"अष्टछाप": अवतरणों में अंतर

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पंक्ति 26:
:''रस में रसिक रसिकनी भौहँन, रसमय बचन रसाल रसीलो॥
:''सुंदर सुभग सुभगता सीमा, सुभ सुदेस सौभाग्य सुसीलो।
:''''कृष्णदास' प्रभु रसिक मुकुट मणि, सुभग चरित रिपुदमन हठीलो॥
 
* [[परमानंद दास|परमानन्ददास]] (१४९१ ई. - १५८३ ई.)
पंक्ति 50:
:''प्रेम के पुंज में रासरस कुंज में, ताही राखत रसरंग भारी ॥
:''श्री यमुने अरु प्राणपति प्राण अरु प्राणसुत, चहुजन जीव पर दया विचारी ।
:''''छीतस्वामी' गिरिधरन श्री विट्ठल प्रीत के लिये अब संग धारी ॥
 
* [[नंददास]] (१५३३ ई. - १५८६ ई.)
पंक्ति 66:
:''मदन गोपाल देखि कै इकटक रही ठगी मुरझाय।।
:''बिखरी लोक लाज यह काजर बंधु अरु भाय।
:''''दास चतुर्भुज' प्रभु गिरिवरधर तन मन लियो चुराय।।
 
इन कवियों में सूरदास प्रमुख थे। अपनी निश्चल भक्ति के कारण ये लोग भगवान कृष्ण के सखा भी माने जाते थे। परम भागवत होने के कारण यह लोग भगवदीय भी कहे जाते थे। यह सब विभिन्न वर्णों के थे। परमानन्द कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। कृष्णदास शूद्रवर्ण के थे। कुम्भनदास राजपूत थे, लेकिन खेती का काम करते थे। सूरदासजी किसी के मत से सारस्वत ब्राह्मण थे और किसी किसी के मत से ब्रह्मभट्ट थे। गोविन्ददास सनाढ्य ब्राह्मण थे और छीत स्वामी माथुर चौबे थे। [[नंददास]] जी [[सोरों]] सूकरक्षेत्र के सनाढ्य ब्राह्मण थे, जो महाकवि [[गोस्वामी तुलसीदास]] जी के चचेरे भाई थे। अष्टछाप के भक्तों में बहुत ही उदारता पायी जाती है। "[[चौरासी वैष्णव की वार्ता]]" तथा "दो सौ वैष्ण्वन की वार्ता" में इनका जीवनवृत विस्तार से पाया जाता है।<ref>हिंदी साहित्य का इतिहास, [[रामचन्द्र शुक्ल|आचार्य रामचंद्र शुक्ल]], प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, २00५, पृष्ठ- १२५-४१, ISBN: 81-7714-083-3</ref>