"उत्तरकाण्ड": अवतरणों में अंतर

→‎संबंधित कड़ियाँ: संदर्भ श्रेणी बनाई है
टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन उन्नत मोबाइल संपादन
→‎इन्हें भी देखें: लेख की सफाई की
टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन उन्नत मोबाइल संपादन
पंक्ति 6:
विशेष:- मूल वाल्मिकी रामायण में उत्तर काण्ड नहीं है। केवल युद्ध काण्ड सहित छः काण्ड हैं। उत्तर काण्ड को बाद में जोड़ा गया है।
 
== इन्हें भी देखें ==
== संबंधित कड़ियाँ ==
* [[बालकाण्ड]]
* [[अयोध्याकाण्ड]]
पंक्ति 52:
# [http://wikisource.org/wiki/रामायण_युद्धकाण्ड वाल्मीकि रामायण - युद्धकाण्ड का मूल पाठ] (विकीस्रोत पर)
# [http://wikisource.org/wiki/रामायण_उत्तरकाण्ड वाल्मीकि रामायण - उत्तरकाण्ड का मूल पाठ] (विकीस्रोत पर)
{{साँचा:श्री राम चरित मानस}}बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर।
 
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर।।13ख।।
 
[काकभुशुण्डिजी कहते हैं-] हे गरुड़जी ! सुनिये, तब शिवजी वहाँ आये जहाँ श्रीरघुवीर जी थे और गद्गद वाणीसे स्तुति करने लगे। उनका शरीर पुलकावली से पूर्ण हो गया-।।13(ख)।।
 
छं.-जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहिं जनं।।
 
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो।।1।।
 
हे राम ! हे रमारणय (लक्ष्मीकान्त) ! हे जन्म-मरणके संतापका नाश करनेवाले! आपकी जय हो; आवागमनके भयसे व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिये। हे अवधिपति! हे देवताओं के स्वामी ! हे रमापति ! हे विभो ! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिये।।1।।
 
दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा।।
 
रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे।।2।।
 
हे दस सिर और बीस भुजाओंवाले रावणका विनाश करके पृथ्वीके सब महान् रोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्रीरामजी ! राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे, वे सब आपको बाणरूपी अग्नि के प्रचण्ड तेजसे भस्म हो गये।।2।।
 
महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।।
 
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी।।3।।
 
आप पृथ्वी मण्डल के अत्यन्त आभूषण हैं; आप श्रेष्ठ बाण, धनुश और तरकस धारण किये हुए हैं। महान् मद मोह और ममतारूपी रात्रिके अन्धकार समूहके नाश करनेके लिये आप सूर्य तेजोमय किरणसमूह हैं।।3।।
 
मनजात किरात निपातकिए। मृग लोक कुभोग सरेन हिए।।
 
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे।।4।।
 
कामदेवरूपी भीलने मनुष्यरूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाँण मारकर उन्हें गिरा दिया है। हे नाथ ! हे [पाप-तापका हरण करनेवाले] हरे ! उसे मारकर विषयरूपी वनमें भूले पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवोंकी रक्षा कीजिये।।4।।
 
बहुरोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंध्रि निरादर के फल ए।।
 
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते।।5।।
 
लोग बहुत-से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं। ये सब आपके चरणों के निरादर के फल हैं। जो मनुष्य आपके चरणकमलोंमें प्रेम नहीं करते, वे अथाह भव सागर में पड़े रहते हैं।।5।।
 
अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह कें पद पंकज प्रीति नहीं।।
 
अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें।।6।।
 
जिन्हें आपके चरणकमलोंमें प्रीति नहीं है, वे नित्य ही अत्यन्त दीन, मलीन (उदास) और दुखी रहते हैं। और जिन्हें आपकी लीला कथा का आधार है, उनको संत और भगवान् सदा प्रिय लगने लगते हैं।।6।।
 
नहिं राग न लोभ न मान मदा। तिन्ह कें सम बैभव वा बिषदा।।
 
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा।।7।।
 
उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ; न मन है, न मद। उनको सम्पत्ति (सुख) और विपत्ति (दुःख) समान है। इसीसे मुनि लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के लिये त्याग देते है और प्रसन्नताके साथ आपके सेवक बन जाते हैं।।7।।
 
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ।।
 
सम मानि निरादर आदरही। सब संत सुखी बिचरंति मही।।8।।
 
वे प्रेम पूर्वक नियम लेकर निरन्तर शुद्ध हृदय से आपके चरणकमलोंकी सेवा करते रहते हैं। और निरादर और आदरको समान मानकर वे सब संत सुखी होकर पृथ्वीपर विचरते हैं।।8।।
 
मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे।।
 
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी।।9।।
 
हे मुनियों के मनरूपी कमलके भ्रमर ! हे रघुबीर महान् रणधीर एवं अजेय श्रीरघुवीर ! मैं आपको भजता हूँ (आपकी शरण ग्रहण करता हूँ)। हे हरि ! आपका नाम जपता हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ। आप जन्म-मरणरूपी रोग की महान औषध और अभिमान के शत्रु हैं।।9।।
 
गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं।।
 
रघुनंद निकंदय द्वंद्वधनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं।।10।।
 
आप गुण, शील और कृपा के परम स्थान है। आप लक्ष्मीपति हैं, मैं आपको निरन्तर प्रणाम करता हूँ। हे रघुनन्दन ! [आप जन्म-मरण सुख-दुःख राग-द्वेषादि] द्वन्द्व समूहोंका नाश कीजिये। हे पृथ्वीकी पालना करनेवाले राजन् ! इस दीन जनकी ओर भी दृष्टि डालिये।।10।।
 
दो.-बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
 
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।।14क।
 
मैं आपसे बार-बार यही वरदान मांगता हूँ कि मुझे आपके चरणकमलोंकी अचलभक्ति और आपके भक्तोंका सत्संग सदा प्रात हो। हे लक्ष्मीपते ! हर्षित होकर मुझे यही दीजिये।
 
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।
 
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास।।14ख।।
 
श्रीरामचन्द्रजीके गुणों का वर्णन करके उमापति महादेवजी हर्षित होकर कैलासको चले गये, तब प्रभुने वानरोंको सब प्रकाश से सुख देनेवाले डेरे दिलवाये।।14(ख)।।
==संदर्भ==
{{आधार}}