"पिप्पली": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
Rescuing 2 sources and tagging 0 as dead.) #IABot (v2.0.1 |
छो →इतिहास |
||
पंक्ति 21:
पिप्पली के फल कई छोटे फलों से मिल कर बना होता है, जिनमें से हरेक एक खसखस के दाने के बराबर होता है। ये सभी मिलकर एक [[:w:hazel|हेज़ल वृक्ष]] की तरह दिखने वाले आकार में जुड़े रहते हैं। इस फल में ऍल्कलॉयड पाइपराइन होता है, जो इसे इसका तीखापन देता है। इसकी अन्य प्रजातियाँ जावा एवं इण्डोनेशिया में पायी जाती हैं। इसमें सुगन्धित तेल (0.७%), पाइपराइन (४-५%) तथा पिपलार्टिन नामक क्षाराभ पाए जाते हैं। इनके अतिरिक्त दो नए तरल क्षाराभ सिसेमिन और पिपलास्टिरॉल भी हाल ही में<ref>[http://hindi.webdunia.com/पीपल-पिप्पली-त्रिकटु/पीपल-पिप्पली-1070418040_1.htm पीपर (पिअप्पली] {{Webarchive|url=https://web.archive.org/web/20120421125931/http://hindi.webdunia.com/%E0%A4%AA%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%B2-%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%B2%E0%A5%80-%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%9F%E0%A5%81/%E0%A4%AA%E0%A5%80%E0%A4%AA%E0%A4%B2-%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%B2%E0%A5%80-1070418040_1.htm |date=21 अप्रैल 2012 }}। [[वेबदुनिया]] अभिगमन तिथि: २६ जुलाई २०१३</ref>ज्ञात हुए हैं। पीपर की जड़ जिसे पीपला मूल भी कहा गया है पाइपरिन (०.१५-०.१८%), पिपलार्टिन (०.१३-०.२०%), पाइपरलौंगुमिनिन, एक स्टिरॉएड तथा ग्लाइकोसाइड से युक्त होती है।
एक दुसरी जाति की पीपल को पहाडी पीपल कहते हैं। इसका लेटिन नाम Piper Sylvaticum (पीपर सिलवेटिकम) है। यह आसाम और बंगाल में अधिक उत्पन्न होती है। इसकी लता कई फीट तक बढ जाती है और सूखने पर आपस में लिपट हुई मालूम होती है। पत्ते-पान के आकार वाले, उक्त पीपल के पत्तों से किव्कित बडे होते हैं। फलगुच्छ-पौन से १ इंच लम्बे होते हैं। इसको बंगाल के कविराज अधिक व्यवहार में लाते हैं।
पीपल छोटी ओर बडी-इन भेदों से दो प्र्कार की होती है। इनमें छोटी अधिक गुणकारी समझी जाती है।
==== गुण और प्रयोग ====
पीपल रसायन, सुगंधि, दीपक, पाचक, उष्ण, वातहर और कफघ्न है। इसका उपयोग आनाह, अपचन, अग्रिमांथ, उदरशूल, कास, श्र्वास, जीर्णज्वर, प्रसूतिज्वर, आमवात, गृघ्र्सी, कटिशूल, वातरक्त, अग्ड्घांत आदि रोगों में किया जाता है।
१. मधु के साथ इसका चूर्ण नये वा पुराने कास, श्र्वास, स्वरभंग तथा हिचकी में उपयोगी है।
२. प्रसूतिज्वर में गर्भाशय शुद्धि के लिए इसका मधु के साथ अच्छा उपयोग होता है।
३. वर्धमान पिप्पली का उपयोग रसायन के लिए एवं अधोशाखाघात, पुरानी खांसी, दमा, यक्ष्मा, प्लीहावृद्धि, उदर, अर्श आदि रोगों में बहुत लाभदायी है। इसके लिए प्रथम दिन ३ पीपल का फांट मधु अथवा शर्करा के साथ दिया जाता है फिर नित्य ३ पीपल बढाई जाती है। इस प्रकार दसवें दिन ३० पीपल का फांट दिया जाता है फिर इसी प्रकार ३ पीपल नित्य कम की जाती हैं। कुछ लोग आधा दुध और आधा जल में उबालकर दुध शेष रहने पर उसी पीपल को खिला कर ऊपर से वही दुध पिलाते हैं। इसके अतिरिक्त इसके चूर्ण को घृत और मधु के उपयोग किया जा सकता है।
४. पीपल चौसठ प्रहर घोट कर उपयोग करने से जीर्ण ज्वर में विशेष लाभदायी होता है।
५. सोंठ एवं पीपल से सिद्ध तेल की मालिश गृघ्र्सी, कटिशूल तथा अधोशाखाघात मेें उपयोगी है।
== इतिहास ==
|