"जसनाथ": अवतरणों में अंतर
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बाल्यकाल – बालक जसवंत जिस समय, केवल एक वर्ष के थे तो वे खेलते हुए, आंगन में पड़ी अंगारों की बड़ी अंगीठी में बैठ गए। यह देखकर माता रूपादेजी अत्यन्त व्याकुल हो उठी। उन्होंने द्रुत-गति से दौड़कर बालक को अग्नि के दहकते अंगारों से बाहर निकाला। माता को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि बालक के शरीर पर जलने का कोई निशान नहीं है।
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नेपालजी को यह भी चिंता हुई कि इसके ‘जोड़’ का वर कहाँ मिलेगा। तब थली-प्रदेश से गए किसी ब्राह्मण ने उन्हें बालक कतरियासर के हमीरजी ज्याणी के पुत्र जसवंत के बारे में बताया और कहा ‘आपकी पुत्री के लिए वही उपयुक्त वर है। आप स्वयं वहाँ जाकर इसकी जाँच-पड़ताल कर सकते हैं।’ नेपालजी बेनीवाल जिस समय काळलदे के सगाई-सम्बन्ध हेतु कतरियासर आए थे उस समय श्री जसनाथजी की आयु दस वर्ष थी। नेपालजी हमीरजी के घर पहुँचने से पहले गाँव के कुएं पर थोड़ा सुस्ताने के लिए ठहर गए थे। उस समय कतरियासर गाँव के टाडे (कुएं के पास का खुला मैदान) में बीकानेर राज्य के दो हाथी जो स्वच्छंद रूप से जंगलों में चरने के लिए छोड़े हुए थे, कतरियासर के कुएं पर पानी पीने को आ निकले। पानी पीने के पश्चात् वे आपस में लड़ पड़े। उन्हें छुड़ाने का साहस किसी का भी नहीं हो रहा था। उस समय बालक जसवंत ने उन हाथियों के कान पकड़ कर पृथक्-पृथक् कर दिया। यह घटना स्वयं नेपालजी ने जब अपनी आँखों से देखि तो उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि ब्राह्मण ने जसनाथजी का जैसा परिचय दिया था, वह अक्षरशः सत्य था। नेपालजी हमीरजी के घर आए और अपनी कन्या का जसनाथजी के साथ सगाई-सम्बन्ध का प्रस्ताव रखा। हमीरजी ने उनके प्रस्ताव पर सहमती प्रकट कर दी।
गुरु गोरखनाथजी से साक्षात्कार एवं योग-दीक्षा – 12 वर्ष की आयु में जसनाथजी अपनी खोई हुई
खबर पड़त हमीर जी सुआया, जसवंत जोग री सविध पाया
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लालमदेसर के चौधरी रामू सारण के बेटे के शरीर पर राक्षस ने कब्ज़ा कर रखा था। कई स्याणो-भोपों के पास जाने पर भी आराम नहीं था। जियोजी महाराज ने उन्हें जसनाथ जी के पास जाने की सलाह दी। चौधरी ने अपने साथियों को साथ लेकर बैलगाड़ी पर जंजीरों से बाँध कर अपने बेटे को कतरियासर ले जाने लगे। रास्ते में बीकानेर दुर्ग के पास उन्हें बीकानेर के राजा नरोजी (बीकाजी के बेटे) के छोटे भाई अड़सी जी (अरिसिंह) मिले। उन्होंने उस राक्षस पीड़ित युवक को देख कर कहा कि हमारे भाई साहब घड़सी जी घोड़ा घुमाने गए हैं। उनका इंतजार कर लो, वो चिमठी से मसल कर सिक्के की पत्ती बना देते हैं। वो इसका राक्षस चुटकियों में निकाल देंगे। रामू सारण ने सोचा चलो अपना काम निकलता है तो इंतजार में क्या हर्ज है। घड़सी जी ने आते ही कहा “बीकानेरी बांका नर कहिए, म्हाँ नजरां भूत नहीं रहिए।” और अपने सोने के ताजने (चाबुक) को उस युवक पर दे मारा। उस मरणासन्न दिख रहे युवक ने ताजने को पकड़ लिया। घडसी जी ने अपनी सारी ताकत लगा दी, यहाँ तक कि घोड़ा और गाड़ी आपस में सट गए लेकिन ताजना नहीं छूटा। अंत में थक हार कर घड़सी जी ने रामू सारण से कहा कि अगर तेरा यह बेटा सही हो जाए तो वापस आते वक़्त यह ताजना लौटा देना। रामू सारण जब कतरियासर पहुंचे तो ओरण की सीमा पर बैलों के पैर जाम हो गए। जसनाथजी ने अपनी दिव्य दृष्टि से यह देख हरोजी को भभूत के साथ सामने भेजा। जसनाथजी ने राक्षस को युवक का शरीर छोड़ने का आदेश दिया जिसके बाद युवक का शरीर निस्तेज हो गया, जिस पर अपने हाथ के स्पर्श से जसनाथजी ने शक्ति लौटा दी। राक्षस को उन्होंने बताया कि तुम्हारा उद्धार मेरी परम्परा के ही देवोजी द्वारा किया जाएगा। रामू सारण को ही जसनाथ जी ने सर्वप्रथम 36 धर्म नियम बताए। वहां से वापस लौटते वक़्त रामू सारण ने घड़सी जी को उनका ताजना लौटाया।
इससे अड़सी जी, घड़सी जी के मन में जसनाथ जी के प्रति कौतुहल पैदा हुआ। वे जसनाथ जी के दर्शनार्थ रवाना होने लगे। भेंट में देने के लिए एक शाल एवं परीक्षा के लिए एक थैली में आधे असली और आधे नकली सिक्के ले लिए। उनके सौतेले भाई लूणकरण की माँ ने लूणकरण को भी एक नारियल दे कर भाइयों के साथ जसनाथजी के पास भेजा। अड़सी घड़सी जी के घोड़े ओरण पर रुक जाने के कारण वे आगे पैदल आए। इस बात से घड़सी जी खिन्न हो गए जबकि लूणकरण के मन में श्रद्धा भाव ही था।
“हरा रे हरा आधा खोटा आधा खरा, खोट खोटेड़ा पड़सी, बीकानेर रो राज लूणकरण करसी”
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जिससे बौखला कर घड़सी जी ने कहा “लूणकरण करसी धूड़ अर भाटो” जिस पर जसनाथजी ने कहा कि तुमने आशीर्वाद स्वरुप धूड़ में जमीन और भाटे में गढ़ (बीकाजी की टेकरी) दे दिया है। इसके बाद घड़सी वहां नहीं रुके लेकिन बीकानेर आने पर वे पागल हो गए। घड़सी जी की माता के कहने पर जसनाथ जी ने उन्हें अपने सम्मुख अर्थात कतरियासर से पूर्व (अड़सीसर-घड़सीसर) में बसने को कहा। नरोजी की मृत्यु के बाद जसनाथ जी के आशीर्वाद स्वरूप लूणकरण जी बीकानेर के राजा बने।
24 वर्ष की आयु में जसनाथ जी ने समाधि लेने का निश्चय किया। उन्होंने हरोजी को आदेश दिया कि वे चूड़ीखेड़ा जाकर काळलदे को समाधि की सूचना दे। सती काळलदे एवं उनकी बहन प्यारल दे कतरियासर आई। जहाँ उन्होंने अपनी गाड़ियाँ रोकी और नीचे उतरी वहां सती दादी के पगल्या (पद चिन्ह) की पूजा होती है जो वर्तमान सती दादी मंदिर हैं। सती दादी जब वहां से गोरख मालिया गई तो जसनाथ जी समाधि ले चुके थे। सती दादी द्वारा झोरावा (विरह गीत) गाने पर जसनाथ जी पुनः प्रकट हुए तथा बाद में उन्होंने वहां एक साथ समाधि ली। वह स्थान गोरखमालिया से थोड़ा दक्षिण में था जहाँ वर्तमान में जसनाथजी मंदिर बना है। प्रारंभ में वहां दो समाधि थी लेकिन पालो जी महाराज ने वहां मंदिर बनवाते समय मकराना से एक बड़ी समधी लाकर रखवा दी। वर्तमान में एक ही समाधि पर सती जी की पंवरी एवं जसनाथ जी की भगवी चादर चढ़ाई जाती है। हरोजी द्वारा जसनाथ जी से अपने लिए निर्देश मांगने पर जसनाथ जी ने बताया कि तुम बम्बलू के पूर्व में जाकर तपस्या करो, और उन्हें कुछ चीजें सौंपी। उनसे कहा कि एक दिन किसी में मेरी जोत जगेगी और वो आकर तुम्हारी छोटी ऊँगली (चिटुली) पकड़े तब ये चीजें दे देना। बाद में जसनाथ जी के चाचा राजोजी के बेटे हंसोजी में जसनाथ जी की जोत जगी। तब उनको जसनाथ जी का सामान हरोजी ने सौंपा और स्वयं समाधि ले ली।
= जसनाथ जी के 36 नियम =
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