"सातवाहन": अवतरणों में अंतर

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{{सातवाहन}}
'''सातवाहन''' [[प्राचीन भारत]] का एक राजवंश था। इसने ईसापूर्व २३० से लेकर दूसरी सदी (ईसा के बाद) तक केन्द्रीय [[दक्षिण भारत]] पर राज किया। यह [[मौर्य राजवंश|मौर्य वंश]] के पतन के बाद शक्तिशाली हुआ था। इनका उल्लेख ८वीं सदी ईसापूर्व में मिलता है। [[अशोक]] की मृत्यु (सन् २३२ ईसापूर्व) के बाद सातवाहनों ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया था।
सीसे का सिक्का चलाने वाला पहला वंश सातवाहन वंश था, और वह सीसे का सिक्का रोम से लाया जाता था। यह वंश राजा शालीवाहन को वरदान प्राप्त होने के कारण वर्दिया अथवा वार्डिया के नाम से जाना जाता है यह वंश महाराष्ट्र में प्रमुख रूप से विस्तृत है
 
== परिचय ==
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== सातवाहनों का शासनकाल तथा कालक्रम ==
सातवाहनों के कालक्रम को लेकर विद्वानों में गहरे मतभेद हैं। [[ऐत्रेयय ब्राह्मण]] जो कि पाँच सौ ई0पूर्व में लिखा गया था उसमें आन्ध्रों को ऐसे दस्यु बताया गया है जो कि आर्य परिधि से बाहर थे तथा जो विश्वामित्र के वंशज थे। इस आधार पर डॉ॰डी0आर0 भण्डारकर ने 500 ई0पूर्व को सातवाहनों की आरम्भिक स्थिति माना है। डॉ॰वी0ए0 स्मिथ के अनुसार आन्ध्र पहले अधीनस्थ थे परन्तु उसकी मृत्यु के पश्चात् वे सिमुख के नेतृत्व में स्वतन्त्र हो गए तथा यह घटना तीसरी शताब्दी ई0पूर्व में हुई। इस विषय में स्मिथ ने पुराणों का ही आधार माना है जिनके अनुसार आन्ध्रों के कुल तीस शासकों ने लगभग 460वर्षों तक शासन किया। डॉ॰गोपालचारी ने भी इस तथ्य को स्वीकारते हुए यह माना है कि सातवाहन वंश की स्थापना लगभग 235ई0पूर्व तथा उसका पतन लगभग 255 ईस्वी में हुआ। कलिंग के शासक खारखेल के राज्यकाल में उत्कीर्ण हाथी गुम्फा शिलालेख के आधार पर रैपसन सातवाहन वंश का आरम्भ 220 ई0पूर्व तथा 211 ई0पूर्व के बीच मानते है परन्तु सातवाहनों के शासनयासन काल को लेकर विभिन्न पुराणों में भी मतान्तर है। एक ओर जहा [[मत्स्य पुराण|मत्स्यपुराण]] उनका कुल शासनयासन काल 460वर्ष बताता है वहीं दूसरी ओर [[ब्राह्मणपुराण]] में यह अवधि 456 वर्ष बताई गई है।
 
[[वायु पुराण|वायुपुराण]] के अनुसार सातवाहनों ने 411 वर्षों तक शासन किया जबकि [[विष्णु पुराण|विष्णुपुराण]] उनकी शासन अवधि 300 वर्ष मानता है। दूसरी आर डॉ॰ आर0 जी0 भण्डारकर सातवाहन वंश की स्थापना 72-.73 ई0पूर्व को मानते हैं। पुराणों में वर्णित एक वक्तव्य के आधार पर उन्होंने यह माना है कि, ‘‘शुंग मृत्य’’ कण्व शासक शुंग शासकों के सेवक थे तथा पेशवाओं की भांति उनके साथ-साथ शासन करते थे तथा सिमुक अथवा शिशुक नामक सातवाहन वंश के संस्थापक ने कण्व राजा सुश्रमन को मारकर कण्व तथा शुंग दोनो वंशो का अन्त कर दिया तथा उनके साम्राज्य को अपने आधीन कर लिया। परन्तु यह तथ्य अविश्वसनीय है क्योकिं हम यह भली-भांति जानते है कि शुंग तथा कण्व वंश के शासकों ने कभी संयुक्त रूप से शासन नही किया तथा कण्व वंश के संस्थापक वासुदेव कण्व ने अन्तिम शुंग शासक देवभूति की हत्या कर शासन की बागडोर सम्भाली थी। वायुपुराण के उस वक्तव्य जिसके आधार पर डॉ॰भण्डारकर ने गलत व्याख्या की है, को डॉ॰राय चौधरी ने सही ढ़ंग से परिभाषित किया है। उनके अनुसार यह गंद्याश मात्रा इतना ही बताता है कि सिमुक ने जब कण्व वंश का अन्त कर सातवाहन वंश की स्थापना की तो उसने उन शुंग उपशासकों भी समाप्त कर दिया जो कि कण्व वंश के हाथों शुंग शासकों के पराजित होने के बाद भी बचे रह गए थे। अतएव सातवाहन शासकों ने 29 ई0पूर्व (72ई0पूर्व -45वर्ष) में कण्व वंश का अन्त कर स्वयं शासन की बागडोर संभाली। परन्तु इस सब कारकों के होते हुए भी इस सम्भावना से इनकार नही किया जा सकता कि सिमुक जिसने 23वर्षों तक शासन किया वह कुछ समय पहले ही अर्थात पहली शताब्दी ई0पू0 के मध्य में ही सिंहासनारूढ़ हो गया होगा।
 
== सातवाहन वंश के शासक ==
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== गौतमी पुत्र श्री शातकर्णी (70ई0-95ई0)==
लगभग आधी शताब्दी की उठापटक तथा शक शासकों के हाथों मानमर्दन के बाद गौतमी पुत्र श्री शातकर्णी के नेतृत्व में अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुर्नस्थापित कर लिया। गौतमी पुत्र श्री शातकर्णी सातवाहन वंश का सबसे महान शासक था जिसने लगभग 25 वर्षों तक शासन करते हुए न केवल अपने साम्राज्य की खोई प्रतिष्ठा को पुर्नस्थापित किया अपितु एक विशाल साम्राज्य की भी स्थापना की। गौतमी पुत्र के समय तथा उसकी विजयों के बारें में हमें उसकी माता gaumatiगौतमी बालश्री के नासिक शिलालेखों से सम्पूर्ण जानकारी मिलती है। कुछ विशेषज्ञों द्वारा गौतमिपुत्र सत्कर्णी को राजा शालीवाहन भी माना जाता है। उन्होंने पूरे भारत को एकजुट कर दिया और विदेशी हमलावरों के खिलाफ बचाया।
उसके सन्दर्भ में हमें इस लेख से यह जानकारी मिलती है कि उसने क्षत्रियों के अहंकार का मान-मर्दन किया। उसका वर्णन शक, यवन तथा पहलाव शससकों के विनाश कर्ता के रूप में हुआ है। उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि क्षहरात वंश के शक शासक नहपान तथा उसके वंशजों की उसके हाथों हुई पराजय थी। जोगलथम्बी (नासिक) समुह से प्राप्त नहपान के चान्दी के सिक्कें जिन्हे कि गौतमी पुत्र शातकर्णी ने दुबारा ढ़लवाया तथा अपने शासन काल के अठारहवें वर्ष में गौतमी पुत्र द्वारा नासिक के निकट पांडु-लेण में गुहादान करना- ये कुछ ऐसे तथ्य है जों यह प्रमाणित करतें है कि उसने शक शासकों द्वारा छीने गए प्रदेशों को पुर्नविजित कर लिया। नहपान के साथ उनका युद्ध उसके शासन काल के 17वें और 18वें वर्ष में हुआ तथा इस युद्ध में जीत कर र्गातमी पुत्र ने अपरान्त, अनूप, सौराष्ट्र, कुकर, अकर तथा अवन्ति को नहपान से छीन लिया। इन क्षेत्रों के अतिरिक्त गौतमी पुत्र का ऋशिक (कृष्णा नदी के तट पर स्थित ऋशिक नगर), अयमक (प्राचीन हैदराबाद राज्य का हिस्सा), मूलक (गोदावरी के निकट एक प्रदेश जिसकी राजधानी प्रतिष्ठान थी) तथा विदर्भ (आधुनिक बरार क्षेत्र) आदि प्रदेशों पर भी अधिपत्य था। उसके प्रत्यक्ष प्रभाव में रहने वाला क्षेत्र उत्तर में [[मालवा]] तथा [[काठियावाड़]] से लेकर दक्षिण में [[कृष्णा नदी]] तक तथा पूवै में बरार से लेकर पश्चिम में कोंकण तक फैला हुआ था। उसने 'त्रि-समुंद्र-तोय-पीत-वाहन' उपाधि धारण की जिससे यह पता चलता है कि उसका प्रभाव पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिणी सागर अर्थात बंगाल की खाड़ी, अरब सागर एवं हिन्द महासागर तक था। ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी मृत्यु के कुछ समय पहले गौतमी पुत्र शातकर्णी द्वारा नहपान को हराकर जीते गए क्षेत्र उसके हाथ से निकल गए। गौतमी पुत्र से इन प्रदेशों को छीनने वाले संभवतः सीथियन जाति के ही करदामक वंश के शक शासक थे। इसका प्रमाण हमें टलमी द्वारा भूगोल का वर्णन करती उसकी पुस्तक से मिलता है। ऐसा ही निष्कर्ष 150 ई0 के प्रसिद्ध रूद्रदमन के जूनागढ़ के शिलालेख से भी निकाला जा सकता है। यह शिलालेख दर्शाता है कि नहपान से विजित गौतमीपुत्र शातकर्णी के सभी प्रदेशों को उससे [[रूद्रदमन]] ने हथिया लिया। ऐसा प्रतीत होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी ने करदामक शकों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर रूद्रदमन द्वारा हथियाए गए अपने क्षेत्रों को सुरक्षित करने का प्रयास किया।