"द्रविड़ प्रजाति": अवतरणों में अंतर

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वर्तमान में द्रविड़ और आर्य नस्ल की बात कम ही लोग करते हैं। एक नस्ल से अधिक एक भाषा और संस्कृति के रूप में वे आगे बढ़ते हैं। अब आर्य संस्कृति और आर्य भाषा (यानी संस्कृत), और द्रविड़ संस्कृति और द्रविड़ भाषा की बात होती है। जैसे अंग्रेजी बोलने वाले सब लोग अंग्रेज ही नहीं होते; वैसे ही आर्य या द्रविड़ भाषा बोलने वाले सब लोग आर्य या द्रविड़ नहीं होते। इन दिनों नस्लों से अधिक संस्कृतियों के वर्चस्व की बात होती है। लेकिन कुछ लोग, जिनकी संख्या हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ती हुई प्रतीत होती है, एकबार फिर इसके नस्ल रूप पर ही जोर देना चाहते हैं। पिछली शताब्दियों में दुनिया भर के कुलीन या खाये-अघाये लोगों में नस्ल या रेस को लेकर एक जोश का भाव दृष्टिगोचर होता है। देखा-देखी हमारे यहां भी यह प्रवृत्ति उभरी। उत्तर भारत में आर्य-भावना का प्रसार एक ऐसी ही स्थिति का विकास था। मेरी राय में अंग्रेजी राज के दौरान, खास कर ओरिएण्टल अथवा पौर्वत्य मानसिकता वाले दौर में, हिन्दुओं के द्विज समूह में, जो जाति के हिसाब से तथाकथित ऊँचे क्रम में प्रतिष्ठित रहे, यह भावना धीरे-धीरे विकसित हुई। द्रविड़ों में अस्मितामूलक भाव उत्तरभारतीय तथाकथित आर्य-हिन्दुओं की प्रतिक्रिया में क्रमिक स्तर पर विकसित हुए। जिसके लिए ब्रिटिश शासन ने उन्हें प्रोत्साहित भी किया। लेकिन स्पष्ट तौर पर उत्तरभारतीय द्विज-जनों का आर्यत्व यूरोपीय देशों में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में विकसित नस्लीय भावना का एक हिस्सा था, जिसकी शुरुआत जाने-अनजाने मशहूर वेद-विद मैक्स मूलर द्वारा हुई थी। मैक्स मूलर (1823-1900) ने 1861 ई. में ‘साइंस ऑफ़ लैंग्वेज’ शीर्षक से एक व्याख्यान दिया, जिसमें पहली दफा ‘आर्यन’ शब्द का प्रयोग जनजातियों के एक समूह के लिए किया, जिसे इंडो-ईरानी कहा जाता रहा था। मैक्स मूलर भाषा-विज्ञान विषयक व्याख्यान दे रहे थे और ‘आर्यन’ एक भाषा-समूह या परिवार के रूप में उन्होंने इस्तेमाल किया था,जो प्रोटो-इंडो-ईरानी लोगों की भाषा थी। उन्होंने अपने शोध में पाया था कि संस्कृत, लैटिन, ग्रीक जैसी पुरानी भाषाओं, जिससे आज के उत्तर भारतीय और यूरोप के कई देशों की आधुनिक भाषाएं विकसित हुई हैं, के कुछ शब्दों और वैयाकरणिक विन्यासों में अद्भुत समानता है। इससे इन भाषा-भाषियों के कभी एक साथ निवास करने की बात पुष्ट होती है। इसी भाषा समूह को मैक्स मूलर ने आर्य कहा। फिर एच.जी. वेल्स (1866-1946) ने इस शब्द का इस्तेमाल अपनी किताब ‘आउट लाइन ऑफ़ हिस्ट्री’ में किया। लेकिन आर्थर द गोबिन्यू (1816-1882) ने सबसे आगे जाकर भाषा-विज्ञान और नृवंश-विज्ञान को एक में मिलाते हुए एक घालमेल कर दिया। उसने आर्यन को एक श्रेष्ठ नस्ल के रूप में चित्रित किया। मैक्स मूलर ने हालांकि इसका विरोध किया। परन्तु यह विषय अब राजनीति का बन गया था। किसी बुद्धिजीवी द्वारा इसे रोकना या संभालना अब संभव नहीं रह गया था। उन्नीसवीं सदी के आखिरी दिनों में जर्मन अध्येताओं जिसमे गुस्ताफ कोसिन्ना (1858-1931) प्रमुख थे, ने इस बात की घोषणा कर दी कि आर्यों की मूलभूमि स्कैंडेनेविया यानी प्राचीन जर्मनी है। इन्ही दिनों हेलेना ब्लावट्स्की(1831-1891) और हन्नी ऑलकोट ने थियोसोफिकल मूवमेंट आरम्भ किया, जिसमें आर्यन नस्ल को मानव जाति का ऐसा प्रमुख नस्ल माना गया, जिसके विकास में ही मानवता की भलाई सन्निहित है। भारत में ठीक इसी तरह का भाव एक गुजराती संत दयानन्द सरस्वती (1824-1883) के नेतृत्व में उभरा और उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की। दयानन्द ने ‘कृण्वन्तो -विश्वमार्यम’ (पूरी दुनिया को आर्य बनाओ) का उद्घोष किया। बेशक यह सामाजिक-सुधार का एक आंदोलन था और भारत में उन्नीसवीं सदी में सामाजिक सुधारों के आंदोलनों का जो सिलसिला चला था, उसी की कड़ी में था। जल्दी ही इसने पश्चिमोत्तर इलाकों, खास कर पंजाब में अपना प्रभाव जमा लिया। दयानन्द में धार्मिक कटटरता और पुरोहितवाद के खिलाफ गहरा रोष था, जिसे उनकी किताब ‘सत्यार्थ प्रकाश ‘ में देखा जा सकता है। इस पुस्तक में उन्होंने भारत में मौजूद सभी धर्मों के पाखंड की बखिया उधेड़ी है। लेकिन महाराष्ट्र के उनके समकालीन जोतीराव फुले ने जिस तरह आधुनिक शिक्षा ग्रहण करने और धर्मग्रंथों को ख़ारिज करने की वकालत की थी, के विपरीत निर्णय लेते हुए ,उन्होंने ऋग्वेद और वैदिक सभ्यता में लौटने की लोगों से अपील की। उनकी यह कोशिश उन्हें उस आर्यवादी पक्ष में धकेल देती है, जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं।
 
 
 
==मैक्स मूलर (1823-1900)==