"बागेश्वर जिला": अवतरणों में अंतर

बागेश्वर जनपद में स्थित महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध मंदिर और स्थलों का विवरण।
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== इतिहास ==
वर्तमान बागेश्वर क्षेत्र ऐतिहासिक तौर पर दानपुर के नाम से जाना जाता था, और ७वीं शताब्दी के समय यहाँ [[कत्यूरी राजवंश]] का शासन था। १३वीं शताब्दी में कत्यूरी राजवंश के विघटन के बाद यह क्षेत्र बैजनाथ कत्यूरों के शासन में आ गया। १५६५ में राजा बालो कल्याण चन्द ने [[पाली पछांऊॅं|पाली]], [[अल्मोड़ा तहसील|बारहमण्डल]] और [[गंगोली राज्य|गंगोली]] के साथ दानपुर पर भी कब्ज़ा कर इसे कुमाऊं में शामिल कर लिया। सन् १६०२ मे राजा लक्ष्मी चन्द ने बागनाथ के वर्तमान मुख्य मन्दिर एवं मन्दिर समूह का पुनर्निर्माण किया था।था तथा इन मंदिरों की सुरक्षा और देखरेख की जिम्मेदारी कत्यूरी राजवंश के सूर्यवंशी धामी मणि सिंह को १७९१ में सौंपी, कुमाऊं की राजधानी [[अल्मोड़ा]] पर [[नेपाल]] के गोरखाओं ने हमला किया और कब्जा कर लिया। गोरखाओं ने इस क्षेत्र पर २४ वर्षों तक शासन किया और बाद में १८१४ में [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी|ईस्ट इंडिया कंपनी]] द्वारा पराजित होकर, १८१६ में [[सुगौली संधि]] के तहत कुमाऊं को अंग्रेजों को सौंप दिया।
 
१९वीं सदी के प्रारम्भ में बागेश्वर आठ-दस घरों की एक छोटी सी बस्ती थी। सन् १८६० के आसपास यह स्थान २००-३०० दुकानों एवं घरों वाले एक कस्बे का रूप धारण कर चुका था। मुख्य बस्ती मन्दिर से संलग्न थी। [[सरयू नदी (उत्तराखण्ड)|सरयू नदी]] के पार दुग बाजार और सरकारी डाक बंगले का विवरण मिलता है। एटकिन्सन के हिमालय गजेटियर में वर्ष १८८६ में इस स्थान की स्थायी आबादी ५०० बतायी गई है। वर्ष १९२१ के [[उत्तरायणी मेला, बागेश्वर|उत्तरायणी मेले]] के अवसर पर कुमाऊँ केसरी [[बद्री दत्त पाण्डेय]], हरगोविंद पंत, श्याम लाल साह, विक्टर मोहन जोशी, राम लाल साह, मोहन सिह मेहता, ईश्वरी लाल साह आदि के नेतृत्व में सैकड़ों आन्दोलनकारियों ने [[कुली-बेगार आन्दोलन|कुली बेगार के रजिस्टर बहा कर]] इस कलंकपूर्ण प्रथा को समाप्त करने की कसम इसी सरयू तट पर ली थी।