"जैन दर्शन": अवतरणों में अंतर
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[[सत्य]] का अनुसंधान करने वाले 'जैन' शब्द की व्युत्पत्ति ‘जिन’ से मानी गई है, जिसका अर्थ होता है- विजेता अर्थात् वह व्यक्ति जिसने इच्छाओं (कामनाओं) एवं मन पर विजय प्राप्त करके हमेशा के लिए संसार के आवागमन से मुक्ति प्राप्त कर ली है। इन्हीं जिनो के उपदेशों को मानने वाले जैन तथा उनके साम्प्रदायिक सिद्धान्त जैन दर्शन के रूप में प्रख्यात हुए। जैन दर्शन ‘अर्हत दर्शन’ के नाम से भी जाना जाता है। जैन धर्म में चौबीस [[तीर्थंकर]] (महापुरूष, जैनों के ईश्वर) हुए जिनमें प्रथम [[ऋषभदेव]] तथा अन्तिम [[महावीर]] (वर्धमान) हुए। इनके कुछ तीर्थकरों के नाम [[ऋग्वेद]] में भी मिलते हैं, जिससे इनकी प्राचीनता प्रमाणित होती है।
जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ [[प्राकृत]] (मागधी) भाषा में लिखे गये हैं। बाद में कुछ जैन विद्धानों ने [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] में भी ग्रन्थ लिखे। उनमें १०० ई॰ के आसपास [[उमास्वामी|आचार्य उमास्वामी]] द्वारा रचित [[तत्त्वार्थ सूत्र]] बड़ा महत्वपूर्ण है। वह पहला ग्रन्थ है जिसमें संस्कृत भाषा के माध्यम से जैन सिद्धान्तों के सभी अंगों का पूर्ण रूप से वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् अनेक जैन विद्वानों ने संस्कृत में [[व्याकरण]], [[दर्शनशास्त्र|दर्शन]], [[काव्य]], [[नाटक]] आदि की रचना की। संक्षेप में इनके सिद्धान्त इस प्रकार हैं-
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