"गौरीदत्त": अवतरणों में अंतर

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पंडित गौरीदत्त का जन्म [[पंजाब क्षेत्र|पंजाब]] प्रदेश के [[लुधियाना]] नामक नगर में सन् 1836 में हुआ था। आपके पिता पंडित नाथू मिश्र प्रसिद्ध तांत्रिक और सारस्वत ब्राह्मण थे। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा साधारण ही हुई थी। केवल पंडिताई का कार्य करने तक ही वह सीमित थी। जब आपकी आयु केवल 5 वर्ष की ही थी तब आपके घर एक संन्यासी आया और आपके पिताजी को उसने ऐसा ज्ञान दिया कि वे सब माया-मोह त्यागकर घर से निकल गए। आपकी माताजी अपने दोनों बच्चों को लेकर [[मेरठ]] चली आई थीं। मेरठ आकर गौरीदत्त जी ने अपने अध्ययन को आगे बढ़ाया। [[रूड़की]] के [[इंजीनियरिंग कालेज]] से [[बीजगणित]], [[रेखागणित]], [[सर्वेक्षण|सर्वेइंग]], [[ड्राइंग]] और [[शिल्पकर्म|शिल्प]] आदि की शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त आपने फारसी और अंग्रेजी का भी विधिवत् ज्ञान अर्जित किया। वैद्यक और हकीमी की दिशा में भी आपने अपनी योग्यता से उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की थी।
 
जब आप मेरठ के मिशन स्कूल में अध्यापक थे तब महर्षि [[दयानन्द सरस्वती|स्वामी दयानन्द सरस्वती]] [[मेरठ]] पधारे थे। मुंशी लेखराज के बगीचे में स्वामीजी ने अपने भाषणों में एकाधिक बार इस बात के लिए बहुत खेद व्यक्त किया था कि देशवासी हिंदी और देवनागरी को त्यागकर उर्दू-फारसी और अंग्रेजी के दास होते जा रहे हैं। स्वामी जी के इन भाषणों का युवक गौरीदत्त पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा और आपने उसी समय से देवनागरी के प्रचार और प्रसार का संकल्प कर लिया। स्वामी दयानन्द सरस्वती क्योंकि अपने भाषणों में राष्ट्रीयता का प्रचार भी किया करते थे, अतः अंग्रेज सरकार आपको राजद्रोही मानती थी। जब मिशन स्कूल के अधिकारियों को यह पता चला कि गौरीदत्त जी स्वामी जी के भाषणों को तन्मयतापूर्वक सुनते हैं और उनके प्रति श्रद्धा भी प्रदर्शित करते हैं तो उन्होंने गौरीदत्त जी से इस पर अपनी नाराजगी प्रकट की। युवक गौरीदत्त पर स्कूल के अधिकारियों की इस घटना का यह प्रभाव पड़ा कि आपने अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए स्कूल से तुरन्त त्यागपत्र दे दिया और दूसरे ही दिन मेरठ ‘वैदवाड़ा‘ नामक मुहल्ले के एक चबूतरे पर ‘देवनागरी पाठशाला‘ की स्थापना कर दी। आपकी ये ही पाठशाला कालान्तर में ‘[httphttps://wwwweb.archive.org/web/20190419050730/http://dncollege.org/ देवनागरी कालेज]‘ का रूप धारण कर गई।
 
आपका निधन 8 फ़रवरी सन् 1906 को हुआ था।
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== हिन्दी के प्रथम उपन्यास के रचयिता ==
पंडित गौरीदत्त ने जहां देवनागरी लिपि के प्रचार तथा प्रसार के लिए इतने ग्रन्थ लिखे और अनेक पत्र-पत्रिकाएं सम्पादित कीं वहां अपने सन १८७० में ''''देवरानी जेठानी की कहानी'''' नामक एक [[उपन्यास]] भी लिखा।<ref>[https://books.google.co.in/books?id=JjQEDAAAQBAJ&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false पुरखों के कोठार, पृष्ट १५२] {{Webarchive|url=https://web.archive.org/web/20180510185306/https://books.google.co.in/books?id=JjQEDAAAQBAJ&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false |date=10 मई 2018 }} ( लेखक - भारत यायावर )</ref> यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि [[भारतेन्दु हरिश्चंद्र|भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र]] ने हिन्दी गद्य-लेखन सन् 1873 में प्रारंभ किया था। पंडित गौरीदत्त के इस उपन्यास का प्रकाशन सन् 1870 में हुआ था। इससे पूर्व हिन्दी-गद्य में सैयद [[इंशा अल्ला खां]] की ‘[[रानी केतकी की कहानी]]‘ (सन् 1800 के आस-पास) नामक पुस्तक ही थी। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि हिन्दी का पहला उपन्यास ‘[[देवरानी जेठानी की कहानी]]‘ ही है। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हिन्दी के इतिहासकारों के अग्रणी आचार्य [[रामचन्द्र शुक्ल]] तक ने इसकी उपेक्षा करके पंडित [[श्रद्धाराम शर्मा|श्रद्धाराम फिल्लौरी]] की ‘[[भाग्यवती उपन्यास|भाग्यवती]]‘ (प्रकाशन-वर्ष सन् 1877) [[लाला श्रीनिवास|लाला श्रीनिवासदास]] की ‘[[परीक्षा गुरु]]‘ (प्रकाशन-वर्ष सन् 1882) नामक पुस्तकों को अपने ‘हिंदी साहित्य की इतिहास‘ नामक ग्रन्थ में क्रमशः ‘हिन्दी का पहला सामाजिक उपन्यास' और ‘अंग्रेजी ढंग का पहला हिन्दी उपन्यास‘ माना है। इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि इस उपन्यास के प्रकाशन पर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर ने ‘सौ रुपए‘ का पुरस्कार भी प्रदान किया था। आपके द्वारा अनूदित ‘गिरिजा‘ (1904) नामक एक और उपन्यास भी उल्लेखनीय है।
 
पंडित गौरीदत्त जी जहां अच्छे गद्य-लेखक थे वहां [[खड़ीबोली|खड़ी बोली]] कविता के क्षेत्र में भी आपकी प्रतिभा अद्भुत थी। इसका सुपुष्ट प्रमाण आपके ‘देवरानी जेठानी की कहानी‘ नामक उपन्यास की भूमिका के अन्त में दिए गए उस पद्य से मिल जाता है जो आपने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर द्वारा पुरस्कार प्राप्त होने पर लिखा थाः