"महावाक्य": अवतरणों में अंतर

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* '''[[अहं ब्रह्मास्मि ]]''' - "मैं ब्रह्म हूँ" ( बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद)
 
* '''[[तत् त्वं असितत्त्वमसि]]''' - "वह ब्रह्म तू है" ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद )
 
* '''[[अयम् आत्मा ब्रह्म]]''' - "यह आत्मा ब्रह्म है" ( माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद )
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* '''[[ सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् ]]''' - "सर्वत्र ब्रह्म ही है" ( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद )
 
 
* '''[[ एको अहं द्वितीय नास्ति,न भुतो न भविष्यति]]'''- "एक मैं ही हुँ,दुसरा कोई नहीं।ना भुत में ओर ना ही भविष्य में
 
[[उपनिषद्|उपनिषद]] के यह महावाक्य निराकार ब्रह्म और उसकी सर्वव्यापकता का परिचय देते है। यह महावाक्य उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय और मन का संघटन मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुख, जन्म-मरण से परे दिव्यस्वरूप है, आत्मस्वरूप है। आत्मभाव से मनुष्य जगत का द्रष्टा भी है और दृश्य भी। जहां-जहां ईश्वर की सृष्टि का आलोक व विस्तार है, वहीं-वहीं उसकी पहुंच है। वह परमात्मा का अंशीभूत आत्मा है। यही जीवन का चरम-परम पुरुषार्थ है।