"प्रतिरक्षा प्रणाली": अवतरणों में अंतर

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== सक्रिय प्रतिरक्षा ==
सक्रिय प्रतिरक्षा उत्पन्न करने के लिये रोगों के जीवाणुओं को शरीर में प्रविष्ट किया जाता है। किसी एक रोग के जीवाणुओं द्वारा केवल उसी रोग के विरुद्ध प्रतिरक्षा उत्पन्न होती है। प्रविष्ट करने से पूर्व जीवाणुओं की शक्ति और संख्या दोनों को इतना घटा दिया जाता है कि उससे जंतु को हानि न पहुँचे, अर्थात्‌ इतना भयंकर रोग न हो कि उसकी मृत्यु हो जाय। इस प्रथम मात्रा से जंतु को रोग का हलका सा आक्रमण होता है, किंतु उसके शरीर में उन जीवाणुओं का नाश करनेवाली वस्तुएँ बनने लगती हैं। जिन वस्तुओं को प्रविष्ट किया जाता है, वे प्रतिजन (antigen) कहलाती हैं और उनसे रक्त में प्रतिपिंड (antibody) बनते हैं। कुछ दिनों बाद जंतुओं की दूसरी मात्रा दी जाती है, जिसमें जीवाणुओं की संख्या पहले से दो गुनी या इससे भी अधिक होती है। जंतु इसको भी सहन कर लेता है। कुछ दिन बीतने पर फिर तीसरी मात्रा दी जाती है, जो दूसरी मात्रा से भी अधिक होती है। इससे भी जंतु कुछ ही दिन में उबर आता है। इसी प्रकार मात्रा को बराबर बढ़ाते जाते हैं जब तक कि जंतु प्रथम मात्रा से कई सौ गुनी अधिक मात्रा नहीं सहन कर लेता। इस समय तक जंतु के रक्त में बहुत बड़ी मात्रा में प्रतिपिंड बन चुकता है। अतएव जंतु पूर्णतया प्रतिरक्षित हो जाता है। रोगों के आक्रमण में भी यही होती है। शरीर में प्रतिपिंड बन जाते हैं। यही सक्रिय प्रतिरक्षा होती है। इसको उत्पन्न करने के लिये जीवाणओं के जिस विलयन को शरीर में प्रविष्ट किया जाता है उसको साधारणतया वैक्सीन कहते हैं। इस प्रकार की प्रतिरक्षा चिरस्थायी भी होती है। सकिय पतिरक्षिता का विकास एन्टीबाडी के निर्माण दारा किया जा सकता है
 
== निष्क्रिय प्रतिरक्षा ==