"नाना साहेब": अवतरणों में अंतर

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|image = Nana Sahib, watercolour on ivory, c. 1857.png
|caption = नाना साहिब, का एक लघु चित्र{{circa|1857}}.<ref>{{cite web|title=Nana Sahib, Rani of Jhansi, Koer Singh and Baji Bai of Gwalior, 1857, National Army Museum, London|url=https://collection.nam.ac.uk/detail.php?acc=1959-11-372-1 | website=collection.nam.ac.uk|accessdate=17 October 2017|language=en|archive-url=https://web.archive.org/web/20171017185827/https://collection.nam.ac.uk/detail.php?acc=1959-11-372-1|archive-date=17 अक्तूबर 2017|url-status=live}}</ref>
|birth_date = 19 मई 1824
|birth_place =बिठूर
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28 जनवरी सन् 1851 को पेशवा का स्वर्गवास हो गया। नानाराव ने बड़ी शान के साथ पेशवा का अंतिम संस्कार किया। दिवंगत पेशवा के उत्तराधिकार का प्रश्न उठा। कंपनी के शासन ने [[बिठूर]] स्थित कमिश्नर को यह आदेश दिया कि वह नानाराव को यह सूचना दे कि शासन ने उन्हें केवल पेशवाई धन संपत्ति का ही उत्तराधिकारी माना है न कि पेशवा की उपाधि का या उससे संलग्न राजनैतिक व व्यक्तिगत सुविधाओं का। एतदर्थ पेशवा की गद्दी प्राप्त करने के सम्बंध में व कोई समारोह या प्रदर्शन न करें। परंतु महत्वाकांक्षी नानाराव ने सारी संपत्ति को अपने हाथ में लेकर पेशवा के शस्त्रागार पर भी अधिकार कर लिया। थोड़े ही दिनों में नानाराव ने पेशवा की सभी उपाधियों को धारण कर लिया। तुरंत ही उन्होंने ब्रिटिश सरकार को आवेदनपत्र दिया और पेशवाई पेंशन के चालू कराने की न्यायोचित माँग की। साथ ही उन्होंने अपने वकील के साथ खरीता आदि भी भेजा जो कानपुर के कलेक्टर ने वापस कर दिया तथा उन्हें सूचित कराया कि सरकार उनकी पेशवाई उपाधियों को स्वीकार नहीं करती। नानाराव धुंधूपन्त को इससे बड़ा कष्ट हुआ क्योंकि उन्हें अनेक आश्रितों का भरण पोषण करना था। नाना साहब ने पेंशन पाने के लिए लार्ड डलहौजी से लिखापढ़ी की, किंतु जब उसने भी इन्कार कर दिया तो उन्होंने [[अजीमुल्ला खाँ]] को अपना वकील नियुक्त कर [[महारानी विक्टोरिया]] के पास भेजा। अजीमुल्ला ने अनेक प्रयत्न किए पर असफल रहे। लौटते समय उन्होंने [[फ्रांस]], [[इटली]] तथा [[रूस]] आदि की यात्रा की। वापस आकर अजीमुल्ला ने नाना साहब को अपनी विफलता, अंग्रेजों की वास्तविक परिस्थिति तथा [[यूरोप]] के स्वाधीनता आंदोलनों का ज्ञान कराया।
 
नानाराव धूंधूपंत को अंग्रेज सरकार के रुख से बड़ा कष्ट हुआ। वे चुप बैठनेवाले न थे। उन्होंने इसी समय तीर्थयात्रा प्रारंभ की। नाना साहब का इस उमर में तीर्थयात्रा पर निकलना कुछ रहस्यात्मक सा जान पड़ता है। सन् 1857 में वह [[काल्पी]], [[दिल्ली]] तथा [[लखनऊ]] गए। काल्पी में आपने बिहार के प्रसिद्ध [[कुँवर सिंह]] से भेंट की और भावी क्रांति की कल्पना की। जब [[मेरठ]] में क्रांति का श्रीगणेश हुआ तो नाना साहब ने बड़ी वीरता और दक्षता से क्रांति की सेनाओं का कभी गुप्त रूप से और कभी प्रकट रूप से नेतृत्व किया। क्रांति प्रारंभ होते ही उनके अनुयायियों ने अंग्रेजी खजाने से साढ़े आठ लाख रुपया और कुछ युद्धसामग्री प्राप्त की। कानपुर के अंग्रेज एक गढ़ में कैद हो गए और क्रांतिकारियों ने वहाँ पर भारतीय ध्वजा फहराई। सभी क्रांतिकारी दिल्ली जाने को कानपुर में एकत्र हुए। नाना साहब ने उनका नेतृत्व किया और दिल्ली जाने से उन्हें रोक लिया क्योंकि वहाँ जाकर वे और खतरा ही मोल लेते। कल्यानपुर से ही नाना साहब ने युद्ध की घोषणा की। अपने सैनिकों का उन्होंने कई टुकड़ियों में बाँटा। अंग्रेजों से बराबर लड़ाई लड़ने के बाद उन्होंने अंग्रेजों को हारने के लिए मजबूर कर दिया और अंत में उन्होंने अंग्रेजों के पास एक पत्र भेजकर उनसे वापस इलाहाबाद जाने का वादा अलाहाबाद सुरक्षित भेजने का वादा किया जिसमें अंग्रेज इस बात को जनरल टू व्हीलर ने मान लिया और उन सबको सचिन चौरा घाट पर नाव पर बैठने के लिए उन्होंने कई सारी वोटों का इंतजाम भी किया।जब सब अंग्रेज कानपुर के सतीचौरा घाट से नावों पर जा रहे थे तो क्रांतिकारियों ने उनपर गोलियाँ चलाईं और उनमें से बहुत से मारे गए। अंग्रेज इतिहासकार इसके लिए नाना के ही दोषी मानते हैं परंतु उसके पक्ष में यथेष्ट प्रमाण नहीं मिलता।बाद में इलाहाबाद से बढ़ती हुई सेना ने वापस कानपुर पर अपना कब्जा जमा लिया सती चौरा घाट पर जो गोलियां चली थी उसके बाद उसने जितनी भी औरतें होती थी उनको सबको वीबी घर में कैद कर लिया गया बाद में इलाहाबाद से अंग्रेजों की सेना चल पड़ी और नाना साहेब ने उनकी हार हो गई या फिर किसी और ने 200 महिलाओं को खतम कर दिया गया और इसका प्रमाण नहीं मिलता किसी और ने कुछ लोगों का कहना है कि यह बात उनहोने नही कही थी इसके बाद पता चला कि वहां से भाग निकले और बिठुर को तहस नहस कर दिया गया और वे नेपाल चले गये वहां पर वहां के प्रधानमंत्री की सुरक्षा में ही रहे और लोगों का मानना है वह जहां 1902 में उनकी मृत्यु हुई परंतु कुछ लोग उनका संबंध सीहोर से भी मानते हैं और उनकी मृत्यु हुई।.<ref name="IT2004">{{cite web | title=1857 revolt hero Nanasaheb Peshwa's life remains a mystery | website=India Today | date=26 January 2004 | url=http://m.indiatoday.in/story/1857-revolt-hero-nanasaheb-peshwa-life-remains-mystery/1/196859.html | accessdate=15 January 2015 | archive-url=https://web.archive.org/web/20150116000532/http://m.indiatoday.in/story/1857-revolt-hero-nanasaheb-peshwa-life-remains-mystery/1/196859.html | archive-date=16 जनवरी 2015 | url-status=live }}</ref>
 
1 जुलाई 1857 को जब [[कानपुर]] से अंग्रेजों ने प्रस्थान किया तो नाना साहब ने पूर्ण् स्वतंत्रता की घोषणा की तथा पेशवा की उपाधि भी धारण की। नाना साहब का अदम्य साहस कभी भी कम नहीं हुआ और उन्होंने क्रांतिकारी सेनाओं का बराबर नेतृत्व किया। [[फतेहपुर]] तथा आंग आदि के स्थानों में नाना के दल से और अंग्रेजों में भीषण युद्ध हुए। कभी क्रांतिकारी जीते तो कभी अंग्रेज। तथापि अंग्रेज बढ़ते आ रहे थे। इसके अनंतर नाना साहब ने अंग्रेजों सेनाओं को बढ़ते देख नाना साहब ने [[गंगा नदी]] पार की और [[लखनऊ]] को प्रस्थान किया। नाना साहब एक बार फिर कानपूर लौटे और वहाँ आकर उन्होंने अंग्रेजी सेना ने कानपुर व लखनऊ के बीच के मार्ग को अपने अधिकार में कर लिया तो नाना साहब अवध छोड़कर [[रोहिलखंड|रुहेलखंड]] की ओर चले गए। रुहेलखंड पहुँचकर उन्होंने खान बहादुर खान् को अपना सहयोग दिया। अब तक अंग्रेजों ने यह समझ लिया था कि जब तक नाना साहब पकड़े नहीं जाते, विप्लव नहीं दबाया जा सकता। जब [[बरेली]] में भी क्रांतिकारियों की हार हुई तब नाना साहब ने [[महाराणा प्रताप]] की भाँति अनेक कष्ट सहे परंतु उन्होंने फिरंगियों और उनके मित्रों के संमुख आत्मसमर्पण नहीं। अंग्रेज सरकार ने नाना साहब को पकड़वाने के निमित्त बड़े बड़े इनाम घोषित किए किंतु वे निष्फल रहे। सचमुच नाना साहब का त्याग एवं स्वातंत्र्य, उनकी वीरता और सैनिक योग्यता उन्हें भारतीय इतिहास के एक प्रमुख व्यक्ति के आसन पर बिठा देती है।<ref name="britishempire">{{cite web |url=http://www.britishempire.co.uk/forces/armycampaigns/indiancampaigns/mutiny/cawnpore.htm |title=British Empire: Forces: Campaigns: Indian Mutiny, 1857 - 58: The Siege of Cawnpore |publisher=britishempire.co.uk |accessdate=6 April 2015 |archive-url=https://www.webcitation.org/6BEQXUPPi?url=http://www.britishempire.co.uk/forces/armycampaigns/indiancampaigns/mutiny/cawnpore.htm |archive-date=7 अक्तूबर 2012 |url-status=live }}</ref>.<ref>{{cite book
| last = Brock
| first = William