"हाथरस": अवतरणों में अंतर
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== इतिहास ==
हाथरस में दक्षिण-पश्चिमी दिशा में 16वीं शताब्दी के जाटों द्वारा निर्मित एक दुर्ग के भग्नावशेष विद्यमान हैं।जो इंगित करता है कि जब शहर बनाया गया था और इसे किसने बनाया था। जाट, कुशन, गुप्त साम्राज्य, ने इस क्षेत्र पर शासन किया। बलराम का मंदिर हाथरस के किले के भीतर बनाया गया था।हाथरस किला
हाथरस का इतिहास श्री भूरि सिंह के बाद शुरू होता है जब उनके पुत्र राजा देवराम को 1775 सीई में ताज पहनाया गया था। 1784 में सिंधिया शासक माधवराव आई सिंधिया ने हथत्रों के क्षेत्र में अपना शासन स्थापित किया। हिंदुओं, बौद्ध और जैन संस्कृति के पुरातत्व अवशेषों के साथ-साथ शंग और कुशन काल के सामान हाथों में कई स्थानों पर पाए गए। पाए गए पुरातात्विक और ऐतिहासिक वस्तुओं में से हैं: राजा देराम के किले, मौर्य काल से हाथरस शहर में स्थित थे, जो 2 शताब्दी ईसा पूर्व में था। भूरा रंग का बर्तन, और सप्त मट्रिकलम, कुशान काल की मिट्टी प्रतिमा। क्षेत्ररेश महादेव क्षेत्र में उल्लेखनीय पुराने मंदिरों में से एक है। वस्तुओं के अवशेष, जब शाव शासकों और नागाराजों का वर्चस्व उस समय हुआ जब कई, बिखरे हुए स्थानों में स्थित थे। नागवंशी क्षत्रिय कबीले शासकों की अवधि के दौरान: नायर सेश्वतारा भगवान बलराम जी बहुत महत्व के थे और उनके मंदिर इस क्षेत्र में पाए जा सकते हैं। पुरानी टूटी हुई मूर्तियां जिनमें महान पुरातात्विक मूल्य है अभी भी ब्रज क्षेत्र में पूजा की जाती है। यहां खोजा जाने वाले पुरातात्विक अवशेष और मूर्तियां मथुरा संग्रहालय में रखी गई हैं। नयनगंज के जैन मंदिर जैन संस्कृति की कहानी कहता है। संवत 1548 "वी।" यहां सबसे पुरानी मूर्तियों पर लिखा है। अन्य लोगों के अलावा सिकंदर राव, महो और सास्नी के अवशेषों के अंतर्गत अधिक ऐतिहासिक वस्तुएं खोल दी गई हैं। ▼
राजा दयाराम सिंह हाथरस(उत्तर प्रदेश) के राजा थे।इनके पूर्वजो ने हिन्दू धर्म रक्षा का अनोखा इत्तिहास रचा था।और इनके वंशज राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने आजाद हिंद फौज व सरकार का निर्माण किया था।
राजा दयाराम सिंह अपने पिता राजा भूरी सिंह की मृत्यु के बाद राजा बने। उन्होंने अपने राज्य को सुदृढ किया व हाथरस किले को मजबूत बनाया। प्रजा में रोजगार के साधन बढाने के लिए बाहर से कारीगर बुलाकर प्रशिक्षित किया व किसानों की भी बहुत सहायता की।
वे भगवान दाऊ जी(बलराम) के भक्त थे उनके दरबार में दाऊ जी की नित्य पूजा होती थी। उनके पिता द्वारा निर्मित किये गये दाऊ जी मन्दिर पर मेला लगता था।
उस समय देश पर अंग्रेजो का राज था अंग्रेज सभी देशी रियासतों को छल व बल से अपने अधीन करना चाहते थे। ऐसे समय में हाथरस व मुरसान रियासत स्वतंत्र थी।
इसलिए कई सालों से वे राजा दयाराम जी पर दबाव बनाए हुए थे कि वे अंग्रेजो की अधीनता स्वीकार करें। लेकिन राजा साहब स्वाभिमानी व देशभक्त थे उन्होंने झुकना स्वीकार न किया जिस कारण अंग्रेजों और राजा साहब में कई बार तनातनी हो चुकी थी।
सामरिक रूप से राजा साहब अंग्रेजो के मुकाबले बहुत कमजोर थे लेकिन फिर भी उनके स्वाभिमानी हौसले ने दम नहीं तोड़ा।
अंत मे एक दिन 4 क्रांतिकारी युवक दयाराम जी की शरण में आ पहुँचे और बोले कि राजा साहब हमें बचाइए अंग्रेज हमें झूठे हत्या के आरोप में फंसा रहे हैं।तब राजा साहब ने उन्हें निश्चिंत रहने को कहा व किले में ही अपने साथ ठहरने का प्रबंध कर दिया।
जब यह बात अंग्रेजो को पता चली तो उन्होंने राजा साहब को चारों तथाकथित आरोपियों को अंग्रेजो के हवाले करने के लिए कहा। राजा साहब ने साफ कहा कि वे निर्दोष है और मेरे देश के नागरिकों पर मैं अत्याचार नहीं होने दूँगा।
यह सुनकर अंग्रेज घबरा गए।उन्होंने देख लिया कि हाथरस आने वाले समय में उनके लिए बहुत बड़ी समस्या बन सकता है।
इसलिए 1817 में अंग्रेजों ने हाथरस व मुरसान पर आक्रमण कर दिया।(मुरसान पर उन्ही के परिवार का राज था।वहां के राजा उनके चचेरे भाई भगवंत सिंह थे) मुरसान को अंग्रेजों ने फतेह कर लिया।(मुरसान व उससे कुछ साल पहले के सासनी युद्ध के बारे में फिर कभी विस्तार से लिखेंगे)
जब अंग्रेज जनरल मार्शल के नेतृत्व में हाथरस की ओर बढ़े तो राजा साहब पूर्णतः तैयार हो गए। अंग्रेजों ने किले के चारों ओर घेरा डाल दिया। हाथरस का किला मजबूत था(जो उनके पूर्वज राजा भोज सिंह ने बनवाया था और बाद में राजा सारदल सिंह, पहुप सिंह और दयाराम ने भी इसे मजबूत किया)
मुरसान पर विजय प्राप्त करते ही अंग्रेजी सेना हाथरस पहुंची। इस बीच में हाथरस वाले संभल चुके थे। वैसे हाथरस का किला मुरसान के किले से अधिक मजबूत था। अलीगढ़ और मथुरा की ओर का हिस्सा तो और भी अधिक मजबूत था। हाथरस में रणचंडी का विकट तांडव हुआ। अंग्रेजी सेना के दांत खट्टे हो गए।
यह युद्ध संवत 1874 विक्रम तदनुसार 1817 ई. में हुआ था। लड़ाई कई दिन तक होती रही। राजा दयाराम ने अपने वीर सैनिकों के साथ दांत पीस-पीस कर अंग्रेजों पर हमले किए। प्राणों की बाजी लगा दी।
यह देखकर अंग्रेजों ने राजा दयाराम से सन्धि की भी बात चलाई लेकिन राजा दयाराम व उनके पुत्र नेकराम सिंह ने विचार विमर्श करके मना कर दिया।
जब अंग्रेजों ने देखा अब सन्धि नहीं होगी तो पूर्ण बल के साथ हाथरस-दुर्ग के ऊपर हमला किया। जाट भी वन-केसरी की भांति छाती फुलाकर अड़ गये। श्री दयारामसिंहजी बड़ी संलग्नता से दुर्ग की देखभाल में व्यस्त थे। राजा से लेकर सैनिक तक सभी बड़े चाव से युद्ध कर रहे थे। वे आज अपना या शत्रु का फैसला कर लेना चाहते थे। वे थोड़े थे फिर भी बड़े उत्साह से लड़ रहे थे। किले पर से शत्रु के ऊपर वे अग्नि-वर्षा कर रहे थे। उन्हें पूरी आशा थी कि मैदान उनके हाथ रहेगा, किन्तु अचानक ही सब बदल गया। बारूद की मैगजीन में अकस्मात् आग लग गई। बड़े जोर का घमाका हुआ, उनके असंख्य सैनिक भस्म हो गए। अब क्या था, शत्रु को पता लगने की देर थी, और फिर हाथरस स्वयं विजित हो गया
राजा दयाराम ने अपने सैनिको के परिवार व खुद के परिवार को सुरक्षित बाहर निकाल दिया व फिर वे वहां से निकल कर इधर उधर दूसरे राज्य में शरण लेने के लिए दौड़े। उनके पीछे अंग्रेज लगे हुए थे और वे अंग्रेजो के आगे आगे थे झुकने को तैयार न थे। वे भरतपुर पहुंचे लेकिन भरतपुर भी उस समय अंग्रेजों से युद्ध लड़कर कमजोर हो चुका था और वहां पर अंग्रेजी एजेंट भी कार्यरत थे। सुरक्षा की दृष्टि को देखते हुये वे जयपुर पहुंचे पर वहां भी अंग्रेजों के डर से उन्हें शरण न मिली कई दिनों तक वे इधर उधर भटकते रहे।
उनके परिवार को भी रोज रोज सताया जा रहा था।
यह देखकर उनके बेटे गोविंदसिंह ने अंग्रेजों से सन्धि कर ली।
जिसके बाद राजासाहब वापिस हाथरस पहुंचे और उन्होंने अलीगढ़ में अपनी एक अलग छावनी बना ली।जहाँ वे क्रांतिकारी सैनिक तैयार कर रहे थे। वे फिर से मजबूत होकर अंग्रेजो से टक्कर लेने चाहते थे। लेकिन अंग्रेजों ने उनके राज को कभी नहीं उभरने दिया व राजा दयाराम के नजदीकियों को अंग्रेजों ने तंग करके दूर कर दिया।
आज भी हाथरस के तथा आस-पास के लोग दयाराम का नाम बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ याद करते हैं। वे बड़े उदार और दानी राजा थे। अभी तक उनकी दान की हुई जमीन कितने ही मनुष्य वंश परम्परागत से भोग रहे
इस तरह वे अपने अधूरे सपने के साथ 1841 में स्वर्ग सिधार गये। बाद में उनके इस सपने को उनके प्रपोते राजा महेंद्र सिंह प्रताप ने पूरा किया व जीवनभर अंग्रेजो से लड़कर देश को आजाद करवाया।
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बौद्ध काल से मूर्तियों के अवशेष साहपौ और लखनू जैसे स्थानों में बिखरे हुए थे; कई एकत्र हुए और अलीगढ़ में मथुरा संग्रहालय और जिला परिषद कार्यालय में रखे गए। सहपुआ के भद्र काली मंदिर भी पुरातात्विक मंदिरों की श्रेणी में आते हैं। घाट रामायण लिख कर संत तुलसी साहब ने हाथों की प्रसिद्धि दूर स्थानों तक फैलाई और उनके शिष्य सियाल, किला गेट, हाथर्स में उनकी कब्र पर हजारों में अपनी भक्ति व्यक्त करने के लिए इकट्ठा हुए। इस क्षेत्र में कई अन्य मंदिर हैं: बौहरे वाली देवी, शहर के स्टेशन पर गोपेश्वर महादेव, चौबे वाले महादेव, चिंता हरण, मसानी देवी, चावर्ण गेट के श्री नथजी चामुंडा मा मंदिर, डिब्बा गाली में भगवान वाराह मंदिर, और भगवान बलराम के कई मंदिर ग्रामीण मंदिरों में, भगवान दाऊजी महाराज जी का मंदिर बहुत महत्वपूर्ण है। गढ़ी, हवाले और किले जिनकी अवशेष अभी भी मौजूद हैं वे पुराने जाट जामंदार के हैं। नवाबमंडू और सदाबाद, पिलखुणिया के जालींदर के हवाले, लखनु, फहरपुर, और हयायकन को भी इस श्रेणी में शामिल किया जाएगा।
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