"पतञ्जलि योगसूत्र": अवतरणों में अंतर

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अर्थः- जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः = अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह नामक पाँचों यम, ब्राह्मणत्व आदि जाति, तीर्थ आदि देश, एकादशी-चतुर्दशी इत्यादि काल एवं ब्राह्मण भोजन इत्यादि समय है। इन जाति-काल-देश-समय चारों के अनवच्छिन्न अर्थात् इनके प्रतिबन्ध, सीमा से रहित सभी भूमि, अवस्थाओं में होने वाले महाव्रत हो जाते हैं अर्थात् जाति-देश-काल-समय की परिधि से रहित पालन किये जाने पर यम ही महाव्रत हो जाते हैं ।
= ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व इत्यादि जाति हैं। तीर्थ इत्यादि स्थान देश हैं, चतुर्दशी, एकादशी इत्यादि काल है। ब्राह्मण प्रयोजन इत्यादि समय है- इन जाति-देश-काल-समय चारों से न घिरे हुए, न रोके गये पूर्वोक्त (पहले वर्णन किये गये) अहिंसा इत्यादि (अहिंसा-सत्य-अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह) यम है। सभी क्षिप्त इत्यादि, (क्षिप्त -मूढ़-विक्षिप्त-एकाग्र-निरुद्ध) चित्त की भूमियों में होने वाले, पालन किये जाने पर 'महाव्रत' इस रूप, नाम से कहे जाते है। जैसे कि ब्राह्मण का वध नहीं करूँगा। तीर्थ स्थान में किसी को नहीं मारूंगा। चतुर्दशी तिथि-काल में किसी का वध नहीं करूँगा। देव तथा ब्राह्मण के उद्देश्य के बिना, देव तथा ब्राह्मण के प्रयोजन के अतिरिक्त अर्थात् इनसे भिन्न प्रयोजन में किसी भी जीव की हिंसा नहीं करूँगा। इस प्रकार चार प्रकार के बाधकों के बिना, इन चार प्रकार के विधान रूप बाधाओं या सीमाओं के अभाव में किसी प्राण को किसी भी स्थान पर किसी भी काल में किसी प्रयोजन के लिए किसी का वध नहीं करूँगा। इस रूप से, यहाँ जाति-देश-काल-समय की सीमा से रहित, निस्सीम अहिंसा का पालन है; अतएव यह महाव्रत है। इसी प्रकार सत्य इत्यादि में अर्थात् सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह में सम्बन्ध के अनुसार सम्बन्ध के अनुसार संयोजना, सम्बन्ध जोड़ना चाहिए इस प्रकार से विना निश्चय किए गए, सीमा से न बँधे हुए, नियंत्रित न किये गए सामान्य, साधारण, स्वाभाविक रूप से ही प्रवृत्त हुये, पालन किये गये, अहिंसा इत्यादि यम ही महाव्रत इस रूप, नाम से कहे जाते हैं। फिर दूसरी आवरण सीमा को न ग्रहण करना ही, इस रूप से पालन किए गये अहिंसा इत्यादि यम की ही संज्ञा महाव्रत है (॥३१॥ पातञ्जल योगसूत्र साधनपाद)
 
२. '''नियम''': पाँच व्यक्तिगत नैतिकता