"यूरोपीय धर्मसुधार": अवतरणों में अंतर

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== प्रभाव एवं परिणाम ==
[[File:HolyRomanEmpire 1618.png|thumb|तीस वर्षीय युद्ध के प्रारम्भ में मध्य [[यूरोप]] में धार्मिक तुष्टिकरण का मानचित्र (1618).|alt=|left]]
इस सिंहावलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि लूथर द्वारा प्रवर्तित सुधार आंदोलन ने विभिन्न रूप धारण कर समस्त यूरोप को हिला दिया। प्रांरभ में चर्च का सुधार इस आंदोलन का उद्देश्य था किंतु वह शीघ्र ही चर्च की परंपरागत शिक्षा तथा चर्च की संगठनात्मक एकता पर प्रहार करने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि यूरोप के ईसाईसंसार की एकता शताब्दियों के लिए छिन्न-भिन्न हो गई। शासन की दृष्टि से पूर्ण रूप से स्वतंत्र संप्रदायों का उद्भव हुआ, जो एक ही ईसा और बाइबिल को मानते हुए भी अनेक मूलभूत धर्म सिद्धांतों के विषय में भिन्न भिन्न मतों का प्रतिपादन करते हैं।
 
राजनीतिक दृष्टि से धर्मसुधार का परिणाम बहुत ही व्यापक रहा। यूरोप की उत्तरमध्यकालीन परिस्थिति ऐसी थी कि शासकों ने भी अनिवार्य रूप से इस धार्मिक आंदोलन में सक्रिय भाग लिया है। वे अपनी प्रजा को अपने ही धर्म में सम्मिलित करने अथवा बनाए रखने के उद्देश्य से युद्ध करने के लिए तैयार हो गए। इस प्रकार यूरोप के इतिहास में धर्म के नाम पर अनेक युद्धों की चर्चा है, जैसे, [[जर्मनी]] में 30 वर्षीय युद्ध (थरटी ईअर्स वॉर) [[फ़्रान्स|फ्रांस]] में [[युगनो युद्ध]] और [[नीदरलैण्ड|हॉलैंड]] में सम्राट्राजा चार्ल्स पंचम के विरुद्ध सफल स्वतंत्रता संग्राम।
 
ऊपर इसका उल्लेख हो चुका है कि [[काथलिक चर्च]] में समय समय पर सुधार आंदोलनों का प्रवर्त्तन होता रहा है किंतु 16वीं शताब्दी के विद्रोहात्मक धर्मसुधार से काथलिक चर्च को विशेष रूप से प्रेरणा मिली। इस शताब्दी में पोप के रूप में प्रतिभाशाली व्यक्तियों का चुनाव हुआ जिन्होंने चर्च के शासन में फिर अध्यात्म को प्राथमिकता दिला दी है जिससे समस्त काथलिक संसार में पोप का पद पुन: पूर्णरूपेण सम्मानित हो सका। बिशपों की सामंतशाही को समाप्त कर दिया गया और चारों और साधुस्वभाव व्यक्तियों की नियुक्ति से जनता के सामने बिशप का प्राचीन आदर्श उभरने लगा, जो अपनी प्रजा का धर्मगुरु एवं आध्यात्मिक चरवाहा (नेता) है। [[ट्रेंट]] नामक नगर में चर्च की 19वीं विश्वसभा का आयोजन हुआ जिसमें चर्च के नए संगठन के अतिरिक्त विशेष रूप में साधारण पुरोहितों के शिक्षण का प्रबंध किया गया। अत: चर्च की सभी श्रेणियों में सुधार हुआ और जनसाधारण में धार्मिक शिक्षा का उचित प्रचार हो सका। इस कार्य में धर्मसंधियों ने दूसरे पुरोहितों का हाथ बँटाया है। 16वीं शताब्दी में जेसुइट आदि कई धर्मसंघों की स्थापना हुई तथा प्राचीन (विशेषकर फ्रांसिस्की तथा कार्मेलाइट) धर्मसंघों में सुधार लाया गया जिससे वे सबके सब समय की आवश्यकताओं के अनुसार धर्म की सेवा कर सकें। इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म सुधार का संभवत: सबसे गहरा एवं हितकरी प्रभाव पुराने काथिलक चर्च पर ही पड़ा।