"समुद्रगुप्त": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
संजीव कुमार (वार्ता | योगदान) छो 2405:205:210B:C0E0:2520:3A53:F327:F8D8 (Talk) के संपादनों को हटाकर InternetArchiveBot के आखिरी अवतरण को पूर्ववत किया टैग: वापस लिया |
→परिचय: छोटा सा सुधार किया। टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल एप सम्पादन Android app edit |
||
पंक्ति 22:
समुद्रगुप्त के पिता गुप्तवंशीय सम्राट चंद्रगुप्त प्रथम और माता लिच्छिवि कुमारी श्रीकुमरी देवी थी। [[चन्द्रगुप्त प्रथम|चंद्रगुप्त]] ने अपने अनेक पुत्रों में से समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी चुना और अपने जीवनकाल में ही समुद्रगुप्त को शासनभार सौंप दिया था। प्रजाजनों को इससे विशेष हर्ष हुआ था किंतु समुद्रगुप्त के अन्य भाई इससे रुष्ट हो गए थे और राज्य में ग्रहयुद्ध छिड़ गया। प्रतिद्वंद्वी में सबसे आगे राजकुमार काछा थे। काछा के नाम के कुछ सोने के सिक्के भी मिले है। गृहकलह को शांत करने में समुद्रगुप्त को एक वर्ष का समय लगा। इसके पश्चात् उसने दिग्विजययात्रा की। इसका वर्णन प्रयाग में अशोक मौर्य के स्तंभ पर विशद रूप में खुदा हुआ है। पहले इसने आर्यावर्त के तीन राजाओं-अहिच्छव का राजा अच्युत, पद्मावती का भारशिववंशी राजा नागसेन और राज कोटकुलज-को विजित कर अपने अधीन किया और बड़े समारोह के साथ पुष्पपुर में प्रवेश किया। इसके बद उसने दक्षिण की यात्रा की और क्रम से कोशल, महाकांतर, भौराल पिष्टपुर का महेंद्रगिरि (मद्रास प्रांत का वर्तमान पीठापुराम्), कौट्टूर, ऐरंडपल्ल, कांची, अवमुक्त, वेंगी, पाल्लक, देवराष्ट्र और कोस्थलपुर (वर्तमान कुट्टलूरा), बारह राज्यों पर विजय प्राप्त की।
जिस समय समुद्रगुप्त दक्षिण विजययात्रा पर
इसने अनेक नष्टप्राय जनपदों का पुनरुद्धार भी किया था, जिससे इसकी कीर्ति सर्वत्र फैल गई थी। सारे भारतवर्ष में अबाध शासन स्थापित कर लेने के पश्चात् इसने अनेक अश्वमेध यज्ञ किए और ब्राह्मणों दीनों, अनाथों को अपार दान दिया। शिलालेखों में इसे 'चिरोत्सन्न अश्वमेधाहर्त्ता' और 'अनेकाश्वमेधयाजी' कहा गया है। हरिषेण ने इसका चरित्रवर्णन करते हुए लिखा है-
|