"मौलवी लियाक़त अली": अवतरणों में अंतर

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दस दिन का बादशाह *
मौलवी लियाकत अली का जन्म 1817 ई• में उत्तर प्रदेश के ज़िला प्रयागराज (अब कौशाम्बी) के महगांव में हुआ था।महगांव इलाहाबाद से 25 किलोमीटर दूर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 2 पर स्थित है, लियाकत अली के पिता का नाम मेहर अली खान था,लियाकत अली के चाचा दायम अली फौज में थे और निःसंतान थे, उन्होंने बचपन में ही लियाकत को गोद ले लिया था,मदरसे से इस्लामिक रीति रिवाज़ो के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने के बाद लियाकत अली पेश ए इमाम हो गए,बाद में मदरसों में पढाने का काम भी उन्होंने किया l
जंग ए आजादी में कूदने से पहले उन्होंने शहर के विभिन्न क्षेत्रों में घूम घूम कर युवाओं को बर्तानिया हुकूमत के खिलाफ विद्रोह हेतु प्रेरित किया,6जून को जब किले में सैनिकों ने अपने अधिकारियों के खिलाफ मोर्चाबंदी की तो शहर के पश्चिमी भाग का नेतृत्व उन्होंने सम्हाला,अंग्रेजों का किले से अधिकार समाप्त होने की खुशी में अगले दिन क्रांतिकारियों ने हरे झंडे का जुलूस निकाला और अवध के नवाब विरजिस कद्र तथा सम्राट बहादुर शाह का हुक्मनामा सुनाया जिसमे मौलवी लियाकत अली को प्रयाग का सूबेदार नियुक्त किया गया था l
सत्ता हाथ मे आते ही लियाकत अली ने विभिन्न तहसीलों में अपने आदमियों की नियुक्ति कर अपनी ताकत को बढ़ाना शुरू किया,किला पूरी तरह कब्जे में नही आया था इसलिए खुसरो बाग मुख्यालय बनाया गया, मौलवी लियाकत अली ने इसी मुख्यालय से एक आदेश जारी कर सुखराय को चायल सदर का तहसीलदार नियुक्त किया,(यह दफ्तर तब घण्टाघर के पीछे हुआ करता था बाद में यहाँ चुंगी घर बना,मेरे बचपन मे यह भवन था जिसे तोड़ कर आधुनिक मार्केट बनाया गया) नियामत अली,कासिम अली,अशरफुद्दीन को दरोगा तथा शियाफुद्दीन को नायब नियुक्त किया गया, फैजुल्ला खान को सैन्य अधिकारी नियुक्त किया गया
लियाकत अली शीघ्र ही किले पर अधिकार कर लेना चाहते थे,इसकी रूपरेखा भी तैयार कर ली गयी थी किन्तु इसी बीच कर्नल नील बड़ी सेना लेकर प्रयाग पहुँच गया,लियाकत के सैनिकों ने किले पर हमला किया किन्तु असलहा लूटने में ही कामयाब हो सके,नील की बड़ी फौज के सामने विद्रोहियों को भागना पड़ा,किले में रखा तीस लाख का खजाना इनके हाथ पहले ही लग चुका था
17 जून को ख़ुसरोबाग पर कर्नल नील ने आक्रमण किया,जम कर युद्ध हुआ किन्तु विद्रोही टिक न पाये,लियाकत अली अपने सैनिकों के साथ कानपुर की ओर चल दिये, फतेहपुर में उनकी मुठभेड़ प्रयाग की ओर आ रही कर्नल हैवलॉक की सेना से हुई लियाकत अली के सैनिकों ने जम कर लोहा लिया ,हैवलॉक के सैनिक छिन्न भिन्न हो गए, कानपुर में विद्रोह का नेतृत्व नाना साहब कर रहे थे,लियाकत अली ने नाना साहब का साथ देते हुए युद्ध का नेतृत्व किया,किन्तु पराजय का मुँह देखना पड़ा,
कानपुर से भाग कर लियाकत अली मुम्बई में वेष बदल कर रहने लगे।उन पर ब्रितानी सरकार ने 5000 रुपये का इनाम घोषित कर रखा था,लगभग 14 वर्ष तक गुमनामी में रहे इस क्रांतिकारी को सितम्बर 1871 में मुम्बई में एक मुखबिर ने पहचान लिया,1873 में उनको आजीवन कारावास की सजा हुई और अंडमान जेल भेज दिया गया,17 मार्च 1881 को बन्दी रहते हुए उनकी मृत्यु हुई, उनको कालापानी में ही दफनाया गया।
लियाकत अली की एक मात्र पुत्री चाँद बीवी थी जिनका विवाह नही हुआ था,
उनकी मृत्यु 1929 में हुई ,कहा जाता है उनकी चौथी- पांचवी पीढ़ी के वंशज चौक क्षेत्र में रह रहे हैं
दिनेश श्रीवास्तव
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