"अष्टांग योग": अवतरणों में अंतर

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अब मन की बहिर्मुखी गति निरुद्ध हो जाती है और अंतर्मुख होकर स्थिर होने की चेष्टा करता है। इसी चेष्टा की आरंभिक दशा का नाम धारणा है। देह के किसी अंग पर (जैसे हृदय में, नासिका के अग्रभाग पर) अथवा बाह्यपदार्थ पर (जैसे इष्टदेवता की मूर्ति आदि पर) चित्त को लगाना 'धारणा' कहलाता है (देशबन्धश्चितस्य धारणा; योगसूत्र 3.1)। ध्यान इसके आगे की दशा है। जब उस देशविशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप से प्रवाहित होता है, तब उसे 'ध्यान' कहते हैं। धारणा और ध्यान दोनों दशाओं में वृत्तिप्रवाह विद्यमान रहता है, परंतु अंतर यह है कि धारणा में एक वृत्ति से विरुद्ध वृत्ति का भी उदय होता है, परंतु ध्यान में सदृशवृत्ति का ही प्रवाह रहता है, विसदृश का नहीं। ध्यान की परिपक्वावस्था का नाम ही समाधि है। चित्त आलंबन के आकार में प्रतिभासित होता है, अपना स्वरूप शून्यवत्‌ हो जाता है और एकमात्र आलंबन ही प्रकाशित होता है। यही समाधि की दशा कहलाती है। अंतिम तीनों अंगों का सामूहिक नाम 'संयम' है जिसके जिसके जीतने का फल है विवेक ख्याति का आलोक या प्रकाश। समाधि के बाद प्रज्ञा का उदय होता है और यही योग का अंतिम लक्ष्य है।
 
==योग के अष्टांगों का परिचय==
=== यम ===
पांच सामाजिक नैतिकता
 
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(च) '''अपरिग्रह''' - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना
 
=== नियम ===
पाँच व्यक्तिगत नैतिकता
 
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(ड़) '''ईश्वर-प्रणिधान''' - ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए
 
=== आसन ===
:[[आसन|योगासनों]] द्वारा शरीरिक नियंत्रण
:आसन शरीर को साधने का तरीका है।
पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है (''स्थिरसुखमासनम् ॥४६॥'')।<ref>[https://archive.org/stream/yogaphilosophyb00tatygoog#page/n6/mode/2up The Yoga Philosophy] TR Tatya (Translator), with Bhojaraja commentary; Harvard University Archives; [https://archive.org/stream/yogadaranasutra00patagoog#page/n4/mode/2up The Yoga-darsana: The sutras of Patanjali with the Bhasya of Vyasa ]GN Jha (Translator), with notes; Harvard University Archives; The Yogasutras of Patanjali Charles Johnston (Translator)</ref> पतंजलि के [[योगसूत्र]] में ने आसनों के नाम नहीं गिनाए हैं। लेकिन परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन [[हठयोग]] का एक मुख्य विषय ही है। इनसे सम्बंधित ‘[[हठयोगप्रदीपिका]]’ ‘[[घेरण्ड संहिता]]’ तथा ‘[[योगशिखोपनिषत्‌|योगाशिखोपनिषद]]’ में विस्तार से वर्णन मिलता है।
 
=== प्राणायाम ===
{{मुख्य|प्राणायाम}}
 
योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।
श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण यानि प्राणो का विस्तार करना ही प्राणायाम कहलाता है
 
=== प्रत्याहार ===
इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना
महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है। प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है। अत:अतः चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं।
 
=== धारणा ===
मन को एकाग्रचित्त करके ध्येय विषय पर लगाना पड़ता है। किसी एक विषय का ध्यान में बनाए रखना।
 
=== ध्यान ===
{{मुख्य|ध्यान}}
 
किसी एक स्थान पर या वस्तूवस्तु पर निरंतरनिरन्तर मन स्थिर होना ही ध्यान हैहै। साथ ही साथ इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता है की हमारा मन ईश्वर के आतिरिक्त किसी और विचार पर जाने ना पाये.
जब ध्येय वस्तु का चिन्तन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।
 
=== समाधि ===
{{मुख्य|समाधि}}