"विश्वप्रपंच": अवतरणों में अंतर

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समाज से अलग किसी सभ्यता और संस्कृति का विकास सम्भव नहीं है। स्पष्टतः यह भौतिकवादी दृष्टि का इजहार है। मामला चूँकि धर्म का है जिसका अलौकिकता से अनिवार्य सम्बन्ध माना जाता रहा है, इसलिए आचार्य शुक्ल विकासवाद की एतत्सम्बन्धी मान्यता का पुनः उल्लेख करते हुए उसका समर्थन करते है विकासवाद की व्याख्या के अनुसार धर्म कोई अलौकिक, नित्य और स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। समाज के आश्रय से ही उसका क्रमशः विकास हुआ है। धर्म का कोई ऐसा सामान्य लक्षण नहीं बताया जा सकता जो सर्वत्र और सब काल में मनुष्य जाति की जब से उत्पत्ति हुई है तब से अब तक बराबर मान्य रहा है। समाज की ज्यों-ज्यों वृद्धि होती गयी त्यों-त्यों धर्म की भावना में भी देशकालानुसार फेरफार होता गया। कोई समय था जब एक कुल दूसरे कुल की स्त्रियों को चुराना या लड़कर छीनना अच्छा समझता था। देवताओं की वेदियों पर नर-बलि देने में किसी के रोंगटे खड़े नहीं होते थे। बाइबिल में इसके कई उल्लेख हैं, शुनःशेप की वैदिक गाथा भी एक उदाहरण है। (उपर्युक्त पृ,.156-57) संक्षेप में कहें तो आचार्य शुक्ल की विश्व-दृष्टि परलोकवादी न होकर लोकवादी थी, जिसके निर्माण में धर्म और भाववादी दर्शन से अधिक वैज्ञानिक अनुसन्धान और चिन्तन का योग था। उनकी यही दृष्टि, जोकि निरन्तर विकासमान है उनके सामाजिक राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक चिन्तन में अभिव्यक्त हुई है।
 
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== बाहरी कड़ियाँ==
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* [https://web.archive.org/web/20100322203148/http://www.hindisamay.com/Alochana/shukl%20granthavali6/bhag%201.htm '''विश्वप्रपंच''' का सम्पूर्ण पाठ] (हिन्दी-समय पर)
सम्पूर्ण मानव-सभ्यता को विकासमान माना। उन्होंने लिखा है कि इस सिद्धान्त के अनुसार जिस प्रकार यह असिद्ध है कि शा से उन्नति करते-करते सभ्य दशा को प्राप्त हुई है। मनुष्य ऐसा प्राणी सृष्टि के आदि में ही एक बार उत्पन्न हो गया, उसी प्रकार यह भी असिद्ध है कि मनुष्य जाति के बीच धर्म, ज्ञान और सभ्यता आदिम काल में भी उतनी ही या उससे बढ़कर थी जितनी आजकल है।