"पन्थनिरपेक्ष": अवतरणों में अंतर

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भारत के संविधान का उद्देश्य संकल्प 22 जनवरी 1947 को पारित किया गया था। इस संकल्प के माध्यम से भावी भारत का उद्देश्य स्पष्ट किया गया था। इस उद्देश्य संकल्प की धारा 5 में कहा गया है-‘भारत की जनता को सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय, प्रतिष्ठा और अवसर की तथा विधि के समक्ष समता, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, उपासना, व्यवसाय, संयम और कार्य की स्वतंत्रता विधि और सदाचार के अधीन रहते हुए होगी।’ इस उद्देश्य संकल्प में राजधर्म का खाका खींचा गया है। पर इस संकल्प में विश्वास, धर्म और उपासना तीन शब्दों को अलग अलग करके लिखा गया है। यह बात महत्वपूर्ण भी है और विचारणीय भी है। स्पष्ट है कि विश्वास का अर्थ-सम्प्रदाय, मत, पंथ, मजहब से है, और उपासना का अर्थ उसकी पूजन विधि से है, जबकि धर्म को सभी नैतिक नियमों का समुच्चय मानकर हर व्यक्ति के लिए समान माना गया है। <u>'''''धर्म''' केवल और केवल '''निरा मानवतावाद''' है तो हर व्यक्ति के दिल को दूसरों के दिलों से जोड़ता है और एक सुंदर सी माला में पिरोकर सबको एक ही माला के मोती बना देता है।''</u> यह धर्म तब बाधित हो जाता है जब कोई व्यक्ति जाति, सम्प्रदाय अथवा मजहब की पूर्वाग्रही मतान्धता से किसी व्यक्ति या वर्ग का कहीं जीना हराम कर देता है। जैसा कि आजकल पूर्वोत्तर भारत में तथा कश्मीर में हिंदुओं के साथ ईसाइयत और इस्लाम कर रहे हैं। धर्म नितांत नैसर्गिक वस्तु है, जिसे निर्बाध प्रवाहित रखने के लिए संविधान में उसे अलग शब्द से अभिहित किया गया। जबकि मजहब एक भौतिक वस्तु है, जो अलगाव पैदा करता है, धर्म जोड़ता है और मजहब तोड़ता है। मजहब (पंथ-सम्प्रदाय) की इसी दुर्बलता को समझते हुए 1976 में संविधान में 42 वां संशोधन किया गया व '''''पंथनिरपेक्षता''''' शब्द समाहित किया  गया। '''‘पंथ निरपेक्षता’''' ''ही राज्य का धर्म है। '''इसका अभिप्राय है कि भारत में कोई राजकीय चर्च या शाही मस्जिद या राजकीय मंदिर नही होगा।''' भारत का सर्वोच्च राजकीय मंदिर संसद होगी और उस संसद में विधि के समक्ष समानता के आदर्श के दृष्टिगत सर्वमंगल कामना (सबके लिए समान विधि का निर्माण) किया जाएगा''। व्यवहार में हमने धर्म को मटियामेट कर दिया। '''''<u>यहां सम्प्रदायों, पंथों और मजहबों को धर्म माना गया है। ऐसा मानकर भारी भूल की गयी है। इस भारी भूल के पीछे वास्तविक कारण अंग्रेजी भाषा का है, क्योंकि उसके पास धर्म का पर्यायवाची कोई शब्द है ही नही</u>'''''। उसने जिसे ‘रीलीजन’ कहा है वह सम्प्रदाय अथवा मजहब का पर्यायवाची या समानार्थक है। अंग्रेज धर्म की पवित्रता को समझ नही पाए और वह संसार में सबसे प्यारी वस्तु बाईबिल और उसकी मान्यताओं को मानते थे, इसलिए उन्होंने धर्म का अर्थ इन्हीं से जोड़ दिया। इसी बात का अनुकरण अन्य मतावलंबियों ने किया। इस प्रकार अनेक धर्मों के होने का भ्रम पैदा हो गया। अब इसे रटते रटते यह भ्रम इतना पक्का हो गया है कि टूटे नही टूट रहा। भारत में ही बहुत लोग हैं जो, भारत को विभिन्न धर्मों का देश मानते हैं। इसलिए सर्वधर्म समभाव के गीत गाते हैं। उन्हें नही पता कि भारत कभी भी सर्वधर्म समभाव का समर्थक नही रहा। भारत मानव धर्म का समर्थक रहा है और उसने सर्व सम्प्रदाय समभाव को अपनी संस्कृति का प्राणतत्व घोषित किया है।