"जनमेजय": अवतरणों में अंतर

टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल एप सम्पादन Android app edit
छो 103.83.147.26 (Talk) के संपादनों को हटाकर Fathimahazara के आखिरी अवतरण को पूर्ववत किया
टैग: वापस लिया
पंक्ति 21:
[[चित्र:00005 Janamejaya and brothers.jpg|right|thumb|400px| जनमेजय और उनके भाई]]
महाभारत में जनमेजय के छः और भाई बताये गये हैं। यह भाई हैं कक्षसेन, उग्रसेन, चित्रसेन, इन्द्रसेन, सुषेण तथा नख्यसेन।<ref>{{cite journal|title =Journal of the Department of Letters|editor= University of Calcutta (Dept. of Letters)|Publisher =Calcutta University Press|date= 1923|accessdate=2012-05-10|isbn =| p2}}</ref> महाकाव्य के आरम्भ के पर्वों में जनमेजय की [[तक्षशिला]] तथा सर्पराज [[तक्षक]] के ऊपर विजय के प्रसंग हैं। सम्राट जनमेजय अपने पिता परीक्षित की मृत्यु के पश्चात् [[हस्तिनापुर]] की राजगद्दी पर विराजमान हुये। पौराणिक कथा के अनुसार परीक्षित पाण्डु के एकमात्र वंशज थे। उनको श्रंगी ऋषि ने शाप दिया था कि वह सर्पदंश से मृत्यु को प्राप्त होंगे। ऐसा ही हुआ और सर्पराज तक्षक के ही कारण यह सम्भव हुआ। जनमेजय इस प्रकरण से बहुत आहत हुये। उन्होंने सारे सर्पवंश का समूल नाश करने का निश्चय किया। इसी उद्देश्य से उन्होंने '''सर्प सत्र''' या '''सर्प यज्ञ''' के आयोजन का निश्चय किया। यह यज्ञ इतना भयंकर था कि विश्व के सारे सर्पों का महाविनाश होने लगा। उस समय एक बाल ऋषि [[अस्तिक]] उस यज्ञ परिसर में आये। उनकी माता [[मानसा]] एक नाग थीं तथा उनके पिता एक [[ब्राह्मण]] थे।<br />
इस संदर्भ में यह बताना उचित होगा कि कुछ जातियों ने तो उनके रीति-रिवाज़ स्वीकार कर लिए किन्तु कुछ ने इससे साफ़ इनकार कर दिया। इन जन-जातियों को आर्य पृथक-पृथक नाम दे देते थे और क्योंकि उस युग में उनकी प्रभुता थी, इस कारण से उनके द्वारा लिखे या बोले गये ग्रन्थों में यही नाम आज भी उजागर होते हैं। आर्यों ने ऐसी जन-जातियों को, जो उनके वश में न आ सके ऐसे नाम दे डाले जिनसे वह स्वयं भयभीत होते हों। उदाहरण के लिए '''नाग''', '''असुर''', '''दानव''' इत्यादि। तो यदि जनमेजय नाग वंश का समूल नाश करने जा रहे थे, तो उसका अभिप्राय यह है कि आर्यों की दृष्टि में भारत की कोई जन-जाति, जो उनके वश में नहीं थी और जिसका उन्होंने '''नाग''' से नामकरण कर दिया था, उस जन-जाति का विनाश होने जा रहा था। [[वामपंथी]]अस्तिक के आग्रह के कारण जनमेजय ने सर्प सत्र या यज्ञ समाप्त कर दिया।<br />
तब वेद व्यास के सबसे प्रिय शिष्य [[वैशम्पायन]] वहाँ पधारे। जनमेजय ने उनसे अपने पूर्वजों के बारे में जानकारी लेनी चाही। तब ऋषि वैशम्पायन ने जनमेजय को [[भरत (चक्रवर्ती)|भरत]] से लेकर [[कुरुक्षेत्र]] युद्ध तक [[कुरु]] वंश का सारा वृत्तांत सुनाया। और इसे [[उग्रश्रव सौती]] ने भी सुना और [[नैमिषारण्य]] में जाकर सारे ऋषि समूह, जिनके प्रमुख [[शौनक]] ऋषि थे, को सुनाया।