"कर्ण": अवतरणों में अंतर

→‎अर्जुन से तुलना: छोटा सा सुधार किया।, व्याकरण में सुधार, कड़ियाँ लगाई, कर्ण महान योद्धा और धनुर्धर थे लेकिन अर्जुन से बहुत पीछे थे। ना ही उनके पास अर्जुन जितना कौशल था और न ही उसके जैसा शस्त्र-ज्ञान। अर्जुन से तो वे सदा ही पराजित हुए अपने कवच-कुंडल के होते हुए भी। अर्जुन ही नहीं बल्कि वे अभिमन्यु, भीम और सात्यकि से भी बुरी त
टैग: References removed मोबाइल संपादन मोबाइल एप सम्पादन Android app edit
छोNo edit summary
टैग: यथादृश्य संपादिका मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन उन्नत मोबाइल संपादन
पंक्ति 1:
{{ज्ञानसन्दूक महाभारत के पात्र|| Image =Karna in Kurukshetra.jpg
{{स्रोत कम|date=अप्रैल 2020}}
|Caption =[[कर्ण]] [[कुरुक्षेत्र]] के [[युद्ध]] में।|नाम = कर्ण|अन्य नाम =अंगराज,वासुसेन, दानवीर कर्ण,राधेय,सूर्यपुत्र कर्ण|संस्कृत वर्तनी= कर्ण|संदर्भ ग्रंथ = [[महाभारत]]|उत्त्पति स्थल =| व्यवसाय =अंग देश के राजा|मुख्य शस्त्र=[[धनुष]][[बाण]]|राजवंश =पैतृक राजवंश पांडव लेकिन कुंती द्वारा जन्म के समय त्याग देना व कौरव युवराज दुर्योधन से घनिष्ठ मित्रता के चलते कौरव राजवंशी।|माता और पिता =जन्मदाता [[सूर्यदेव]] व पांडवों की मां श्रीमती कुंती।लालन[[कुंती]]।लालन पालनकर्ता देवी राधा व श्री अधिरत|जीवनसाथी=पद्मावती,उरुवी|संतान=वृषकेतु,वृषसेन,चित्रसेन, सत्यसेन व अन्य और|भाई-बहन=[[युधिष्ठिर]], [[भीम]], [[अर्जुन]], [[नकुल]] और [[सहदेव]]}}
[[File:Karna in Kurukshetra.jpg|thumb|कुरुक्षेत्र में कर्ण]]
{{ज्ञानसन्दूक महाभारत के पात्र|| Image =
|Caption =|नाम = कर्ण|अन्य नाम =अंगराज,वासुसेन, दानवीर कर्ण,राधेय,सूर्यपुत्र कर्ण|संस्कृत वर्तनी= कर्ण|संदर्भ ग्रंथ = [[महाभारत]]|उत्त्पति स्थल =| व्यवसाय =अंग देश के राजा|मुख्य शस्त्र=[[धनुष]][[बाण]]|राजवंश =पैतृक राजवंश पांडव लेकिन कुंती द्वारा जन्म के समय त्याग देना व कौरव युवराज दुर्योधन से घनिष्ठ मित्रता के चलते कौरव राजवंशी।|माता और पिता =जन्मदाता सूर्यदेव व पांडवों की मां श्रीमती कुंती।लालन पालनकर्ता देवी राधा व श्री अधिरत|जीवनसाथी=पद्मावती,उरुवी|संतान=वृषकेतु,वृषसेन,चित्रसेन, सत्यसेन व अन्य और|भाई-बहन=[[युधिष्ठिर]], [[भीम]], [[अर्जुन]], [[नकुल]] और [[सहदेव]]}}
'''कर्ण''' (साहित्य-काल) [[महाभारत]] (महाकाव्य) के सबसे प्रमुख पात्रों में से एक है। कर्ण का जीवन अंतत विचार जनक है। कर्ण महाभारत के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारियों में से एक थे। कर्ण एक सुत वर्ण से थे और भगवान [[परशुराम]] ने खुद कर्ण की श्रेष्ठता को स्वीकार किया था । कर्ण की वास्तविक माँ [[कुन्ती]] थी परन्तु उनका पालन पोषण करने वाली माँ का नाम राधा था। कर्ण के वास्तविक पिता भगवान सूर्य थे। कर्ण का जन्म [[पाण्डु]] और कुन्ती के विवाह से पहले हुआ था। कर्ण [[दुर्योधन]] का सबसे अच्छा मित्र था और महाभारत के युद्ध में वह अपने भाइयों के विरुद्ध लड़ा। कर्ण को एक आदर्श दानवीर व वचन बद्द माना जाता है क्योंकि कर्ण ने कभी भी किसी माँगने वाले को दान में कुछ भी देने से कभी भी मना नहीं किया और न ही कभी अपने वचन से पीछे हटे, भले ही इसके परिणामस्वरूप उनके अपने ही प्राण संकट में क्यों न पड़ गए हों। इसी से जुड़ा एक वाक्या महाभारत में है जब अर्जुन के पिता देवराज [[इन्द्र]] ने ब्राह्मण के वेश में आकर कर्ण से उसके कुंडल और दिव्य कवच मांगे और कर्ण ने दे उसे दे भी दिये। इंद्र द्वारा यह छल के प्रति कर्ण को उनके पिता सूर्यदेव ने आगाह भी किया लेकिन फिर भी कर्ण ने अपनी दानवीरता,कर्मनिषठा के चलते इंद्र को कवच व कुंडल दे दिये। इंद्र जानता था कि इन कवच व कुंडल के होते हुए कर्ण अमर रहेगा इसलिए श्रीकृष्ण के कहने पर वो अपने बेटे अर्जुन के प्राण‌ बचाने हेतु कर्ण के पास सुबह ही ब्राह्मण का स्वांग रचकर चल पड़ा। कर्ण अर्जुन के पिता देवराज इन्द्र के ब्राह्मण स्वांग को पहचान गए और इंद्र से बोले की वह अपना ब्राह्मण स्वांग त्यागकर अपने मूलरुप इंद्र में आए। कर्ण से धोखे से उनके कवच व कुंडल मांगने व कर्ण द्वारा पहचान लेने पर इंद्र ने शर्म के मारे उन्हें कवच व कुंडल के बदले अमोघ शक्ति का अस्त्र दिया लेकिन यह बताकर की यह अचूक है पर इस्तेमाल सिर्फ एक बार करके यह वापस इंद्र के पास आ जाएगा। श्रीकृष्ण ने घटोत्कच को पांडव सेना की ओर से लड़वाया और घटोत्कच ने कौरव सेना को भारी क्षति पहुंचाई। क्षति देखकर दुर्योधन व शकुनि ने कर्ण को मजबूर किया अमोघ शक्ति अस्त्र का प्रयोग करने के लिए जिसके परिणामस्वरूप घटोत्कच मारा गया व कर्ण का प्रण अमोघ शक्ति अस्त्र का अर्जुन पर चलाना विफल हुआं।
 
कर्ण की छवि आज भी भारतीय जनमानस में एक ऐसे महायोद्धा की है जो जीवनभर प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता रहा व अपने कार्य को मेहनत कर के प्राप्त करते रहे। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि कर्ण को कभी भी वह सब नहीं मिला जिसका वह वास्तविक रूप से अधिकारी था।<ref>{{Cite web |url=http://hindinest.com/dharma/001.htm |title=कर्ण - महाभारत का एक उपेक्षित पात्र |access-date=25 जून 2009 |archive-url=https://web.archive.org/web/20090210014542/http://www.hindinest.com/dharma/001.htm |archive-date=10 फ़रवरी 2009 |url-status=live }}</ref> तर्कसंगत रूप से कहा जाए तो हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी कर्ण ही था क्योंकि वह कुरु राजपरिवार से ही था और [[युधिष्ठिर]] और दुर्योधन, श्रीकृष्ण व पांडवों से ज्येष्ठ था, लेकिन उसकी वास्तविक पहचान उसकी मृत्यु तक अज्ञात ही रही। कर्ण को एक दानवीर, वचनबद्ध, निष्ठावान और महान योद्धा माना जाता है। उन्हें दानवीर कर्ण भी कहा जाता है।
 
== शुद्ध संकल्प के परिणाम स्वरुप जन्म ==
कर्ण का जन्म कुन्ती को मिले एक वरदान स्वरुप हुआ था। जब वह कुँआरी थी, तब एक बार [[दुर्वासा]] ऋषि उनके पिता के महल में पधारे। तब कुन्ती ने पूरे एक वर्ष तक ऋषि की बहुत अच्छे से सेवा की। कुन्ती के सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होनें अपनी दिव्यदृष्टि से ये देख लिया कि पाण्डु से उसे सन्तान नहीं हो सकती और उसे ये वरदान दिया कि वह किसी भी देवता का स्मरण करके उनसे सन्तान उत्पन्न कर सकती है। एक दिन उत्सुकतावश कुँआरेपन में ही कुन्ती ने [[सूर्य देव]] का ध्यान किया। इससे सूर्य देव प्रकट हुए और उसे एक पुत्र दिया जो तेज़ में सूर्य के ही समान था और वह कवच और कुण्डल लेकर उत्पन्न हुआ था जो जन्म से ही उसके शरीर से चिपके हुए थे। चूंकि वह अभी भी अविवाहित थी इसलिये लोक-लाज के डर से उसने उस पुत्र को एक बक्से में रख कर [[गंगा|गंगाजी]] में बहा दिया।<ref>{{Cite web|url=https://hindi.webdunia.com/sanatan-dharma-mahapurush/kunti-son-karna-114072800009_1.html|title=दानवीर 'कर्ण' का परिचय|last=|first=|date=|website=Hindi Webduia|archive-url=https://web.archive.org/web/20190727044016/http://hindi.webdunia.com/sanatan-dharma-mahapurush/kunti-son-karna-114072800009_1.html|archive-date=27 जुलाई 2019|dead-url=|access-date=|url-status=live}}</ref>
 
== लालन-पालन ==
कर्ण [[गंगा नदी|गंगाजी]] में बहता हुआ जा रहा था कि महाराज [[भीष्म]] के सारथी अधिरथ और उनकी पत्नी राधा ने उसे देखा और उसे गोद ले लिया और उसका लालन पालन करने लगे। अधिरथ व राधा की कोई संतान नहीं थी। उन्होंने कर्ण को '''वासुसेन''' नाम दिया। अपनी माता के नाम पर कर्ण को '''राधेय''' के नाम से भी जाना जाता है। अपने जन्म के रहस्योद्घाटन होने और अंगदेश का राजा बनाए जाने के पश्चात भी कर्ण ने सदैव अधिरथ व राधा को अपना माता-पिता माना और अपनी मृत्यु तक सभी पुत्र धर्मों को निभाया। अंगदेश का राजा बनाए जाने के पश्चात कर्ण का एक नाम अंगराज भी हुआ।<ref>{{Cite web|url=https://www.jagran.com/spiritual/religion-karn-and-his-wife-radha-raised-the-yarn-adirth-14198689.html|title=कर्ण का लालन-पालन सूत अधिरथ और उसकी पत्नी राधा ने किया|last=|first=|date=|website=जागरण|archive-url=https://web.archive.org/web/20181130024714/https://www.jagran.com/spiritual/religion-karn-and-his-wife-radha-raised-the-yarn-adirth-14198689.html|archive-date=30 नवंबर 2018|dead-url=|access-date=|url-status=live}}</ref>
 
== प्रशिक्षण ==
कुमार अवास्था से ही कर्ण की रुचि अपने पिता अधिरथ के समान रथ चलाने कि बजाय युद्धकला में अधिक थी। कर्ण और उसके पिता अधिरथ आचार्य द्रोण से मिले जो उस समय युद्धकला के सर्वश्रेष्ठ आचार्यों में से एक थे। द्रोणाचार्य उस समय कुरु राजकुमारों को शिक्षा दिया करते थे। उन्होंने कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि कर्ण एक सारथी पुत्र था और द्रोण केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा दिया करते थे।
 
द्रोणाचार्य की असम्मति के उपरान्त कर्ण ने [[परशुराम]] से सम्पर्क किया जो कि केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा दिया करते थे। कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से शिक्षा का आग्रह किया। परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार किया और कर्ण को अपने समान ही युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात किया। इस प्रकार कर्ण परशुराम का एक अत्यन्त परिश्रमी और निपुण शिष्य बना।<ref>{{Cite web|url=https://www.jagran.com/spiritual/sant-saadhak-mahabharata-legend-the-legend-of-the-birth-of-karna-14605975.html|title=महाभारत कथा : कर्ण के जन्म की कथा|last=|first=|date=|website=Jagran|archive-url=|archive-date=|dead-url=|access-date=}}</ref>
 
== कर्ण को मिले विविध श्राप ==
कर्ण को उसके गुरु [[परशुराम]] और पृथ्वी माता से श्राप मिला था। इसके अतिरिक्त भी कर्ण को बहुत से श्राप मिले थे।
 
कर्ण की शिक्षा अपने अन्तिम चरण पर थी। एक दोपहर की बात है, गुरु परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। कुछ देर बाद कहीं से एक बिच्छू आया और उसकी दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। गुरु का विश्राम भंग ना हो इसलिए कर्ण बिच्छू को दूर ना हटाकर उसके डंक को सहता रहा। कुछ देर में गुरुजी की निद्रा टूटी और उन्होनें देखा की कर्ण की जांघ से बहुत रक्त बह रहा है। उन्होनें कहा कि केवल किसी क्षत्रिय में ही इतनी सहनशीलता हो सकती है कि वह बिच्छु डंक को सह ले, ना कि किसी ब्राह्मण में और परशुरामजी ने उसे मिथ्या भाषण के कारण श्राप दिया कि जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उस दिन वह उसके काम नहीं आएगी।
 
कर्ण, जो कि स्वयं यह नहीं जानता था कि वह किस वंश से है, ने अपने गुरु से क्षमा माँगी और कहा कि उसके स्थान पर यदि कोई और शिष्य भी होता तो वो भी यही करता। यद्यपि कर्ण को क्रोधवश श्राप देने पर उन्हें ग्लानि हुई पर वे अपना श्राप वापस नहीं ले सकते थे। तब उन्होनें कर्ण को अपना '''विजय''' नामक धनुष प्रदान किया और उसे ये आशीर्वाद दिया कि उसे वह वस्तु मिलेगी जिसे वह सर्वाधिक चाहता है - अमिट प्रसिद्धि। कुछ लोककथाओं में माना जाता है कि बिच्छू के रूप में स्वयं [[इन्द्र]] थे, जो उसकी वास्तविक क्षत्रिय पहचान को उजागर करना चाहते थे।
 
परशुरामजी के आश्रम से जाने के पश्चात, कर्ण कुछ समय तक भटकता रहा। इस दौरान वह [[शब्दभेदी]] विद्या सीख रहा था। अभ्यास के दौरान उसने एक गाय के बछड़े को कोई वनीय पशु समझ लिया और उस पर शब्दभेदी बाण चला दिया और बछडा़ मारा गया। तब उस गाय के स्वामी ब्राह्मण ने कर्ण को श्राप दिया कि जिस प्रकार उसने एक असहाय पशु को मारा है, वैसे ही एक दिन वह भी मारा जाएगा जब वह सबसे अधिक असहाय होगा और जब उसका सारा ध्यान अपने शत्रु से कहीं अलग किसी और काम पर होगा।
 
आन्ध्र की लोक कथाओं के अनुसार एक बार कर्ण कहीं जा रहा था, तब रास्ते में उसे एक कन्या मिली जो अपने घडे़ से [[घी]] के बिखर जाने के कारण रो रही थी। जब कर्ण ने उसके सन्त्रास का कारण जानना चाहा तो उसने बताया कि उसे भय है कि उसकी सौतेली माँ उसकी इस असावधानी पर रुष्ट होंगी। कृपालु कर्ण ने तब उससे कहा कि बह उसे नया घी लाकर देगा। तब कन्या ने आग्रह किया कि उसे वही मिट्टी में मिला हुआ घी ही चाहिए और उसने नया घी लेने से मना कर दिया। तब कन्या पर दया करते हुए कर्ण ने घी युक्त मिट्टी को अपनी मुठ्ठी में लिया और निचोड़ने लगा ताकि मिट्टी से घी निचुड़कर घड़े में गिर जाए। इस प्रक्रिया के दौरान उसने अपने हाथ से एक महिला की पीड़ायुक्त ध्वनि सुनी। जब उसने अपनी मुठ्ठी खोली तो धरती माता को पाया। पीड़ा से क्रोधित धरती माता ने कर्ण की आलोचना की और कहा कि उसने एक बच्ची के घी के लिए उन्हें इतनी पीड़ा दी। और तब धरती माता ने कर्ण को श्राप दिया कि एक दिन उसके जीवन के किसी निर्णायक युद्ध में वह भी उसके रथ के पहिए को वैसे ही पकड़ लेंगी जैसे उसने उन्हें अपनी मुठ्ठी में पकड़ा है, जिससे वह उस युद्ध में अपने शत्रु के सामने असुरक्षित हो जाएगा।
 
इस प्रकार, कर्ण को तीन पृथक अवसरों पर तीन श्राप मिले। दुर्भाग्य से ये तीनों ही श्राप कुरुक्षेत्र के निर्णायक युद्ध में फलीभूत हुए, जब वह युद्ध में अस्त्र विहीन, रथ विहीन और असहाय हो गया था।
 
=== विविध श्रापों के प्रभाव ===
कर्ण को मिले विविध श्रापों का प्रभाव इस प्रकार हुआ।
 
; दो ब्रह्मास्त्रों का टकराना
 
यदि एक ब्रह्मास्त्र भी शत्रु के खेमें पर छोड़ा जाए तो ना केवल वह उस खेमे को नष्ट करता है बल्कि उस पूरे क्षेत्र में १२ से भी अधिक वर्षों तक अकाल पड़ता है। और यदि दो ब्रह्मास्त्र आपस में टकरा दिए जाएँ तब तो मानो प्रलय ही हो जाता है। इससे समस्त पृथ्वी का विनाश हो जाएगा और इस प्रकार एक अन्य भूमण्डल और समस्त जीवधारियों की रचना करनी पड़ेगी। महाभारत के युद्ध में दो ब्रह्मास्त्रों के टकराने की स्थिति तब आई जब ऋषि [[वेदव्यास|वेदव्यासजी]] के आश्रम में [[अश्वत्थामा]] और [[अर्जुन]] ने अपने-अपने ब्रह्मास्त्र चला दिए। तब वेदव्यासजी ने उस टकराव को टाला और अपने-अपने ब्रह्मास्त्रों को लौटा लेने को कहा। अर्जुन को तो ब्रह्मास्त्र लौटाना आता था, लेकिन अश्वत्थामा ये नहीं जानता था और तब उस ब्रह्मास्त्र के कारण [[परीक्षित]], [[उत्तरा]] के गर्भ से मृत पैदा हुआ।
 
लेकिन कर्ण गुरु परशुराम के श्राप के कारण ब्रह्मास्त्र चलाना भूल गया था, नहीं तो वह युद्ध में अर्जुन का वध करने के लिए अवश्य ही अपना ब्रह्मास्त्र चलाता और अर्जुन भी अपने बचाव के लिए अपना ब्रह्मास्त्र चलाता और पूरी पृथ्वी का विनाश हो जाता। इस प्रकार गुरु परशुराम ने कर्ण को श्राप देकर पृथ्वी का विनाश टाल दिया।
 
; धरती माता के श्राप का प्रभाव
 
धरती माता का श्राप यह था कि कर्ण के जीवन के सबसे निर्णायक युद्ध में धरती उसके रथ के पहिये को पकड़ लेंगी। उस दिन के युद्ध में कर्ण ने अलग-अलग रथों का उपयोग किया, लेकिन हर बार उसके रथ का पहिया धरती में धस जाता। इसलिए विभिन्न रथों का प्रयोग करके भी कर्ण धरती माता के श्राप से नहीं बच सकता था, अन्यथा वह उस निर्णायक युद्ध में अर्जुन पर भारी पड़ता।
 
== दुर्योधन से मित्रता और अंगराज ==
[[चित्र:Coronation_of_Karna.jpg|कड़ी=https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Coronation_of_Karna.jpg|अंगूठाकार|कर्ण का राज्याभिषेक]]
Line 49 ⟶ 29:
 
इस घटना के बाद महाभारत के कुछ मुख्य सम्बन्ध स्थापित हुए, जैसे दुर्योधन और कर्ण के बीच सुदृढ़ सम्बन्ध बनें, कर्ण और अर्जुन के बीच तीव्र प्रतिद्वन्द्विता और पाण्डवों तथा कर्ण के बीच वैमनस्य।
 
कर्ण, दुर्योधन का एक निष्ठावान और सच्चा मित्र था।
यद्यपि वह बाद में दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए द्यूतक्रीड़ा में भागीदारी करता है, लेकिन वह आरम्भ से ही इसके विरुद्ध था। कर्ण [[शकुनि]] को पसन्द नहीं करता था और सदैव दुर्योधन को यही परमर्श देता कि वह अपने शत्रुओं को परास्त करने के लिए अपने युद्ध कौशल और बाहुबल का प्रयोग करे ना कि कुटिल चालों का। जब [[लाक्षागृह]] में पाण्डवों को मारने का प्रयास विफल हो जाता है, तब कर्ण दुर्योधन को उसकी कायरता के लिए डाँटता है और कहता है कि कायरों की सभी चालें विफल ही होती हैं और उसे समझाता है कि उसे एक योद्धा के समान कार्य करना चाहिए और उसे जो कुछ भी प्राप्त करना है, उसे अपनी वीरता द्वारा प्राप्त करे। चित्रांगद की राजकुमारी से विवाह करने में भी कर्ण ने दुर्योधन की सहायता की थी। अपने स्वयंवर में उसने दुर्योधन को अस्वीकार कर दिया और तब दुर्योधन उसे बलपूर्वक उठा कर ले गया। तब वहाँ उपस्थित अन्य राजाओं ने उसका पीछा किया, लेकिन कर्ण ने अकेले ही उन सबको परास्त कर दिया। परास्त राजाओं में [[जरासन्ध]], [[शिशुपाल]], दन्तवक्र, साल्व और रुक्मी इत्यादि थे। कर्ण की प्रशंसा स्वरूप, जरासन्ध ने कर्ण को मगध का एक भाग दे दिया। [[भीम]] ने बाद में [[श्रीकृष्ण]] की सहायता से जरासन्ध को परास्त किया लेकिन उससे बहुत पहले कर्ण ने उसे अकेले परास्त किया था। कर्ण ही ने जरासन्ध की इस दुर्बलता को उजागर किया था कि उसकी मृत्यु केवल उसके धड़ को पैरों से चीर कर दो टुकड़ो में बाँट कर हो सकती है। भीम द्वारा जरासंध को बार-बार धड़ से अलग करनेेे पर भी शरीर झुड़ रहा था तभी श्री कृष्ण के कहने पर भीम ने शरीर के दो हििस्सोहिस्सों को अलग अलग दिशा में फेेक दिया
 
यद्यपि वह बाद में दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए द्यूतक्रीड़ा में भागीदारी करता है, लेकिन वह आरम्भ से ही इसके विरुद्ध था। कर्ण [[शकुनि]] को पसन्द नहीं करता था और सदैव दुर्योधन को यही परमर्श देता कि वह अपने शत्रुओं को परास्त करने के लिए अपने युद्ध कौशल और बाहुबल का प्रयोग करे ना कि कुटिल चालों का। जब [[लाक्षागृह]] में पाण्डवों को मारने का प्रयास विफल हो जाता है, तब कर्ण दुर्योधन को उसकी कायरता के लिए डाँटता है और कहता है कि कायरों की सभी चालें विफल ही होती हैं और उसे समझाता है कि उसे एक योद्धा के समान कार्य करना चाहिए और उसे जो कुछ भी प्राप्त करना है, उसे अपनी वीरता द्वारा प्राप्त करे। चित्रांगद की राजकुमारी से विवाह करने में भी कर्ण ने दुर्योधन की सहायता की थी। अपने स्वयंवर में उसने दुर्योधन को अस्वीकार कर दिया और तब दुर्योधन उसे बलपूर्वक उठा कर ले गया। तब वहाँ उपस्थित अन्य राजाओं ने उसका पीछा किया, लेकिन कर्ण ने अकेले ही उन सबको परास्त कर दिया। परास्त राजाओं में [[जरासन्ध]], [[शिशुपाल]], दन्तवक्र, साल्व और रुक्मी इत्यादि थे। कर्ण की प्रशंसा स्वरूप, जरासन्ध ने कर्ण को मगध का एक भाग दे दिया। [[भीम]] ने बाद में [[श्रीकृष्ण]] की सहायता से जरासन्ध को परास्त किया लेकिन उससे बहुत पहले कर्ण ने उसे अकेले परास्त किया था। कर्ण ही ने जरासन्ध की इस दुर्बलता को उजागर किया था कि उसकी मृत्यु केवल उसके धड़ को पैरों से चीर कर दो टुकड़ो में बाँट कर हो सकती है। भीम द्वारा जरासंध को बार-बार धड़ से अलग करनेेे पर भी शरीर झुड़ रहा था तभी श्री कृष्ण के कहने पर भीम ने शरीर के दो हििस्सो को अलग अलग दिशा में फेेक दिया
 
== उदारता और चरित्र ==
[[चित्र:Hastinapur-Karneshwar-Mandir-1.jpg|कड़ी=https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Hastinapur-Karneshwar-Mandir-1.jpg|अंगूठाकार|हस्तिनापुर स्थित दानवीर कर्ण का मंदिर।]]
अंगराज बनने के पश्चात कर्ण ने ये घोषणा करी कि दिन के समय जब वह सूर्यदेव की पूजा करता है, उस समय यदि कोई उससे कुछ भी मांगेगा तो वह मना नहीं करेगा और मांगने वाला कभी खाली हाथ नहीं लौटेगा। कर्ण की इसी दानवीरता का महाभारत के युद्ध में [[इन्द्र]] और माता [[कुन्ती]] ने लाभ उठाया।
 
महाभारत के युद्ध के बीच में कर्ण के सेनापति बनने से एक दिन पूर्व इन्द्र ने कर्ण से साधु के भेष में उससे उसके कवच-कुण्डल माँग लिए, क्योंकि यदि ये कवच-कुण्डल कर्ण के ही पास रहते तो उसे युद्ध में परास्त कर पाना असम्भव था और इन्द्र ने अपने पुत्र अर्जुन की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कर्ण से इतना बडी़ भिक्षा माँग ली लेकिन दानवीर कर्ण ने साधु भेष में देवराज इन्द्र को भी मना नहीं किया और इन्द्र द्वारा कुछ भी वरदान माँग लेने पर देने के आश्वासन पर भी इन्द्र से ये कहते हुए कि "देने के पश्चात कुछ माँग लेना दान की गरिमा के विरुद्ध है" कुछ नहीं माँगा।
 
इसी प्रकार माता कुन्ती को भी दानवीर कर्ण द्वारा यह वचन दिया गया कि इस महायुद्ध में उनके पाँच पुत्र अवश्य जीवित रहेंगे और वह अर्जुन के अतिरिक्त और किसी पाण्डव का वध नहीं करेगा। और उसने वही किया , कर्ण ने अर्जुन के वध के लिए देवराज इंद्र से इंद्रास्त्र भी माँगा था।
 
कर्ण महाभारत का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पात्र है। कर्ण अत्यंत शक्तिशाली योद्धा था, जिसने द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और महर्षि परशुराम जी से शिक्षा प्राप्त की थी। कर्ण के पास कई अत्यंत महत्वपूर्ण अस्त्र जैसे आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, ब्रह्मास्त्र और भार्गवास्त्र थे।
 
हालांकि कर्ण को उसके जीवन में कई राजाओं नें हराया जैसे, गुरु दक्षिणा के समय द्रुपद नें, द्रौपदी स्वयंवर के समय अर्जुन नें, दिग्विजय के समय भीमसेन नें, घोषयात्रा के समय गंधर्वों नें, विराट नगर के युद्ध में अर्जुन नें, महाभारत में कई बार फिर से भीमसेन नें, सात्यकि नें और अभिमन्यु नें।
 
लेकिन कर्ण के जीवन की सबसे बड़ी भूल थी, धर्मात्मा पाण्डवों से द्वेष रखना। कर्ण विशेषत: अर्जुन से जलता था अतः उसने इसी कारण कई पाप किए और महाभारत में सिर्फ और सिर्फ एक खलनायक के रूप में ही जगह बनाई। महाभारत के अनुसार कर्ण दुर्योधन के सभी कुकृत्यों के लिए वृक्ष के तने के समान सहारा था। महाभारत का आदि पर्व इस बात को साफ साफ कहता है -
 
"https://hi.wikipedia.org/wiki/कर्ण" से प्राप्त