तृतीय आयोग की नियुक्ति का प्रमुख कारण द्वितीय आयोग का अल्पायु होना था। सीमित समय में द्वितीय आयोग कार्य पूर्ण न कर सका था। तृतीय आयोग १८६१ में निर्मित हुआ। इसके सम्मुख मुख्य समस्या थी मौलिक दीवानी विधि के संग्रह का प्रारूप बनाना। तृतीय आयोग की नियुक्ति भारतीय विधि के संहिताकरण की ओर प्रथम पग था।
आयोग ने सात रिपोर्टें दीं। प्रथम रिपोर्ट ने आगे चलकर भारतीय दाय विधि १८६५ का रूप लिया। द्वितीय रिपोर्ट में था अनुबंध विधि का प्रारूप, तृतीय में भारतीय परक्राम्यकरण विधि का प्रारूप, चतुर्थ में विशिष्ट अनुतोष विधि का, पंचम में भारतीय साक्ष्य विधि का एवं षष्ठ में संपत्ति हस्तांतरण विधि का प्रारूप प्रस्तुत किया गया था। सप्तम एवं अंतिम रिपोर्ट आपराधिक संहिता के संशोधन के विषय में थी। इन रिपोर्टों के उपरांत भी उन्हें विधि का रूप देने में भारतीय शासन ने कोई तत्परता नहीं दिखाई। १८६९ में इस विषय की ओर आयोग के सदस्यों ने अधिकारियों का ध्यान आकर्षित भी किया। किंतु परिणाम कुछ न निकला। इसी बीच सदस्यों तथा भारत सरकार के मध्य अनुबंध विधि के प्रारूप पर मतभेद ने विकराल रूप ले लिया, फलत: आयोग के सदस्यों ने असंतोष व्यक्त करते हुए त्यागपत्र दे दिया और इस प्रकार तृतीय आयोग समाप्त हो गया।