"टिहरी गढ़वाल जिला": अवतरणों में अंतर

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ईस्‍ट इंडिया कंपनी ने फिर कुमाऊँ, देहरादून और पूर्व (ईस्‍ट) गढ़वाल को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया और पश्‍चिम गढ़वाल राजा सुदर्शन शाह को दे दिया जिसे तब टेहरी रियासत के नाम से जाना गया।
 
राजा सुदर्शन शाह ने अपनी राजधानी टिहरी या टेहरी शहर को बनाया, बाद में उनके उत्तराधिकारी प्रताप शाह, कीर्ति शाह और नरेन्‍द्र शाह ने इस राज्‍य की राजधानी क्रमशः प्रताप नगर, कीर्ति नगर और नरेन्‍द्र नगर स्‍थापित की। इन तीनों ने 1815 से सन्‌ 1949 तक राज्‍य किया। तब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान यहाँ के लोगों ने भी काफी बढ चढ कर हिस्‍सा लिया। आजादी के बाद, लोगों के मन में भी राजाओं के शासन से मुक्‍त होने की इच्‍छा बलवती होने लगी। महाराजा के लिये भी अब राज करना मुश्‍किल होने लगा था। और फिर अंत में 60 वें राजा मानवेन्‍द्र शाह ने भारत के साथ एक हो जाना कबूल कर लिया। इस तरह सन्‌ 1949 में टिहरी राज्‍य को उत्तर प्रदेश में मिलाकर इसी नाम का एक जिला बना दिया गया। बाद में 24 फरवी 1960 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इसकी एक तहसील को अलग कर उत्तरकाशी नाम का एक ओर जिला बना दिया। ऐसे ही स्वर्ग की दूसरी सीढ़ी के मदिर जहां रावण ने शिव की तपस्या की थी ओर स्वर्ग की दूसरी सीढ़ी का निर्माण किया था जानने के लिए यहाँ क्लिक करें ।https://www.jmkinfo.in/2020/06/swarg-ki-dusari-sidhi.html
 
== पर्यटन स्थल ==
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हमारे देश में अनेक प्रसिध्द तीर्थ स्थल एवम सुन्दतम स्थान है। जहां भ्रमण कर मनुष्य स्वयं को भूलकर परमसत्ता का आभास कर आनन्द की प्राप्ति करता है। केदारखंड का गढ़वाल हिमालय तो साक्षात देवात्मा है, जहां से प्रसिध्द तीर्थस्थल बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री के अलावा एक और परमपावन धाम है बूढ़ा केदारनाथ धाम जिसका पुराणो में अत्यधिक मह्त्व बताया गया है। इन चारों पवित्र धामॊं के मध्य वृद्धकेदारेश्वर धाम की यात्रा आवश्यक मानी गई है, फलत: प्राचीन समय से तीर्थाटन पर निकले यात्री श्री बूढ़ा केदारनाथ के दर्शन अवश्य करते रहे हैं। श्रीबूढ़ा केदारनाथ के दर्शन से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। यह भूमि बालखिल्या पर्वत और वारणावत पर्वत की परिधि में स्थित सिद्धकूट, धर्मकूट, यक्षकूट और अप्सरागिरी पर्वत श्रेणियों की गोद में भव्य बालगंगा और धर्मगंगा के संगम पर स्थित है। प्राचीन समय में यह स्थल पांच नदियों क्रमश: बालगंगा, धर्मगंगा, शिवगंगा, मेनकागंगा व मट्टानगंगा के संगम पर था। सिद्धकूट पर्वत पर सिद्धपीठ ज्वालामुखी का भव्य मन्दिर है। धर्मकूट पर महासरताल एवं उत्तर में सहस्रताल एवं कुशकल्याणी, क्यारखी बुग्याल है। यक्षकूट पर्वत पर यक्ष और किन्नरों की उपस्थिति का प्रतीक मंज्याडताल व जरालताल स्थित है। दक्षिण में भृगुपर्वत एवं उनकी पत्नी मेनका अप्सरा की तपोभूमि अप्सरागिरी श्रृंखला है, जिनके नाम से मेड गांव व मेंडक नदी का अपभ्रंस रूप में विध्यामान है। तीन योजन क्षेत्र में फैली हुयी यह भूमि टिहरी रियासत काल में कठूड पट्टी के नाम से जानी जाती थी, जो सम्प्रति नैल्डकठूड, गाजणाकठूड व थातीकठूड इन तीन पट्टियों में विभक्त है। इन तीन पट्टियों का केन्द्र स्थल थातीकठूड है। नब्बे जोला अर्थात 180 गांव को एकात्माता, पारिवारिकता प्रदान करने वाला प्रसिध्द देवता गुरुकैलापीर है, जिसका मुख्य स्थल (थात) यही भूमि है।
श्री बूढ़ा केदारनाथ से महासरताल, सहस्र्ताल, मंज्याडाताल, जरालताल, बालखिल्याश्रम भृगुवन तथा विनकखाल सिध्दपीठ ज्वालामुखी भैरवचट्टी हटकुणी होते हुऐ त्रिजुगीनारायण केदारनाथ की पैदल यात्रा की जाती है। स्कन्द पुराण के केदारखंड में सोमेश्वर महादेव के रूप में वर्णित भगवान बूढ़ा केदार के बारे में मान्यता है कि गोत्रहत्या के पाप से मुक्ति पाने हेतु पांडव इसी भूमि से स्वर्गारोहण हेतु हिमालय की ओर गये तो भगवान शंकर के दर्शन बूढॆ ब्राहमण के रूप में बालगंगा-धर्मगंगा के संगम पर यहीं हुऐ और दर्शन देकर भगवान शंकर शिला रूप में अन्तर्धान हो गये। वृद्ध ब्राहमण के रूप में दर्शन देने पर सदाशिव भोलेनाथ बृध्दकेदारेश्वर के या बूढ़ाकेदारनाथ कहलाए। श्रीबूढ़ाकेदारनाथ मन्दिर के गर्भगृह में विशाकल लिंगाकार फैलाव वाले पाषाण पर भगवान शंकर की मूर्ती, लिंग, श्रीगणेश जी एवं पांचो पांडवों सहित द्रोपती के प्राचीन चित्र उकेरे हुए हैं। बगल में भू शक्ति, आकाश शक्ति व पाताल शक्ति के रूप में विशाल त्रिशूल विराजमान है। साथ ही कैलापीर देवता का स्थान एक लिंगाकार प्रस्तर के रूप में है। बगल वाली कोठरी पर आदि शक्ति महामाया दुर्गाजी की पाषाण मूर्ती विराजमान है।प्राचीन मान्यताओ के अनुसार बूढ़ाकेदार नाथ मंदिर के पुजारी गुरु गोरक्ष् नाथ सम्प्रदाय के नाथ रावल लोग होते है जो कि यंही मंदिर के आसपास बसे हुये हैं। कानो में कुंडल धारण करके संभुजति गुरु गोरक्ष् नाथ की दिक्षा प्राप्त करके मंदिर की पूजा करते है यहीं पर नाथ सम्प्रदाय की पीर गद्दी आज भी बिद्यमान है जहा पर नवरात्री में नाथ जाती का सिद्ध पीर बैठता है, और जिसके शरीर पर हरियाली पैदा की जाती है। बाह्य कमरे में भगवान गरुड की मूर्ती तथा बाहर मैदान में दर्शनी नाथ अर्थात पुजारियो के समाधिस्थ हो जाने पर स्वर्गीय नाथ पुजारियों को समाधियां दी जाती है। जिसमे कई सो साल पुरानी सत्ती समाधी और कई पुजारियो की समाधी आज भी मंदिर प्रांगण में बिद्यमान है।
केदारखंड में थाती गांव को मणिपुर की संग्या दी गयी है। जहां पर टिहरी नरेशों की आराध्य देवी राजराजेश्वरी प्राचीन मन्दिर व उत्तर में विशाल पीपल के वृक्छ के नीचॆ छोटा शिवालय है जहां माघ व श्रावण रुद्राभिषॆक होता है। जबकि [[आदिशक्ति]] व सिध्दपीठ मां राजराजेश्वरी एवं कैलापीर की पूजा व्यवस्था टिहरी नरेश द्वारा बसायॆ गयॆ सेमवाल जाति के लोग करते हैं। कुछ पौराणिक मान्यताऒं एवं किन्ही अपरिहर्य कारणॊ से राजमानी एवं क्षेत्र का प्रसिध्द आराध्य देवता गुरु कैलापीर राजराजेश्वरी मंदिर में वास करता है। देवता (श्रीगुरुकैलापीर) को उठाने वाले सेमवाल जाति के ही लोग हैं जिन्हॆ निज्वाळा कहते है। थाती गांव में श्रीगुरुकैलापीर देवता के नाम से मार्गशीर्ष प्रतिपदा को बलिराज मेला लगता है और दीपावली मनाई जाती है। मार्गशीर्ष के इस दीपावली और मेले में देवता के दर्शन व भ्रमण हेतु दूर दूर से लोग थाती गांव में आते हैं। इस क्षेत्र के देश विदेश में रहने वाले प्रवासी अपने आराध्य के दर्शन हेतु वर्ष में इसी मौके की प्रतिक्छा करते है। कुछ लोग मानते है कि गढवाल के भड बीर माधॊसिंह भण्डारी का इस क्षेत्र से विशॆष लगाव था, जिनकी स्मृति में लोग मार्गशीर्ष में दीपावली मनाते हैं। बूढ़ाकेदार पवित्र तीर्थस्थल होने के साथ साथ एक सुरम्य स्थल भी है। गांव के दोनो ऒर से पवित्र जल धाऱायें बालगंगा व धर्मगंगा के रूप में प्रवाहित होती है। यह इलाका अपनी सुरम्यता के कारण पर्यटकॊं को अपनी ऒर आकर्षित करने की पूर्ण छमता रखता है। घनशाली से 30 कि0मी0 दूरी पर स्थित यह स्थल पर्यटकॊं को शांति एवं आनंद प्रदान करने में सक्षम है।
 
=== देवप्रयाग ===