"राधेश्याम कथावाचक": अवतरणों में अंतर

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[[कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, लॉस एंजिल्स]] में हिन्दी की प्रोफेसर पामेला के अनुसार राधेश्याम कथावाचक ने [[हिन्दी|हिन्दी भाषा]] को एक विशिष्ट शैली की रामायण लिखकर काफी समृद्ध किया। वे इतने सधे हुए [[नाटककार]] थे कि उनके नाटकों पर प्रतिबन्ध लगाने का कोई आधार [[ब्रिटिश राज]] में अंग्रेजों को भी नहीं मिला।<ref name="हिन्दुस्तान लाइव">[http://www.livehindustan.com/news/location/rajwarkhabre/article1-story-0-0-190117.html हिन्दी दिवस 14 सितम्बर को: राधेश्याम कथावाचक] 13 दिसम्बर 2011, [[हिन्दुस्तान लाइव]], अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर 2013</ref>
 
सन् १९१४ में इन्होंने [[पारसी थिएटर|पारसी नाटक कंपनी]] ''न्यू एल्फ्रेड कम्पनी'' के लिए अपना प्रसिद्ध नाटक ''वीर अभिमन्यु'' लिखा। इस नाटक की ख्याति से व्यावसायिक कंपनियों का ध्यान सुरुचिपूर्ण पौराणिक नाटकों की ओर गया। अभी तक इनके रंगमंच पर प्रायः [[फारसी]] एवं [[अंग्रेजी]] प्रेमाख्यानों के आधार पर निर्मित कुरुचिपूर्ण नाटकों का ही अभिनय किया जाता था, जिनमें अशिष्ट एवं अश्लील हास्य सामग्री के साथ प्रेम के वासनाजनित बाजारू ढंग का ही चित्रण होता था। इन कंपनियों का उद्देश्य जनसाधारण की निम्नवृत्तियों को उभाड़करउभारकर धनोपार्जन करना था। राधेश्याम कथावाचक तथा [[नारायण प्रसाद बे'ताबबेताब']] जैसे लेखकों को ही यह श्रेय है कि इन्होंने सुरुचिपूर्ण आदर्शवादी हिन्दी पौराणिक नाटकों के द्वारा जनसाधारण को रुचि को परिष्कृत एवं परिमार्जित करने का प्रयास किया। कथावाचक जी ने इन कंपनियों के लिए लगभग एक दर्जन नाटक लिखे जिनमें ''श्रीकृष्णावंतारश्रीकृष्णावतार'', ''रुक्मिणीमंगल'', ''ईश्वरभक्ति'', ''द्रौपदी स्वयंवर'', ''परिवर्तन'' आदि नाटकों को रंगमंचीय दृष्टि से विशेष सफलता मिली। दूसरी पारसी कंपनी 'सूर विजय' के लिये लिखे हुए ''उषा अनिरुद्ध'' ने ''वीर अभिमन्यु'' नाटक के समान ही ख्याति प्राप्त की।
 
इन नाटकों में जनता के नैतिक स्तर को उठाने तथा रुचि का परिष्कार करने का प्रयास तो था परन्तु अन्य सब बातों में पारसी रंगमंचीय परम्पराओं का ही पालन किया गया था, जैसे घटना वैचित्र्ययुक्त रोमांचकारी दृश्यों का विधानन, पद्यप्रधान संवाद, लययुक्त गद्य तथा अतिनाटकीय प्रसंगों की योजना आदि प्रायः ज्यों की त्यों इनमें विद्यमान थी।