"श्री गायत्री देवी": अवतरणों में अंतर

No edit summary
टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
छोNo edit summary
पंक्ति 68:
इस शक्ति के द्वारा अनेक पदार्थों तथा प्राणियों का निर्माण होना था, इसलिए उसे भी तीन भागों में अपने को विभाजित कर देना पड़ा, ताकि अनेक प्रकार के सम्मिश्रण तैयार हो सकें और विविध गुण, कर्म, स्वभाव वाले जड़, चेतन पदार्थ बन सकें। ब्रह्मशक्ति के ये तीन टुकड़े- (१) सत् (२) रज (३) तम- इन तीन नामों से पुकारे जाते हैं। सत् का अर्थ है- ईश्वर का दिव्य तत्त्व। तम का अर्थ है- निर्जीव पदार्थों में परमाणुओं का अस्तित्व। रज का अर्थ है- जड़ पदार्थों और ईश्वरीय दिव्य तत्त्व के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुई आनन्द दायक चैतन्यता। ये तीन तत्त्व स्थूल सृष्टि के मूल कारण हैं। इनके उपरान्त स्थूल उपादान के रूप में मिट्टी, पानी, हवा, अग्रि, आकाश- ये पाँच स्थूल तत्त्व और उत्पन्न होते हैं। इन तत्त्वों के परमाणुओं तथा उनकी शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तन्मात्राओं द्वारा सृष्टि का सारा कार्य चलता है। प्रकृति के दो भाग हैं—सूक्ष्म प्रकृति, जो शक्ति प्रवाह के रूप में, प्राण संचार के रूप में कार्य करती है, वह सत्, रज, तममयी है। स्थूल प्रकृति, जिससे दृश्य पदार्थों का निर्माण एवं उपयोग होता है, परमाणुमयी है। यह मिट्टी, पानी, हवा आदि स्थूल पंचतत्त्वों के आधार पर अपनी गतिविधि जारी रखती है।
 
उपर्युक्त पंक्तियों के पाठक समझ गए होंगे कि पहले एक ब्रह्म था, उसकी स्फुरणा से [[आदिशक्ति]] का आविर्भाव हुआ। इस आदिशक्ति का नाम ही गायत्री है। जैसे ब्रह्म ने अपने तीन भाग कर लिए- (१) सत्- जिसे ह्रीं या सरस्वती कहते हैं, (२) रज- जिसे ‘श्रीं’ या लक्ष्मी कहते हैं, (३) तम- जिसे ‘क्लीं’ या काली कहते हैं। वस्तुत: ‘सत्’ और ‘तम’ दो ही विभाग हुए थे; इन दोनों के मिलने से जो धारा उत्पन्न हुई, वह रज कहलाती है। जैसे गंगा, यमुना जहाँ मिलती हैं, वहाँ उनकी मिश्रित धारा को सरस्वती कहते हैं। सरस्वती वैसे कोई पृथक् नदी नहीं है। जैसे इन दो नदियों के मिलने से सरस्वती हुई, वैसे ही सत् और तम के योग से रज उत्पन्न हुआ और यह त्रिधा प्रकृति कहलाई।
 
अद्वैतवाद, द्वैतवाद, त्रैतवाद का बहुत झगड़ा सुना जाता है, वस्तुतः: यह समझने का अन्तर मात्र है। ब्रह्म, जीव, प्रकृति यह तीनों ही अस्तित्व में हैं। पहले एक ब्रह्म था, यह ठीक है, इसलिए अद्वैतवाद भी ठीक है। पीछे ब्रह्म और शक्ति (प्रकृति) दो हो गए, इसलिए द्वैतवाद भी ठीक है। प्रकृति और परमेश्वर के संस्पर्श से जो रसानुभूति और चैतन्यता मिश्रित रज सत्ता उत्पन्न हुई, वह जीव कहलाई। इस प्रकार त्रैतवाद भी ठीक है। मुक्ति होने पर जीव सत्ता नष्ट हो जाती है। इससे भी स्पष्ट है कि जीवधारी की जो वर्तमान सत्ता मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के ऊपर आधारित है, वह एक मिश्रण मात्र है।