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रवांडा नरसंहार तुत्सी और हुतु समुदाय के लोगों के बीच हुआ एक जातीय संघर्ष था। 1994 में 6 अप्रैल को किगली में हवाई जहाज पर बोर्डिंग के दौरान रवांडा के राष्ट्रपति हेबिअरिमाना और बुरुन्डियान के राष्ट्रपति सिप्रेन की हत्या कर दी गई, जिसके बाद ये संहार शुरू हुआ। करीब 100 दिनों तक चले इस नरसंहार में 5 लाख से लेकर दस लाख लोग मारे गए। तब ये संख्या पूरे देश की आबादी के करीब 20 फीसदी के बराबर थी।<ref>{{Cite web |url=http://www.bhaskar.com/article/INT-20-years-of-the-rwanda-genocide-4571462-PHO.html |title=संग्रहीत प्रति |access-date=6 अप्रैल 2014 |archive-url=https://web.archive.org/web/20140406102833/http://www.bhaskar.com/article/INT-20-years-of-the-rwanda-genocide-4571462-PHO.html |archive-date=6 अप्रैल 2014 |url-status=live }}</ref>
इस संघर्ष की नींव खुद नहीं पड़ी थी, बल्कि ये रवांडा की [[हुतू]] जाति के प्रभाव वाली सरकार जिसने इस जनसंहार को प्रायोजित किया था। इस सरकार का मकसद विरोधी तुत्सी आबादी का देश से सफाया था। इसमें ना सिर्फ तुत्सी लोगों का कत्ल किया गया, बल्कि तुत्सी समुदाय के लोगों के साथ जरा सी भी सहानुभूति दिखाने वाले लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया।
नरसंहार को सफल बनाने वालों में रवांडा सेना के अधिकारी, पुलिस विभाग, सरकार समर्थित लोग, उग्रवादी संगठन और हुतु समुदाय के लोग शामिल थे। हुतु और तुत्स समुदाय में लंबे समय से चली आ रही आला दर्जे की दुश्मनी एक बड़ी वजह थी।<ref>{{Cite web |url=http://www.bhaskar.com/article/INT-20-years-of-the-rwanda-genocide-4571462-PHO.html |title=संग्रहीत प्रति |access-date=6 अप्रैल 2014 |archive-url=https://web.archive.org/web/20140406102833/http://www.bhaskar.com/article/INT-20-years-of-the-rwanda-genocide-4571462-PHO.html |archive-date=6 अप्रैल 2014 |url-status=live }}</ref>
जुलाई के मध्य में इस संहार पर काबू पाया गया। हालांकि, हत्या और बलात्कार की इन वीभत्स घटनाओं ने अफ्रीका की आबादी के बड़े हिस्से के लोगों को बुरी तरह प्रभावित किया है, इस घटना का असर लोगों के दिलो दिमाम पर आज भी बरकरार है।
इस संहार के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका, ब्रिटेन, बेल्जियम समेत तमाम देशों को उनकी निष्क्रियता के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा। संयुक्त राष्ट्र यहां शांति स्थापना करने में नाकाम रहा। वहीं, पर्यवेक्षकों ने इस नरसंहार को समर्थन देने वाली फ्रांस की सरकार की भी जमकर आलोचना की। [[मानवाधिकार]] की पैरोकार अधिकांश पश्चिमी देश इस पूरे मसले को खामोशी से देखते रहे। आधुनिक शोध इस बात पर बल देते हैं सामान्य जातीय तनाव इस [[नरसंहार]] की वजह न देकर इसकी वजह युरोपीय [[उपनिवेशवादी]] देशों अपने स्वार्थों के लिये [[हुतू]] और [[तुत्सी]] लोगों को कृत्रिम रूप से विभाजित किया जाना है।<ref>{{Cite web |url=http://www.bhaskar.com/article/INT-20-years-of-the-rwanda-genocide-4571462-PHO.html |title=संग्रहीत प्रति |access-date=6 अप्रैल 2014 |archive-url=https://web.archive.org/web/20140406102833/http://www.bhaskar.com/article/INT-20-years-of-the-rwanda-genocide-4571462-PHO.html |archive-date=6 अप्रैल 2014 |url-status=live }}</ref>
 
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