"जसनाथ": अवतरणों में अंतर

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'''सिद्धजसनाथी सम्प्रदाय''' एक हिन्दू सम्प्रदाय है जिसके संस्थापक श्री गुरु जसनाथ जी महराज (1482-1506) थे। [[जोधपुर]], [[बीकानेर]] मंडलों में जसनाथ मतानुयायियों की बहुलता है। जसनाथ सम्प्रदाय के पाँच ठिकाने, बारह धाम, चौरासी बाड़ी और एक सौ आठ स्थापना हैं। इस सम्प्रदाय में रहने के लिए छत्तीस नियम पालने आवश्यक हैं। चौबीस वर्ष की आयु में जसनाथ समाधिस्थ हुए थे। बीकानेर से सटे हुए कतरियासर गांव में आज भी इनकी समाधि विद्यमान है। बीकानेर से करीब 45 किलोमीटर दूर [[कतरियासर]] गाँव [[नाथ सम्प्रदाय|सिद्ध नाथ सम्प्रदाय]] के लोगों का मेला में लगता है।
 
इतिहासकारो की ऐसी मान्यता है कि जसनाथजी को कतरियासर गांव रूस्तमजी के कहने पर सिकन्दर लोदी ने भेंट किया। जसनाथ जी के एक शिष्य की समाधी "सिद्धो के पाँचला" नामक गाम्र में है|आविर्भाव – सिद्धाचार्य भगवान श्री जसनाथजी का आविर्भाव संवत् 1539 के पावन पर्व कार्तिक शुक्ल एकादशी, शनिवार को ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था। कतरियासर के जाट हमीर जी ज्याणी निस्संतान होने के कारण उनको समाज एवं परिवार में हेय-दृष्टि से देखा जाता था। एक दिन उनको स्वप्न में गुरु गोरखनाथ जी ने हमीर जी को दर्शन देकर ‘डाबला’‘डाभला’ तालाब की ओर जाने का निर्देश दिया। हमीरजी वहाँ से चलकर जब ‘डाबला’‘डाभला’ की सीमा के समीप पहुँचे तो उनका घोड़ा आगे ना बढ़ा। तब हमीरजी घोड़े की लगाम पकड़े पैदल ही आगे बढ़े, उन्हें तालाब के पूर्वी घाट पर जहाँ पहले केरजाळ का एक सघन वृक्ष था, के नीचे तेज पुंज, आभा मंडल से देदिप्यमान चतुर्भुज रूप में शिशु दिखाई दिया। वहाँ एक नाग एवं एक बाघ जसनाथजी शिशु की रक्षा कर रहे थे। हमीरजी द्वारा ईश-स्तुति के बाद नाग-बाघ दूर हो गए। हमीर जी उस शिशु को घर ले आए और उनका नाम ‘जसवंत’ रखा गया। इससे हमीरजी की पत्नी माँ रूपादे अत्यंत प्रसन्न हुई।
 
बाल्यकाल – बालक जसवंत जिस समय, केवल एक वर्ष के थे तो वे खेलते हुए, आंगन में पड़ी अंगारों की बड़ी अंगीठी में बैठ गए। यह देखकर माता रूपादेजी अत्यन्त व्याकुल हो उठी। उन्होंने द्रुत-गति से दौड़कर बालक को अग्नि के दहकते अंगारों से बाहर निकाला। माता को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि बालक के शरीर पर जलने का कोई निशान नहीं है।
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नेपालजी को यह भी चिंता हुई कि इसके ‘जोड़’ का वर कहाँ मिलेगा। तब थली-प्रदेश से गए किसी ब्राह्मण ने उन्हें बालक कतरियासर के हमीरजी ज्याणी के पुत्र जसवंत के बारे में बताया और कहा ‘आपकी पुत्री के लिए वही उपयुक्त वर है। आप स्वयं वहाँ जाकर इसकी जाँच-पड़ताल कर सकते हैं।’ नेपालजी बेनीवाल जिस समय काळलदे के सगाई-सम्बन्ध हेतु कतरियासर आए थे उस समय श्री जसनाथजी की आयु दस वर्ष थी। नेपालजी हमीरजी के घर पहुँचने से पहले गाँव के कुएं पर थोड़ा सुस्ताने के लिए ठहर गए थे। उस समय कतरियासर गाँव के टाडे (कुएं के पास का खुला मैदान) में बीकानेर राज्य के दो हाथी जो स्वच्छंद रूप से जंगलों में चरने के लिए छोड़े हुए थे, कतरियासर के कुएं पर पानी पीने को आ निकले। पानी पीने के पश्चात् वे आपस में लड़ पड़े। उन्हें छुड़ाने का साहस किसी का भी नहीं हो रहा था। उस समय बालक जसवंत ने उन हाथियों के कान पकड़ कर पृथक्-पृथक् कर दिया। यह घटना स्वयं नेपालजी ने जब अपनी आँखों से देखि तो उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि ब्राह्मण ने जसनाथजी का जैसा परिचय दिया था, वह अक्षरशः सत्य था। नेपालजी हमीरजी के घर आए और अपनी कन्या का जसनाथजी के साथ सगाई-सम्बन्ध का प्रस्ताव रखा। हमीरजी ने उनके प्रस्ताव पर सहमती प्रकट कर दी।
 
गुरु गोरखनाथजी से साक्षात्कार एवं योग-दीक्षा – 12 वर्ष की आयु में जसनाथजी अपनी खोई हुई गायें‘सांढे’ (ऊंटनियां) खोजने गए। भागथळी नामक स्थान पर उन्हें गुरु गोरखनाथजी ने दर्शन दिए, उनके कान में गुरु मंत्र फूंका, सिर पर वरद-हस्त रखा तथा ‘सत्य-शब्द’ का आधान किया। अब वे जसवंत से जसनाथ हो गए। जसनाथजी ने उत्तरीय में बंधा ‘चूरमा’ जो माता रूपादे ने रास्ते के लिए बाँधा था, गुरु को समर्पित किया। गुरु ने कमण्डलकमण्डलु का पानी जसनाथ को पिलाया। गोरखनाथजी ने जब जसनाथजी के कान में नाथ-योगियों की भांति कुंडल पहनाने के लिए ‘त्रिधारी करद’ चलाया तो रक्त न निकलकर दुग्ध की धारा स्फुटित हुई। गोरखनाथजी ने कहा ‘बालक तुम तो जन्मजात ‘सिद्ध’ पुरुष हो।’ बालक जसनाथ ने अपने गुरु से निवेदन किया कि ‘आप मेरे गाँव कतरियासर पधारें।’ गुरु ने यह प्रार्थना स्वीकार की, गुरु-चेले भागथळी से कतरियासर की तरफ रवाना हुए। सामने से धूप आने के कारण जसनाथजी आगे-आगे एक जाळ की टहनी लेकर चल रहे थे। जब कतरियासर थोड़ी दूर रह गया तो वर्तमान में जहाँ ‘गोरखमालिया’ स्थित है, वहाँ पहुँचने पर शिष्य ने जब पीछे मुड़कर देखा तब गुरु दृष्टिगोचर न हुए, वहाँ उनके चरण-चिह्न ही शेष थे। ऐसा माना जाता है कि यह मिलन भौतिक न था। अन्यथा पल-क्षण में भौतिक देह को कहाँ छुपाया जा सकता है। ऐसा मानने का अन्य कारण यह भी है कि गोरखनाथजी का समय विद्वानों द्वारा दसवीं शताब्दी का अंतिम चरण एवं ग्यारहवीं शताब्दी का प्रथम चरण निर्धारित किया गया है, जबकि यह मिलन संवत् 1551 में हुआ था। उस समय जसनाथजी के हाथ में जो जाळ (पीलू) की टहनी थी, उसे वहाँ रोप दिया। टहनी कुछ ही समय में सजीव होकर हरी हो गई अर्थात जड़ें पकड़ ली। इसी स्थान पर जसनाथजी ने तपस्या शुरू की एवं सिद्ध धर्म की स्थापना की। गोरखनाथजी से साक्षात्कार एवं नवीन धर्म स्थापना की यह घटना संवत् 1551 आश्विन शुक्ल सप्तमी की है।
 
खबर पड़त हमीर जी सुआया, जसवंत जोग री सविध पाया
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लालमदेसर के चौधरी रामू सारण के बेटे के शरीर पर राक्षस ने कब्ज़ा कर रखा था। कई स्याणो-भोपों के पास जाने पर भी आराम नहीं था। जियोजी महाराज ने उन्हें जसनाथ जी के पास जाने की सलाह दी। चौधरी ने अपने साथियों को साथ लेकर बैलगाड़ी पर जंजीरों से बाँध कर अपने बेटे को कतरियासर ले जाने लगे। रास्ते में बीकानेर दुर्ग के पास उन्हें बीकानेर के राजा नरोजी (बीकाजी के बेटे) के छोटे भाई अड़सी जी (अरिसिंह) मिले। उन्होंने उस राक्षस पीड़ित युवक को देख कर कहा कि हमारे भाई साहब घड़सी जी घोड़ा घुमाने गए हैं। उनका इंतजार कर लो, वो चिमठी से मसल कर सिक्के की पत्ती बना देते हैं। वो इसका राक्षस चुटकियों में निकाल देंगे। रामू सारण ने सोचा चलो अपना काम निकलता है तो इंतजार में क्या हर्ज है। घड़सी जी ने आते ही कहा “बीकानेरी बांका नर कहिए, म्हाँ नजरां भूत नहीं रहिए।” और अपने सोने के ताजने (चाबुक) को उस युवक पर दे मारा। उस मरणासन्न दिख रहे युवक ने ताजने को पकड़ लिया। घडसी जी ने अपनी सारी ताकत लगा दी, यहाँ तक कि घोड़ा और गाड़ी आपस में सट गए लेकिन ताजना नहीं छूटा। अंत में थक हार कर घड़सी जी ने रामू सारण से कहा कि अगर तेरा यह बेटा सही हो जाए तो वापस आते वक़्त यह ताजना लौटा देना। रामू सारण जब कतरियासर पहुंचे तो ओरण की सीमा पर बैलों के पैर जाम हो गए। जसनाथजी ने अपनी दिव्य दृष्टि से यह देख हरोजी को भभूत के साथ सामने भेजा। जसनाथजी ने राक्षस को युवक का शरीर छोड़ने का आदेश दिया जिसके बाद युवक का शरीर निस्तेज हो गया, जिस पर अपने हाथ के स्पर्श से जसनाथजी ने शक्ति लौटा दी। राक्षस को उन्होंने बताया कि तुम्हारा उद्धार मेरी परम्परा के ही देवोजी द्वारा किया जाएगा। रामू सारण को ही जसनाथ जी ने सर्वप्रथम 36 धर्म नियम बताए। वहां से वापस लौटते वक़्त रामू सारण ने घड़सी जी को उनका ताजना लौटाया।
 
इससे अड़सी जी, घड़सी जी के मन में जसनाथ जी के प्रति कौतुहल पैदा हुआ। वे जसनाथ जी के दर्शनार्थ रवाना होने लगे। भेंट में देने के लिए एक शाल एवं परीक्षा के लिए एक थैली में आधे असली और आधे नकली सिक्के ले लिए। उनके सौतेले भाई लूणकरण की माँ ने लूणकरण को भी एक नारियल दे कर भाइयों के साथ जसनाथजी के पास भेजा। अड़सी घड़सी जी के घोड़े ओरण पर रुक जाने के कारण वे आगे पैदल आए। इस बात से घड़सी जी खिन्न हो गए जबकि लूणकरण के मन में श्रद्धा भाव ही था। अड़सी घड़सी जी ने शाल जसनाथजी को दिया तो जसनाथ जी ने उसे धूने में ओट दिया। ये देख और भी तिलमिलाए घड़सी जी ने जसनाथ जी को शर्मिंदा करने के लिए कहा “महाराज हम इस शाल को जिस दुकानदार से लिया उसे दिखाना भूल गए आप हमें यह एक दिन के लिए दें तो वापस ला देंगे। अन्यथा वह इसकी ज्यादा कीमत लगा देगा। जसनाथ जी ने धूने से वैसे ही कई शाल निकाल दिए और कहा जो तुम्हारा है, वह ले लो। घड़सी जी इतने पर भी नहीं माने और वो सिक्कों की थैली जसनाथजी को भेंट की,की। लूणकरण जी ने श्रद्धापूर्वक नारियल भेंट किया जिसे जसनाथजी ने स्वीकार किया। सिक्कों की थैली जसनाथजी ने हरोजी की तरफ बढ़ाते हुए कहा कि
 
“हरा रे हरा आधा खोटा आधा खरा, खोट खोटेड़ा पड़सी, बीकानेर रो राज लूणकरण करसी”
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जिससे बौखला कर घड़सी जी ने कहा “लूणकरण करसी धूड़ अर भाटो” जिस पर जसनाथजी ने कहा कि तुमने आशीर्वाद स्वरुप धूड़ में जमीन और भाटे में गढ़ (बीकाजी की टेकरी) दे दिया है। इसके बाद घड़सी वहां नहीं रुके लेकिन बीकानेर आने पर वे पागल हो गए। घड़सी जी की माता के कहने पर जसनाथ जी ने उन्हें अपने सम्मुख अर्थात कतरियासर से पूर्व (अड़सीसर-घड़सीसर) में बसने को कहा। नरोजी की मृत्यु के बाद जसनाथ जी के आशीर्वाद स्वरूप लूणकरण जी बीकानेर के राजा बने।
 
24 वर्ष की आयु में जसनाथ जी ने समाधि लेने का निश्चय किया। उन्होंने हरोजी को आदेश दिया कि वे चूड़ीखेड़ा जाकर काळलदे को समाधि की सूचना दे। सती काळलदे एवं उनकी बहन प्यारल दे कतरियासर आई। जहाँ उन्होंने अपनी गाड़ियाँ रोकी और नीचे उतरी वहां सती दादी के पगल्या (पद चिन्ह) की पूजा होती है जो वर्तमान सती दादी मंदिर हैं। सती दादी जब वहां से गोरख मालिया गई तो जसनाथ जी समाधि ले चुके थे। सती दादी द्वारा झोरावा (विरह गीत) गाने पर जसनाथ जी पुनः प्रकट हुए तथा बाद में उन्होंने वहां एक साथ समाधि ली। वह स्थान गोरखमालिया से थोड़ा दक्षिण में था जहाँ वर्तमान में जसनाथजी मंदिर बना है। प्रारंभ में वहां दो समाधि थी लेकिन पालो जी महाराज ने वहां मंदिर बनवाते समय मकराना से एक बड़ी समधी लाकर रखवा दी। वर्तमान में एक ही समाधि पर सती जी की पंवरी एवं जसनाथ जी की भगवी चादर चढ़ाई जाती है। हरोजी द्वारा जसनाथ जी से अपने लिए निर्देश मांगने पर जसनाथ जी ने बताया कि तुम बम्बलू के पूर्व में जाकर तपस्या करो, और उन्हें कुछ चीजें सौंपी। उनसे कहा कि एक दिन किसी में मेरी जोत जगेगी और वो आकर तुम्हारी छोटी ऊँगली (चिटुली) पकड़े तब ये चीजें दे देना। बाद में जसनाथ जी के चाचा राजोजी के बेटे हंसोजी में जसनाथ जी की जोत जगी। तब उनको जसनाथ जी का सामान हरोजी ने सौंपा और स्वयं समाधि ले ली।
 
= जसनाथ जी के 36 नियम =
"https://hi.wikipedia.org/wiki/जसनाथ" से प्राप्त