद्ध मे माधोसिंहजी ने बड़ा जोरदार पराक्रम दिखाया।। इस युद्ध मे माधोसिंहजी के हाथों महाराणा प्रताप बुरी तरह घायल हो गए, झाला मानसिंह नाम के एक नामी मेवाड़ी सरदार ने महाराणा प्रताप को युद्ध से बाहर निकाला । महाराणा प्रताप के मैदान छोड़ते ही मेवाड़ी सेना के हौसले टूट गए, ओर मानसिंहजी इस युद्ध मे विजयी हुए ।
 
कुछ इतिहासकारों के अनुसार यही घटना [[हल्दीघाटी|हल्दी घाटी]] के युद्ध का कारण भी बनी। [[अकबर]] को [[महाराणा प्रताप]] के इस व्यवहार के कारण [[मेवाड़]] पर आक्रमण करने का एक और मौका मिल गया। सन 1576 ई. में 'राणा प्रताप को दण्ड देने' के अभियान पर नियत हुए।
माधोसिंहजी ओर मानसिंहजी दोनो ने महाराणा प्रताप को मैदान छोड़कर जाते देख लिया, लेकिन किसी ने उनका पीछा नही किया ।। मानसिंहजी में मुगल सैनिकों को मेवाड़ नही लूटने दिया ।। यह पहली बार हुआ, की मेवाड़ एक भीषण युद्ध के बाद भी बहुत ज़्यादा नुकसान नही उठाना पड़ा ।। हल्दीघाटी के युद्ध के बाद मानसिंहजी ने साबित कर दिया, की युद्धनीति ओर युद्ध के बाद महानता  में उनका कोई तोड़ नही है । मानसिंहजी एक दिव्य पुरूष की भांति मेवाड़ के लिए वरदान साबित हुए ।
मुगल सेना मेवाड़ की ओर उमड पड़ी। उसमें मुगल, राजपूत और पठान योद्धाओं के साथ अकबर का जबरदस्त तोपखाना भी था हालाकि पहाड़ी इलाकों में तोप काम ना आ सकी और युद्ध में तोपो की कोई भूमिका नहीं थी। अकबर के प्रसिद्ध सेनापति महावत खान, आसफ खान और महाराजा मानसिंह के साथ अकबर का शाहजादा सलीम उस मुगल सेना का संचालन कर रहे थे, जिसकी संख्या 5,000 से 10,000 के बीच थी। तीन घंटे के युद्ध के बाद मुगलो की आधी फौज मारी जा चुकी थी किन्तु प्रताप भी रणमैदान में घायल हो हुए तब उनके सेनापति झाला मन्ना ने उन्हें युद्धभूमि से सुरक्षित बाहर भेज। स्वयं युद्ध लड़ा। विजय होने के उपरांत मानसिंह ने पूरे मेवाड को मुगल साम्राज्य के अधीन करदिया था और प्रताप को अगले 4 वर्षों तक जंगल और पहाड़ों में जीवन जीना पड़ा था।
 
== मानसिंह और रक्तरंजित हल्दी घाटी ==
== विश्व विजेता मानसिंह ==
मानसिंहजी रावलपिंडी थे, जो पूरी तरह इस्लामिक बन चुका था ।। मानसिंहजी के पास सेना थी मात्र 3500 । कश्मीर से लेकर अफगानिस्तान, कज्जकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान , तुर्कीस्तान, उज्बेकिस्तान, ईरान के शाशक एक हो गए, ओर इनका इरादा था, भारत मे भयंकर लूटमार मचाना ।।
 
उस विशाल मुगल सेना का कड़ा मुकाबला राणा प्रताप ने अपने मुट्ठी भर (सिर्फ बीस-बाईस हजार) सैनिकों के साथ किया। हल्दी घाटी की पीली भूमि रक्तरंजित हो उठी। सन् 1576 ई. के 21 जून को गोगून्दा के पास [[हल्दीघाटी|हल्दी घाटी]] में प्रताप और मुग़ल सेना के बीच एक दिन के इस भयंकर संग्राम में सत्रह हज़ार सैनिक मारे गए। यहीं राणा प्रताप और मानसिंह का आमना-सामना होने पर दोनों के बीच विकट युद्ध हुआ (जैसा इस पृष्ठ में अंकित भारतीय पुरातत्व विभाग के शिलालेख से प्रकट है)- [[चेतक]] की पीठ पर सवार प्रताप ने अकबर के सेनापति मानसिंह के हाथी के मस्तक पर काले-नीले रंग के, अरबी नस्ल के अश्व [[चेतक]] के पाँव जमा दिए और अपने भाले से सीधा राजा मानसिंह पर एक प्रलयंकारी वार किया, पर तत्काल अपने हाथी के मज़बूत हौदे में चिपक कर नीचे बैठ जाने से इस युद्ध में उनकी जान बच गयी- हौदा प्रताप के दुर्घर्ष वार से बुरी तरह मुड़ गया। बाद में जब गंभीर घायल होने पर राणा प्रताप जब हल्दीघाटी की युद्धभूमि से दूर चले गए, तब राजा मानसिंह ने उनके महलों में पहुँच कर प्रताप के प्रसिद्ध हाथियों में से एक हाथी रामप्रसाद को दूसरी लूट के सामान के साथ आगरा-दरबार भेजा। ''परन्तु मानसिंह ने चित्तौडगढ के नगर को लूटने की आज्ञा नहीं दी थी, यह जान कर बादशाह अकबर इन पर काफी कुपित हुआ और कुछ वक़्त के लिए दरबार में इनके आने पर प्रतिबन्ध तक लगा दिया.''<ref>3. '''राजस्थान का इतिहास''' : कर्नल [[जेम्स टॉड]], साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर</ref>
इतनी बड़ी संख्या, ओर मानसिंहः जी के पास सैनिक केवल 3500 , बाद में कुछ सहायता अकबर की तरफ से गयी, क्यो की वह भी अफगानों से हारकर अपना राजपाठ गंवाना नही चाहता था, अय्याशी किस विदेशी आक्रांता को प्यारी नही है । यह घटना हल्दीघाटी युद्ध के मात्र 4 साल बाद कि घटना है ।।
 
'''जेम्स टॉड''' के शब्दों में- "जिन दिनों में अकबर भयानक रूप से बीमार हो कर अपने मरने की आशंका कर रहा था, मानसिंह खुसरो को मुग़ल सिंहासन पर बिठाने के लिए षड्यंत्रों का जाल बिछा दिया था।..उसकी यह चेष्टा दरबार में सब को ज्ञात हो गयी और वह बंगाल का शासक बना कर भेज दिया गया। उसके चले जाने के बाद खुसरो को कैद करके कारागार में रखा गया। मानसिंह चतुर और दूरदर्शी था। वह छिपे तौर पर खुसरो का समर्थन करता रहा. मानसिंह के अधिकार में बीस हज़ार राजपूतों की सेना थी। इसलिए बादशाह प्रकट रूप में उसके साथ शत्रुता नहीं की. कुछ इतिहासकारों ने लिखा है- "अकबर ने दस करोड़ रुपये दे कर मानसिंह को अपने अनुकूल बना लिया था।"<ref>4.'''राजस्थान का इतिहास''' : कर्नल [[जेम्स टॉड]], साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर</ref>
इस पूरे हमले को अकेले मानसिंहजी ने रौका था, एक भी अन्य राजपूत का सहयोग मानसिंहजी ने नही लिया । मानसिंहजी ने कश्मीर से लेकर , कैस्पियन सागर तक ( जिसमे ईरान, कज्जकिस्तान, अफगानिस्तान, कश्मीर, तुर्की, उज्बेकिस्तान , बलूचिस्तान ,आदि सभी क्षेत्र आ जाते है, जहां से कासिम से लेकर अल्लाउदीन खिलजी सब आये थे ) के प्रदेशो को कुचलकर रख दिया । उस समय यह सारा प्रदेश मात्र 5 रियासतों में बंटा था । इन्ही पांच रियासतों के झंडे उतारकर , मानसिंहजी ने भारत के गौरव की शान में इन पांच रियासतों के झंडे को मिलाकर जयपुर का " पंचरंगा ध्वज बनाया । इतना बड़ा काम करने वाला यह महापुरुष उस समय मात्र 30 साल का था ।।
 
== काबुल का शासक नियुक्त ==
अगर मानसिंहजी ने इस हमले को असफल ना किया होता, तो भारत मे एक भी हिन्दू का बचे रहना मुश्किल था ।
अकबर शासन में जब राजा भगवंतदास पंजाब के सूबेदार नियत हुए, तब सिंध के पार सीमांत प्रान्त का शासन उनके कुँवर मानसिंह को दिया गया। जब 30वें वर्ष में अकबर के सौतेले भाई मिर्ज़ा मुहम्मद हक़ीम की (जो कि काबुल का शासनकर्ता था) मृत्यु हो गई, तब मानसिंह ने आज्ञानुसार फुर्ती से काबुल पहुँच कर वहाँ के निवासियों को शासक के निधन के बाद उत्पन्न लूटपाट से निजात दिलवाई और उसके पुत्र मिर्ज़ा अफ़रासियाब और मिर्ज़ा कँकुवाद को राज्य के अन्य सरदारों के साथ ले कर वे दरबार में आए। अकबर ने सिंध नदी पर कुछ दिन ठहर कर कुँवर मानसिंह को काबुल का शासनकर्ता नियुक्त किया। इन्होंने बड़ी बहादुरी के साथ रूशानी लुटेरों को, जो विद्रोहपूर्वक खैबर के दर्रे को रोके हुए थे, का सफाया किया। जब राजा बीरबल स्वाद प्रान्त में यूसुफ़जई के युद्ध में मारे गए और जैनख़ाँ कोका और हक़ीम अबुल फ़तह दरबार में बुला लिए गए, तब यह कार्य मानसिंह को सौंपा गया। अफगानिस्तान में जाबुलिस्तान के शासन पर पहले पिता भगवंतदास नियुक्त हुए और बाद में पर उनके कुँअर मानसिंह।
 
== मानसिंह काल में आमेर की उन्नति ==