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==यहाँ कुछ लिख कर देखिये== क्या करें क्या न करें
यह एक बात है [[User:Hunnjazal|Hunnjazal]] ([[User talk:Hunnjazal|वार्ता]]) 16:54, 24 जुलाई 2011 (UTC)
:यह उस बात का जवाब है [[User:Hunnjazal|Hunnjazal]] ([[User talk:Hunnjazal|वार्ता]]) 16:54, 24 जुलाई 2011 (UTC)
::यह जवाब का जवाब है [[User:Hunnjazal|Hunnjazal]] ([[User talk:Hunnjazal|वार्ता]]) 16:54, 24 जुलाई 2011 (UTC)
 
== क्या करें, क्या न करें ==
 
बड़ी उलझन है. क्या करें, क्या न करें. क्या होगा यदि ऐसा करें या क्या होगा यदि न करें तो. यह एक सामान्य परिस्थिति है. मानव मस्तिष्क अनुपम है. इसीलिए मनुष्य को प्रकृति की अनुपम देन मानी जाती है.
अब एक एक पक्ष का विश्लेषण करते हैं.
 
क्या करें - मनुष्य कभी दिल से सोचता है कभी दिमाग़ से. निर्णय लेने के पूर्व उथल पुथल होती है. प्रश्न जटिल हो जाता है जब कहा जाता है कि दिल से सोचो. भला दिल से कैसे सोचा जा सकता है. यही भावनाओं की प्राथमिकता दिखाई देती है. दया, प्रेम, समर्पण, सहायता, सहयोग जैसी भावनाएँ ही जागृत होती है. फिर दिमाग़ के एक कोने में जो तर्क शक्ति छिपी होती है, वह गौण हो जाता है. सिर्फ़ भावनात्मक ऊर्जा ही कुछ करने के लिए प्रेरित करती है. हानि-लाभ आदि जैसे प्रभावकारी तत्व पीछे छूट जाते हैं. सवाल उठता है कि सही में लाभ होता है कि नहीं. संतोष, आत्मिक शांति,आत्मसम्मान अथवा ख़ुशी मिलना भी लाभ का एक प्रकार हो सकता है. सभी मनीषियों, आध्यात्मिक महापुरुषों, सँतो, महात्माओं ने इस पर विशद संदेश दिया है. समझाने का तरीक़ा अलग हो पर लब्बोलुआब यही है की मानवता के निश्चल गुणों का संरक्षण ही दिल से सोचना है और इस पर अमल करना ही सेवा है.
 
अब बात आती है दिमाग़ से सोचने की. मानव मस्तिष्क तर्क शक्ति से पूर्ण होती है. इसी स्थिति में अपने सापेक्ष लाभ या हानि की गणना और उसे तर्क की कसौटी पर कस कर निर्णय लेने की क्षमता ही दिमाग़ से सोचना कहा जा सकता है. यहाँ पर यदि दिल से लिए निर्णय को तर्क की कसौटी पर कसा जाय तो यह सौदा निश्चित रूप से घाटा का ही होता है. यहाँ भावनाओं का स्थान नहीं है. दोनों दशा में विवेक की महत्ता ज़ाहिर होती है परंतु दिमाग़ से सोचने की दशा में यह तक़रीबन अधिक जागृत होता है.
 
क्या न करें - ऊपर के आलेख से लगता है रास्ता तो मिल गया. लेकिन स्पष्टता के लिए इसका भी विवेचन ज़रुरी है. यह पक्ष स्पष्ट रूप से नकारात्मक है. अब यह विमर्श की बात हो सकती है कि दिल और दिमाग़ दोनों में से कौन सा निर्णय न लें अथवा उस पर अमल न करें. यहाँ भी पुनः उलझन की स्थिति आती है. किसे स्वीकारे किसे नकारें. तो समाधान क्या है? इसी स्थिति से उबरने में स्व-विवेक का सहारा ही एकमात्र विकल्प शेष बचता है.
 
क्या करें क्या न करें, इसका निर्णय भी मानसिक उलझन को समाप्त कर सकता है बशर्ते इसके विश्लेषण एवं कार्यान्वयन में दिल और दिमाग़ दोनों का उपयोग किया जाय.
 
धन्यवाद
[[सदस्य:हरिहर सिन्हा|हरिहर सिन्हा]] ([[सदस्य वार्ता:हरिहर सिन्हा|वार्ता]]) 07:55, 19 मई 2020 (UTC)
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